हमेशा की तरह एक बार फिर इजराइल और फिलस्तीन विवाद सुर्खियों में है। इस विवाद को लेकर सार्वजनिक मंचों पर भी गुटबाजी की राजनीति शुरू हो गई है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि यह मुद्दा मानवता और राष्ट्रहित के लिए उचित निर्णय से भी जुड़ा है। इस विवाद के संदर्भ में भारत का आज भी वही रुख है, जो आजादी से पहले था। चाहे वह येरुशलम को इजरायल की राजधानी मानने वाला प्रस्ताव हो या फिर दोनों राष्ट्रों के बीच हिंसक घटना का मुद्दा, भारत ने इसका कड़ा विरोध किया है। भारत के लिए इजराइल और फिलस्तीन, दोनों की अहमियत समान है। दोनों राष्ट्रों ने कश्मीर मुद्दे पर भारत का साथ दिया है। अगर हम इस मुद्दे को धर्म से जोड़ कर नहीं देखें तो इन देशों के साथ भारत का अच्छा सबंध जुड़ा हुआ है।
इस क्षेत्र में लगभग सात मिलियन भारतीय रहते हैं, जो भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में चालीस बिलियन डॉलर का योगदान करते हैं। भारत के साठ प्रतिशत से अधिक तेल, गैस की आपूर्ति इस्लामी देशों से होती है। जहां कारगिल युद्ध के समय से आज तक भारत के शीर्ष-10 व्यापारिक साझेदार रहे इजरायल ने भारत का रक्षा और तकनीकी क्षेत्र में भरपूर सहयोग दिया, वहीं भारत में ऑक्सीजन संकट के बीच सऊदी अरब जैसे इस्लामी राष्ट्र ने भारत को ऑक्सीजन आपूर्ति की, पाकिस्तान के पुरजोर कोशिश के बावजूद विगत वर्ष ओआइसी में इस्लामी राष्ट्रों के प्रतिनिधियों द्वारा कश्मीर मुद्दे को दरकिनार कर दिया गया।
बहरहाल, इस मुद्दे पर भारत की नीति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इस विषय की वजह से इजराइल और अमेरिका का भारत से थोड़ा-बहुत मनमुटाव हो सकता है, लेकिन ‘थोड़ा बहुत मनमुटाव’ के बदले हम अपना बहुत बड़ा नुकसान नहीं कर सकते हैं। चूंकि यह मुद्दा सिर्फ फिलिस्तीन और इजरायल से ही नहीं, बल्कि पश्चिम एशिया के कई राष्ट्रों के हित से जुड़ा हुआ है, इसलिए भारत को एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए संयुक्त राष्ट्र में फिलस्तीन को एक राष्ट्र के रूप में दर्जा दिलाने का समर्थन तथा येरुशलम के बंटवारे के मुद्दे पर बल देना चाहिए, ताकि वैश्विक शांति बहाल किया जा सके। अगर हम इक्कीसीवीं सदी में भी रूढ़िवादी दृष्टिकोण को अपनाएंगे तो हमारे राष्ट्र में आंतरिक असहिष्णुता तो बढ़ेगी ही, साथ ही हमारे विदेशी सबंध भी कमजोर पड़ जाएंगे
सोनू राज, मुखर्जीनगर, दिल्ली</em>
बाइडेन का रुख
ऐसा साफ लगने लगा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन भी उसी नक्शे-कदम पर चल रहे हैं, जिस पर उनके कई पूर्ववर्ती चलते रहे थे। यानी इजराइल को हर कीमत पर रक्षा कवच मुहैया कराते रहना है, चाहे वह जितना भी जुल्म कर ले, उसे ‘अंकल सैम’ का समर्थन हर हाल में मिलते रहना चाहिए। बाइडेन एक तरफ तो नेतन्याहू को पांच बार फोन करके युद्ध-विराम करने का दबाव बनाते हैं। दूसरी और जब यही काम सुरक्षा परिषद बिल के रूप में लाता है तो वहां वीटो करवा देते हैं। इतना ही नहीं, इजराइल को और हथियार बेचने की वकालत करते हैं। शायद कुछ पश्चिमी देशों की इसी हठधर्मिता के कारण इतने दशकों बाद भी फिलस्तीनियों को न्याय नहीं मिला।
जंग बहादुर सिंह, जमशेदपुर, झारखंड</em>