पिछले साल पूर्णबंदी के बाद से शिक्षा व्यवस्था अभी तक पटरी पर नहीं लौट सकी। ऑनलाइन माध्यम से शिक्षा को ‘ना’ से ‘हां’ करने का सिलसिला जारी है। ऐसे में यह सोचना किसी अतिश्योक्ति से कम नहीं होगा कि जो बच्चे बारहवीं के विद्यार्थी हैं और पढ़ाई-लिखाई में उतने तेज नहीं हैं, क्या वे परीक्षा में सफल हो पाएंगे? इतना ही नहीं, जब सामान्य तरीके से कक्षाएं चलती थीं तब भी स्थितियां गड़बड़ रहती थीं। आज की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है।

महामारी के बढ़ते आंकड़े और राज्यों के द्वारा लगाई जा रही पूर्णबंदी ने परीक्षाओं को बाधित किया है। सीबीएसई, आइसीएसई समेत कई राज्य बोर्ड ने भी दसवीं के विद्यार्थियों को बिना परीक्षा के आंतरिक और पिछले परिणाम के आधार पर नियम बना कर मूल्यांकन करने का निर्णय लिया है। वहीं बारहवीं की परीक्षाओं को टाल दिया गया है। ऐसे में ये साफ होना अत्यंत आवश्यक है कि आखिरकार परीक्षाएं होंगी भी या नहीं। विद्यार्थियों को आगे की पढ़ाई के लिए प्रवेश प्रतियोगी परीक्षाओं की भी तैयारी करनी पड़ती है। इस विषम परिस्थिति में विद्यार्थी उलझन में हैं कि क्या वे अभी भी बोर्ड की तैयारी में जुटे रहें या फिर भविष्य को लेकर पढ़ाई शुरू करे।

गौरतलब है कि जब पिछली बार संक्रमितों का आकड़ा करीब एक लाख पहुंचा था तो विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को भी विशेष सुविधा देकर पास किया गया था। यह आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर हुआ था। आज देश में दूसरी लहर के कारण संक्रमितों का आकड़ा तीन गुना अधिक है। दिल्ली विश्वविद्यालय समेत जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भी बहुत सारे लोग संक्रमित पाए गए हैं और बहुतों ने अपनी जान भी गवां दी। ऐसे में ऑनलाइन हो या नियमित, दोनों ही माध्यम से परीक्षा कराना, चुनौती भरा निर्णय होगा। दिल्ली समेत कई महानगर और इसके साथ साथ ग्रामीण क्षेत्र भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। किसी परिवार ने अपने सदस्यों को खोया है तो कोई मानसिक रूप से अस्वस्थ है। परीक्षा जीवन का एक हिस्सा है, न कि संपूर्ण जीवन। ऐसे में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, विश्वविद्यालय, सीबीएसई, आइसीएसई समेत सभी शिक्षा विभाग को गंभीरता से सोच कर निर्णय लेना चाहिए।
-अमन जायसवाल, दिल्ली विश्वविद्यालय

कैमरे की सीख
लोग एक दूसरे को किसी न किसी तरीके से परखते रहते हैं। उनकी काबिलियत को भी परखा जाता है। रंग-रूप, भेद-भाव, अमीर-गरीब, जाति आदि की कसौटी पर। खुद को सभ्य कहने वाले समाज यह कितना सही है? आज शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जो कैमरे का इस्तेमाल न करता हो। कैमरे में खिंची हुई लोगों की तस्वीरें क्या किसी तरह का भेदभाव करती हैं? हमारा देखने का नजरिया कैमरे जैसा होना चाहिए, जो सिर्फ इंसानो को देखे, न कि उनके प्रति किसी तरह का भेदभाव करे। आज हम बेशक इक्कीसवीं सदी में रह रहे हो, लेकिन हमारी सोच पिछड़ी हुई है। कुछ बदलाव नहीं दिखता है। लोग अपने आप में और अपनी सोच में परिवर्तन नहीं लाना चाहते। अगर हमारी ऐसी ही सोच बनी रहेगी, तो बेशक हम आगे निकले दिखें, मगर वास्तव में हम पिछड़े ही रहेंगे। इसलिए हमें कैमरे से सीख लेनी चाहिए।
’सृष्टि मौर्य, फरीदाबाद, हरियाणा