आज हम अपने आदर्शों से दूर होते चले गए हैं। मात्र लड़के लड़की का संबंध करने में लाखों खर्च कर देते हैं। जबरदस्त आडंबर और दिखावा करते हैं। ऐसे समाज में साधारण आय वाला सामान्य गृहस्थ कैसे जी सकेगा? जन्म मरण विवाह ये तीन संस्कार तो गरीब की झोपड़ी से लेकर महलों तक सभी को करने अनिवार्य रहते हैं। वही समाज आगे बढ़ेगा और व्यवस्थित विकास करेगा, जहां ये तीन संस्कार सहज और सरल होंगे? माता-पिता कन्या के जन्म को भार स्वरूप समझने लगे हैं।
इसी विकृत दृष्टिकोण के कारण गर्भपात जैसे पाप भी समाज में फैलने लगे हैं। एक तरफ हम अंहिसा के उच्चतम आदर्श की बात करते हैं। चींटी तक की हिंसा से बचते हैं और दूसरी तरफ गर्भपात जैसी भयंकर हिंसा करते हैं। फिर अहिंसा के उच्च आदर्श का क्या अर्थ रह गया? ऐसे कुत्सित कर्म का दुष्फल अवश्यंभावी है। ऐसी प्रवृतियों को सीमित करके, मानव अति संतानोत्पत्ति से तो बचेगा, शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बेहतर रहेगा।
कांतिलाल मांडोत, सूरत