हिंदी में वैज्ञानिक भाषा समाहित है। अंग्रेजी भाषा में यह खूबी देखने को नहीं मिलती। इसमें शब्दों के उच्चारण सिर के अंगों से निकलते हैं। जैसे कंठ से निकलने वाले शब्द, तालू, जीभ, जीभ तालू से लगती, जीभ के मूर्धा, जीभ के दांतों से लगने पर, होठों के मिलने पर निकलने वाले शब्द। अ, आ आदि शब्दावली से निकलने वाले शब्द इसी प्रक्रिया से बन कर निकलते हैं। इन सब कारणों से भी हमें अपनी भाषा पर गर्व है। लेकिन वर्तमान में शुद्ध हिंदी खोने लगी है जो चिंतनीय पहलू है।
हिंदी के सरलीकरण के लिए अंग्रेजी और अन्य भाषाओं की घुसपैठ हिंदी भाषा को धीरे-धीरे कमजोर बना कर उसे गुमनामी के अंधेरों में ले जाकर छोड़ देगी और हम हिंदी दिवस का राग अलापते हुए हिंदी की दुर्दशा पर हम आंसू बहाते नजर आएंगे। सवाल यह भी उठता है कि क्या हिंदी शब्दकोश खत्म हो गए! वर्तमान मे हिंदी बोलने, लिखने में अंग्रेजी और अन्य भाषाओं की मिलावट होने से उसे अब अलग करने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। हिंदी के लिए अभियान चलाने वालों से इसे अलग करना दुष्कर कार्य होगा।
शुद्ध हिंदी बोलने और लिखने की आदत सभी को डालनी होगी, तभी आने वाले दिनों में हिंदी दिवस जैसे आयोजनों की सार्थकता सही होगी। वर्तमान में अंग्रेजी शब्दों को हिंदी में से निकालना भी एक कठिन कार्य है। सुधार का पक्ष देखें तो हिंदी में व्याकरण और वर्तनी का भी बुरा हाल है। भाग-दौड़ की दुनिया में शायद बहुत कम लोग ही होंगे जो इस ओर ध्यान देते होंगे। बच्चों को अपनी सृजनात्मकता, मौलिक चिंतन को विषय के अंतर्गत हिंदी व्याकरण और वर्तनी में सुधार की ओर ध्यान देना होगा, ताकि निर्मित शब्दों का हिंदी में परिभाषित शब्द सही तरीके से व्यक्त कर सकें और लिख-पढ़ सकें। जब वातावरण में हिंदी का समावेश करेंगे तो अपने आप हिंदी भाषा से प्रेम होने लगेगा।
’संजय वर्मा ‘दृष्टि’, धार, मप्र
विकृत प्रदर्शन
कोरोना की वजह से पूरे विश्व में जिंदगी जीने का तरीका बदल गया। पहले स्कूल, बाजार, रेस्टोरेंट, सिनेमा हॉल आदि लोगों से गुलजार रहते थे। कोरोना ने ऐसी दहशत फैलाई कि सब कुछ बंद हो गया। जहां हर समय जिंदगी दिखाई देती थी, एकाएक सब जगह खामोशी छा गई। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। पूरी दुनिया घरों में कैद हो गई। सब कुछ सामान्य हो, इसके प्रयास किए जाने लगे, विकल्प खोजे जाने लगे। सिनेमा हॉल बंद हो ग?ए तो ऐसी वेब सीरीज बनाने लगी, जिन्हें हम आसानी से अपने मोबाइल पर या लैपटॉप पर घर बैठे देख सकें। इसी दौरान कुछ वेब सीरीज देखने का मौका मिला।
ये सीरीज देख कर मैंने खुद से यह सवाल किया कि इन्हें बनाने वाले समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं। क्या पैसा कमाना ही इनका मुख्य लक्ष्य है? क्या समाज के प्रति इनकी कोई जिम्मेदारी नहीं? कई सीरीज में बहुत ही अश्लीलता, गाली-गलौज, खून-खराबा, अवैध संबंध और बेहद गंदी भाषा का प्रयोग किया गया है। शुरू में लिखा रहता है कि ये सीरीज केवल व्यस्कों के लिए है। लेकिन क्या वास्तव में सिर्फ व्यस्क ही इनको देखते हैं? इतने खराब सीरियल वयस्कों को भी क्यों दिखाए जाएं? लोगों को तो खुद ही इन्हें देखना बंद कर देना चाहिए। सेंसर बोर्ड इनको कैसे पास कर देता है? आखिर ऐसे सीरीज बनाने वाले और इनको पास करने वाले समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं? इन सबसे कैसी दुनिया बन रही है या बनने वाली है?
’चरनजीत अरोड़ा, नरेला, दिल्ली</p>