अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर जिस तेजी से तालिबान का कब्जा हुआ, इसका अंदाजा शायद कई देश और खुद अफगानिस्तानी सरकार को भी नहीं था। एक ओर चीन और पाकिस्तान तालिबान से अपनी दोस्ती के चलते काबुल के नए घटनाक्रम को लेकर आश्वस्त दिख रहे, वहीं भारत फिलहाल बहुत सावधानी से कदम उठा रहा है।
भारत के अब तक तालिबान के साथ सीधी बातचीत शुरू न करने की बड़ी वजह यह रही है कि भारत अफगानिस्तान में भारतीय अभियानों पर हुए हमलों में तालिबान को मददगार और जिम्मेदार मानता था। एक और बड़ा कारण यह भी रहा कि ऐसा करने से अफगानिस्तान सरकार के साथ उसके रिश्तों में दिक्कत आ सकती थी, जो ऐतिहासिक रूप से काफी मधुर रहे हैं। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। सच्चाई यह है कि पिछले कुछ सालों में भारत सरकार ने आफगानिस्तान में पुनर्निर्माण से जुड़ी परियोजनाओं में लगभग तीन अरब डॉलर का निवेश किया है। संसद से लेकर सड़क और बांध बनाने तक कई परियोजनाओं में सैकड़ों भारतीय पेशेवर काम कर रहे हैं।
ऐसे में भारत के पास दो रास्ते हैं। या तो भारत अफगानिस्तान में बना रहे या फिर सब कुछ बंद करके नब्बे के दशक वाली भूमिका में आ जाए। अगर भारत दूसरा रास्ता अपनाता है तो पिछले दो दशक का किया-धरा खत्म हो जाएगा। इसमें भारत को कोई बीच का रास्ता अपनाते हुए तालिबान से बातचीत का रास्ता अपनाना चाहिए। 1990 में जब अफगानिस्तान में तालिबान का राज था और तब भारत ने अपने दूतावास बंद कर दिए थे, उसके बाद भारत ने कंधार विमान अपहरण कांड देखा था। भारत विरोधी गुटों का विस्तार भी भारत ने देखा। 2011 में भारत ने अफगानिस्तान के साथ रणनीतिक साझेदारी समझौता किया था, जिसमें हर सूरत में आफगानिस्तान का समर्थन करने का भारत ने वादा किया था।
दरअसल, तालिबान में एक गुट ऐसा भी है जो सहयोग वाला रवैया रखता है। जब अनुच्छेद 370 का मुद्दा उठा तो पाकिस्तान ने इसे कश्मीर से जोड़ा, लेकिन तालिबान ने कहा कि उसे इससे कोई लेना देना नहीं है और इसकी उसे कोई परवाह नहीं है कि भारत कश्मीर में क्या करता है। ऐसे में बहुत मुमकिन है कि तालिबान 2.0 तालिबान 1.0 से थोड़ा अलग होगा। लेकिन तालिबान ने सिर्फ चेहरा बदला है या आईना, इस पर विभिन्न जानकारों का राय बंटी हुई है।
भारत के सामने कई चुनौतियां आ सकती हैं, जिसमें तालिबान के साथ संबंधित आतंकवादी गुट जैसे जैश, लश्कर और हक्कानी नेटवर्क की छवि अब तक भारत विरोधी रही है। दूसरी चुनौती के रूप में मध्य एशिया में व्यापार और आर्थिक विकास के मसले पर दिक्कतें आ सकती हैं। तीसरी चुनौती चीन और पाकिस्तान को लेकर है, जो पहले से ही तालिबान के साथ अच्छे संबंध बनाए हुए है। जाहिर है, भारत तालिबान से तभी बातचीत शुरू करेगा जब तालिबान पूरी तरह से बदल कर भारत के आंतरिक हितों और मुद्दोंं से दूर रहेगा। इसलिए भारत भी अपना कदम फूंक-फूंक कर रख रहा है।
’समराज चौहान, पूर्वी कार्बी आंग्लांग, असम</p>
बेमानी बहस
टीवी चैनलों जिस तरह से नेताओं के बीच बहस करवाए जाते हैं, मेरा मानना है कि बहस के जरिए लोगों को हिंसक बनाया जा रहा है। संसद भवन में भी इन दिनों इसी तरह का माहौल रहता है। बहस कम एक दूसरे पर चीखते-चिल्लाते नेता। पंद्रह अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने भारतीय संसद में सार्थक बहस नहीं होने पर चिंता जताते हुए बड़ी टिप्पणी की।
टीवी चैनलों पर हो रही बहस को देख कर लगता कि यह क्या माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है! अफगानिस्तान में क्या स्थिति है, इस पर हम अपने देश में बहस करें या न करें, आम लोगों पर कुछ खास अंतर पड़ने वाला नहीं है। लेकिन देश के सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी हमारे संसदीय बहसों को लेकर हो तो यह एक महत्त्वपूर्ण और गंभीर बहस हो सकती है। अफसोस की बात है कि भाषाओं की मर्यादा सभी जगह गिरी है। बहस का उद्देश्य जब एक दूसरे को नीचा दिखाना और तंज कसना रह गया हो तो समझ सकते हैं कि आम लोगों के लिए क्या कानून बनेगा और क्या आम जनों का हित होगा।
प्रधान न्यायाधीश के द्वारा कहे गए वाक्यों की व्याख्या जरूरी है। हम विधि विशेषज्ञों की राय जान सकते हैं कि हमारे सांसद के बहस का स्तर कहां चला गया है। हम जिस तरह से अपराधी और दागी नेताओं को संसद भवन भेज रहे हैं, उससे आने वाले समय लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। यह सत्य है कि पहले और दूसरे संसदीय काल में हमने योग्य और काबिल लोगों को जीत दिला कर संसद भवन तक पहुंचाया। आश्चर्य यह है कि उस समय हमारे देश की साक्षरता दर तीस प्रतिशत थी। आज हम साक्षरता में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन हम उतने ही निरर्थक जनप्रतिनिधियों को चुन कर भेज रहे हैं। यह हमारे ज्ञान और शिक्षित होने पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। साथ ही यह मानसिकता भी बताता है कि हमें कैसी सरकार और नेता चाहिए! शायद यही कारण है कि संसद से लेकर मीडिया हाउस तक केवल नफरती बोल के आधार पर बहस शुरू कर दी गई है।
’अशोक कुमार, बेगूसराय, बिहार</p>