जब से मूलभूत आवश्यकताओं के अभाव के चलते लोगों के मरने की समस्या कम हुई है, मानवजनित एक नई समस्या ने आकर समाज को घेर लिया है। दुधमुंहे बच्चों से लेकर मरणासन्न तक का बलात्कार। समाज और कानून इसे रोक पाने में अब तक नाकाम रहे हैं। बलात्कार एक ऐसा कुकृत्य और अपराध है जो कई चरणों से गुजर कर अपने अंजाम तक पहुंचता है। किसी को टकटकी लगाकर देखना, पीछा करना, गलत इशारे करना, निजी अंग दिखाना, अश्लील शब्द बोलना, स्पर्श करना, बल प्रयोग करना और फिर बलात्कार करना। इसमें कई चरण तक तो लोग सिर्फ छेड़खानी मान कर नजरअंदाज कर देते हैं। जबकि हम यह भूल जाते हैं कि आपराधिक नजर से देखना भी बलात्कार का प्रथम चरण है।
बलात्कारी और पीड़ित दोनों इसी समाज के सदस्य होते हैं। हमारे घरों के परिजन हो सकते हैं। हमारी मानसिकता तय करती है कि अन्य के प्रति हम कैसी सोच रखते हैं। व्यापक और संकीर्ण मानसिकता के दायरे में हमारा स्थान हमारी सोच को स्थायी बनाता है और हम उसी सोच के अनुरूप काम करते हैं। हमारे परिवेश, संस्कार, समाज और संस्कृति का हमारी आने वाली पीढ़ी पर सीधा असर पड़ता है। ह्यूगो ब्रिज के उत्परिवर्तनवाद ने यह साबित कर दिया है कि जीन पर तात्कालिक प्रभाव भी पड़ सकता है, जो माता-पिता से इतर हो सकता है।
यानी परिवेशजनित असर। जरा ठहरकर हमें ईमानदारी से यह सोचना चाहिए कि जैसा समाज और भावी पीढ़ी हम चाहते हैं, क्या हम उसके अनुरूप अभिभावक हैं! क्या हमारे द्वारा रखी गई बुनियाद हमारी अपेक्षा के अनुरूप है? क्या हमने अपने आपको और अपने समाज को परिष्कृत कर इस मुकाम पर रखा है, जहां से ऐच्छिक आगामी पीढ़ी का गठन हो सकेगा? यह विचार करने की जरूरत है।
दरअसल, स्त्री को खूबसूरत गुड़िया बना कर बाजार विकसित किया गया है। विश्व सुंदरी प्रतियोगिता, ब्रह्मांड सुंदरी प्रतियोगिता से कॉलेजों और कस्बों में भी सौंदर्य प्रतियोगिता का आयोजन होना उसी स्त्री आधारित बाजारवाद का हिस्सा है। हमारी विशालकाय आबादी उपभोक्ता के रूप में दुनिया को आकर्षित करती है। चैनल, टीवी और इंटरनेट और उद्योगपति अपना धंधा चमका रहे हैं। सिर्फ कानून का लचीलापन या फैसले की देरी ही जिम्मेवार नहीं है इस बढ़ते अपराध के लिए। सर्वप्रथम जिम्मेवार वह परिवार है जो बलात्कारी को त्यागने के बजाय संरक्षण और सहानुभूति देता है, पीड़िता को तिरस्कृत कर अकेला छोड़ देता है। इस तरह अगले बलात्कार और नए-नए बलात्कारी को न्योता देता है, समृद्ध और संवर्द्धित करता है। यह न भूलें कि आज के बच्चे बड़ों का आदेश नहीं मानते, लेकिन नकल अवश्य करते हैं। इसलिए अपनी छवि और उससे निर्मित परिवेश को स्वच्छ बनाएं।
’अवधेश कुमार अवध, मेघालय
कमाई के अस्पताल
कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अस्पताल बड़े उद्योग बन गए हैं, और यह सब मानव जीवन को संकट में डाल कर हो रहा है। अस्पतालों के क्या मापदंड होने चाहिए? इसके नियंत्रकों को मालूम है, लेकिन पैसों की सुविधा के कारण मुंह बंद रहता है। कबूतर के दड़बों की तरह कमरा होता है और बिस्तर के लिए प्रतिदिन हजारों रुपए। इसके बावजूद हाल ही में गुजरात के अस्पताल में कई रोगी जल कर मर गए। यही नहीं, दवाई के दाम भी लागत से दस गुना से लेकर सौ गुना तक अधिकतम खुदरा मूल्य प्रिंट होता है। डॉक्टर कीमती दवाइयां ही मरीजों को लिखते हैं। कुछ दवाइयों के तो मानो ये पेटेंट करवा लेते हैं, जो उनके क्लिनिक को छोड़कर अन्य जगहों पर नही मिलती है। एक-एक डॉक्टर की एक दिन की औसत कमाई चालीस-पचास हजार रुपए होती है। कई बार इससे भी ज्यादा। क्या यह आय सरकार की नजर में होती है? नहीं।
माना कि डॉक्टर की सेवा जीवन रक्षक होती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जनता का शोषण करें। हालांकि कोरोना काल में अनेक डॉक्टरों ने अपनी जान देकर भी रोगियों की देखभाल की। निजी अस्पताल को छोटे आवासीय भवनों से संचालित करने की अनुमति देने के बजाय राज्य सरकारें बेहतर अस्पताल प्रदान कर सकती हैं। मानवीय मूल्य के बिना कोई भी सेवा अधूरी है।
’प्रसिद्ध यादव, बाबूचक, पटना, बिहार