‘विपक्ष की भूमिका’ (चौपाल, 4 दिसंबर) की बातों से भला कौन असहमत होगा? लेकिन ऐसी बातें अठारह महीने पहले तब क्यों याद नहीं आर्इं जब यही सब हो रहा था? तब इसी सब कुछ को देशभक्ति और राष्ट्रवाद कह कर खुद को सच्चा लोकतांत्रिक साबित किया जा रहा था? तब ‘परिपक्वता’ का हवाला क्यों नहीं दिया गया? क्या तब का विपक्ष अपरिपक्व, बचकाना था? पूर्व सरकार को ‘अध्यादेशों की सरकार’ कहने वालों ने अपना पहला आदेश ही अध्यादेश के जरिए लागू किया। पहली सरकार का प्रस्ताव कह कर रेल किराए में चौदह प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई। भारत-बांग्लादेश भूमि विधेयक को सुषमा स्वराज ने यह कहते हुए प्रस्तुत किया कि पूरा मसौदा पहले वाली सरकार का, जस का तस है, इसमें विराम चिह्न तक का भी बदलाव नहीं किया गया। इसी विधेयक को इन्हीं सुषमा स्वराज ने देश को बांटने वाला घोषित कर चेतावनी दी थी कि इसे सदन की विषय सूची में शामिल करना भी उन्हें कबूल नहीं होगा। जो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कल तक भारत को आर्थिक दासता की ओर धकेलने वाला निरूपित किया जा रहा था उसी के लिए आज पूरी दुनिया नापी जा रही है। पेट्रोल की कीमतों को लेकर लोगों के साथ किया जा रहा अन्याय तो ‘गुनाह बेलज्जत’ है। ऐसे बीसियों तथ्यात्मक उदाहरण आसानी से सामने आ जाएंगे।

इस सबमें गलत और अनुचित कुछ भी नहीं है। यह सब तब भी राष्ट्रहित में ही था। लेकिन यह सब करने वालों को तब देश का सबसे बड़ा दुश्मन साबित किया जा रहा था और अपनी बात को सही साबित करने के लिए लोकसभा ठप्प की जा रही थी। तब सदन का समय नष्ट नहीं हो रहा था, जनता की गाढ़ी कमाई बरबाद नहीं हो रही थी, लोकसभा पर प्रति मिनट होने वाला खर्च नहीं गिनवाया जा रहा था? तब कांग्रेस सत्ता में थी और भाजपा विपक्ष में। सदन में जगह बदलते ही सुर बदल गए।
आज के विपक्ष को यह मांग भी करनी चाहिए कि अपने पूर्व आचरण के लिए मौजूदा सत्ता पक्ष देश से सार्वजनिक रूप से बिना शर्त क्षमा याचना करे कि उसने राजनीतिक लाभ के लिए, राष्ट्र हित के तमाम कदमों का विरोध किया था। इससे आगे बढ़ कर यह वादा भी करे कि यदि कभी वह विपक्ष में आया तो ऐसा आचरण नहीं करेगा। सुषमा स्वराज ने कहा था कि वे लोग राजनीति में भजन-कीर्तन करने नहीं आए हैं।

क्या दूसरे लोग भजन-कीर्तन करने आए हैं? पैमाने कभी दोहरे नहीं होते! अपनी सुविधा के लिए पैमानों को बदलना ही दोगलापन कहा जाता है। लेकिन यदि आज सत्ता में बैठा कल का विपक्ष अपने सुर बदलता है तो विपक्ष को भी यह सुविधा समान रूप से उपलब्ध रहेगी। यदि आज का सत्ता पक्ष, मौजूदा विपक्ष से सहयोग मांगते हुए अपने पूर्व आचरण को राजनीतिक लाभ के लिए जानबूझ कर किया गया अनावश्यक, असुविधाजनक, अनुचित, आपत्तिजनक आचरण स्वीकार कर इसके लिए देश से क्षमा याचना करे (और ऐसा तब हर बार करे जब वह अपने पूर्व आचरण के प्रतिकूल आचरण करे) और वादा करे कि विपक्ष के रूप में वह भविष्य में ऐसा आचरण नहीं करेगा तो मौजूदा विपक्ष के सामने सरकार का कहा मानने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचेगा।

दिक्कत यह है कि हमारे देश में हर कोई खुद तो राजनीति करना चाहता है लेकिन चाहता है कि सामने वाला भजन-कीर्तन करे, राजनीति नहीं। ‘हम करें तो रासलीला और तुम करो तो चरित्र ढीला’ वाला रवैया कैसे चल सकता है? पैमानों का यह दोहरापन ही हमारा मूल संकट है। (विष्णु बैरागी, पत्रकार कॉलोनी, रतलाम)

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मजहब नहीं सिखाता
आज विश्व में जिस प्रकार आतंकवाद अपने पैर पसार रहा है और अल्लाह-हु-अकबर के नारे लगा कर बेगुनाह लोगों पर जुल्म कर रहा है, उन्हें मार रहा है उसे देखकर लोगों ने आतंकवाद को इस्लाम के साथ जोड़ना शुरू कर दिया है। पर असल में ऐसा है नहीं। आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता और इस्लाम किसी बेगुनाह को मारने की इजाजत नहीं देता। इस्लाम तो यहां तक कहता है कि अगर एक बेगुनाह इंसान का कत्ल होता है तो पूरी इंसानियत का कत्ल होता है। इस्लाम की इस शिक्षा को देखते हुए आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ कर देखना क्या सही है? क्या हम ऐसा करके उन मुसलमानों को ठेस नहीं पहुचा रहे हैं जो आतंकवाद की कड़ी निंदा करते हैं? (अब्दुल्लाह, दिल्ली विश्वविद्यालय)

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स्त्री के साथ
शुद्धीकरण की जरूरत तब होती है जब कोई गंदगी फैल जाए। लेकिन यहां तो हालात उलट हैं। जी हां, बीते दिनों हुए शुद्धीकरण ने सोचने को व्याकुल कर दिया है कि स्त्री को पूजा योग्य बताने वाले हमारे समाज में स्त्री का असल स्थान क्या है? महाराष्ट्र के मंदिर में एक ‘स्त्री’ के शनिदेव पर तेल चढ़ाने पर अच्छा-खासा बवाल हुआ और मंदिर का शुद्धीकरण किया गया। लेकिन क्यों? महज इसलिए कि उस मंदिर में स्त्री के लिए कोई स्थान नहीं है और उसके प्रवेश से मंदिर अपवित्र हो गया। क्या इसी तरह स्त्री सशक्तीकरण की बात होगी? स्त्री सशक्तीकरण तो दूर, उसे भगवान के सामने पूजा करने की भी इजाजत नहीं तो किस बात की समानता और कैसा सशक्तीकरण? क्या इसी तरह स्त्री को मर्दों के बराबर ले जाने की बात हो रही है? (असद शेख, दिल्ली)

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कैसी सहिष्णुता
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख का अयोध्या में राम मंदिर बनाने को ही अशोक सिंघल के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि बताना, महात्मा गांधी के हत्यारे का ‘शहादत’ दिवस मनाया जाना, सरकार के मंत्रियों और नेताओं का बार-बार पाकिस्तान जाने की चेतावनी देना- क्या यह सब सहिष्णुता कहलाएगा? कोई भी सहिष्णु व्यक्ति इन उदाहरणों को सहिष्णुता के दायरे में नहीं मानता होगा। सहिष्णुता का मतलब है एक दूसरे के धर्म के प्रति आदर रखना और कोई ऐसी बात न कहना जिससे किसी के धर्म पर आघात हो। लेकिन कुछ महीनों से ऐसा नहीं हो रहा है। लेखक, कवि, कलाकार, वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी आदि समाज का दर्पण होते हैं। अब समाज का स्वरूप जैसा होगा दर्पण में वैसी ही स्थिति दिखेगी। सरकार को चाहिए सहिष्णुता को आघात पहुंचाने वाली बातें करने वालों को दंडित करे। इससे देश और सरकार का मान बढ़ेगा। (अशोक कुमार, तेघड़ा, बेगूसराय)