‘हादसों का शहर’ (संपादकीय, 3 जनवरी) पढ़ा। आमतौर पर हादसों के शहर के रूप में मुंबई का अधिक नाम लिया जाता है, लेकिन अब आजकल मुंबई का नाम इस क्षेत्र में कमजोर पड़ गया है और दिल्ली का नाम ज्यादा सुर्खियों में रहने लगा है। पिछले कुछ सालों से जिस तरह के हादसे दिल्ली में हो रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि देश की राजधानी होने के बावजूद यहां की सुरक्षा व्यवस्था और नियम-कायदे हाशिये पर हैं।
एक ओर सड़क दुर्घटनाओं का सिलसिला नहीं थम रहा है, दूसरी ओर हत्या- बलात्कार जैसे अपराधों के मामले भी लगातार देखे जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि इस शहर की शांति कहीं खो गई है। आखिर क्या कारण है कि जिस दिल्ली में कभी शांति एक पहचान थी, वहां आज अपराधियों का भी बोलबाला होता जा रहा है।
पुलिस प्रशासन का भय अपराधियों के मन से कम होता जा रहा है। जबकि दिल्ली हमेशा से सुरक्षा-व्यवस्था के लिहाज से सर्वोच्च मानकों वाला शहर रही है। देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली में हमेशा ही चाक-चौबंद पुलिस प्रबंध और प्रशासन सक्रिय रहता है। इसके बावजूद आजकल इस महानगर में अपराध का बढ़ना यही बताता है कि आजकल पुलिस शायद अपने दायित्वों के निर्वाह के प्रति कहीं न कहीं लापरवाह हो रही है। वरना क्या कारण है कि जो दिल्ली हमेशा दिल वालों की कहलाती रही है, उसी दिल्ली पर आज हादसों का शहर होने का खतरा मंडराने लगा है।
मनमोहन राजावत राज, शाजापुर, मप्र