निरंतर प्रतिबंधों तथा दमन के कारण लोग रोजी-रोटी कमाने में लाचारी महसूस कर रहे हैं। शंघाई में एक बहुमंजिला इमारत में आग लगने के कारण दस लोगों की मौत हो गई, क्योंकि वे कोरोना प्रतिबंधों के कारण बाहर नहीं जा सकते थे और सरकार ने आवश्यक बचाव प्रबंध नहीं किए।
इस वजह से लोगों में रोष की लहर फैल गई और सरकारी नीतियों और दमन के खिलाफ चीन के कम से कम तेरह शहरों में रोष प्रदर्शन हो रहे हैं और इनके और भी ज्यादा उग्रता से और शहरों मे फैलने की उम्मीद है। सरकार प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज, मिर्च स्प्रे तथा गिरफ्तारी आदि तरीके इस्तेमाल करके उन्हें खामोश करने की कोशिश कर रही है।
नवयुवक प्रदर्शनकारी चीन के राष्ट्रपति, शी जिनपिंग की तीसरी पारी और कम्युनिस्ट पार्टी का विरोध कर रहे हैं और तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाते हुए स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं। चीन के हालात को देखते हुए सरकार एक सीमा से ज्यादा कठोर कार्रवाई नहीं कर सकती। एक तो चीन का सकल घरेलू उत्पाद पहले ही कम हो रहा है और इन प्रदर्शनों के कारण काम-धंधे पर बुरा प्रभाव पड़ने से अर्थव्यवस्था की बदहाली और बढ़ जाएगी।
पुलिस विदेशी मीडिया कर्मियों को इन प्रदर्शनों की खबरें प्रसारित करने के लिए गिरफ्तार कर रही है और उनके साथ मारपीट करने के बाद उन्हें छोड़ रही है। इतना ही नहीं, चीन के बाहर इंग्लैंड, अमेरिका, आयरलैंड, कनाडा आदि देशों में चीनी नवयुवक सरकार के दमनकारी तथा स्वतंत्रता विरोधी कदमों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। चीन के लोगों ने 1949 के बाद चाऊ माऊ से लेकर शी जिनपिंग तक चीनी तानाशाहों के हाथों बहुत जुल्म सहे हैं। अब वे स्वतंत्रता की खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं। जिस तरह चीन के हालात बिगड़ रहे हैं, वहां पर गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा हो सकती है। इन प्रदर्शनों को रोकने के लिए सरकार क्या नीति अपनाती है, यह अभी देखना बाकी है!
शाम लाल कौशल, रोहतक, हरियाणा
सपने और हकीकत
थोड़े-थोड़े दिनों के अंतराल के बाद इस तरह की खबरें सुनने को मिलती रहती हैं कि पिता ने अपने किसी बच्चे को मोबाइल नहीं दिलवाया तो उसने आत्महत्या कर ली, बेटे को बाइक नहीं मिली तो वह कहीं लूटपाट करता हुआ पकड़ा गया। कहीं खबरें सुनने में आती हैं कि नशे के आदि युवक ने मां से मादक पदार्थों के लिए पैसा मांगा और पैसा न मिलने पर मां-बाप, बहन, दादी की बेरहमी से हत्या कर दी। कहीं सुनने में आता है कि प्रेमी ने प्रेमिका के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। जबकि प्यार देने का नाम है, त्याग का नाम है, फिर कोई प्रेमी इतना वहशी कैसे हो जाता है?
एक तरफ हम विश्व गुरु बनने के सपने देखते हैं और दूसरी तरफ ऐसी दिल को दहला देने वाली घटनाएं अक्सर सामने आती हैं। आखिर क्या होता जा रहा है हमारी युवा पीढ़ी को? भारतीय संस्कृति में तो धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो… इस तरह की कामना की जाती है। तो क्या हमसे ही कहीं कोई चूक हो रही है? क्या हम अपने युवाओं को सही संस्कार नहीं दे पा रहे? क्या बच्चों की परवरिश में कोई गलती हो रही है?
अगर कोई बच्चा गलत संगत में जा रहा है तो मां-बाप को पता न चले, ऐसा हो नहीं सकता। फिर हम उन्हें उस तबाही के रास्ते पर जाने से रोक क्यों नहीं पा रहे? अगर आज इस तरह की घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है तो इसके लिए कहीं न कहीं परिवार नाम की संस्था ही कसूरवार है। बच्चे कहां जाते हैं, किसके साथ रहते हैं, क्या करते हैं, इन बातों पर ध्यान देना होगा। बच्चों को समय देना होगा। अन्यथा इस तरह की घटनाएं सुनने में आती रहेंगी। कोई भी भगवान या अल्लाह हमारी इन समस्याओं को हल नहीं कर सकता! यह काम हमें स्वयं ही करना होगा।
राजनीतिक दलों को भी समझना होगा कि चुनाव जीतना और सरकारें बनाना ही काफी नहीं है। एक अच्छा, सुंदर, स्वस्थ समाज बनाना भी उनकी जिम्मेदारी है। यह नहीं चलेगा कि एक तरफ हम विश्व गुरु बनने के दावे करें और दूसरी तरफ हमारी युवा पीढ़ी नशे की आदि हो जाए। एक तरफ हम अपने दफ्तरों में गांधीजी की तस्वीर लगाएं और दूसरी तरफ शराब की बिक्री को प्रोत्साहित करें। अगर इन समस्याओं को अभी गंभीरता से नहीं लिया गया तो भारत का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। हमें खुद ही इनका हल निकालना होगा। ईश्वर सलीब से उतरकर हमारे घावों पर मरहम लगाने नहीं आएगा।
चरनजीत अरोड़ा, नरेला, दिल्ली</p>
दमन का हासिल
‘प्रदर्शन के मायने’ (संपादकीय, 30 नवंबर) पढ़ा। दरअसल कोरोना शून्य नीति के तहत लागू पूर्णबंदी का असर कितना भयानक हो सकता है, यह वहां के मौजूदा हालात को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसे समय में आपदा की घड़ी में सरकार की लचीली नीतियों का क्या महत्त्व होता है, यह नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन द्वारा अकाल, भुखमरी जैसी आपदा में लोकतांत्रिक सरकारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका के संबंध में व्यक्त उनके विचारों से स्पष्ट है।
दरअसल समावेशी विकास का आधार अधिकतम जन-संतुष्टि है। यह उसी शासन व्यवस्था में संभव है, जिसमें उदारता और लोकतांत्रिक मूल्य निहित हो। ऐसी सरकारों की नीतियां जन हितैषी ही होंगी। इस बात की गारंटी है। मगर चीनी शासकों ने महामारी से निपटने के लिए वे उपाय कम किए, जो दुनिया के अन्य हिस्सों में किए गए, जिसका परिणाम सामने है।
दरअसल, जब चीन आक्रामक नीतियों को अमल में ला रहा था, तब तमाम संसाधन उसमें झोंकने पर ध्यान केंद्रित किया गया। उसका असर अब दिखाई पड़ रहा है। लिहाजा इन परिस्थितियों से दुनिया के उन देशों को सबक लेना चाहिए, जो युद्धरत हैं या हमेशा अपने पड़ोसी मुल्कों के प्रति आक्रामक नीतियां अख्तियार किए रहते हैं।
मुकेश कुमार मनन, पटना</p>