जम्मू-कश्मीर सदियों से भौगोलिक और सांस्कृतिक दृष्टि से शेष भारत से अलग रहा है। उसकी भौगोलिक स्थिति का दक्षिण एशिया ही नहीं, बल्कि संपूर्ण एशिया के लिए सामरिक महत्त्व है। भारत जब आजाद हुआ, पांच सौ तिरसठ रियासतों के एकीकरण में काफी मशक्कत इसलिए करनी पड़ी कि सबकी अपनी स्थानीयता थी। उसमें जम्मू-कश्मीर तो सबसे अलग था। आज वहां प्रवासियों को निशाना बनाया जा रहा है। वह इसलिए कि जब अनुच्छेद 370 हटाया गया, तब कश्मीर से ज्यादा उत्तर भारतीय राज्यों में इसे विशेष उपलब्धि के तौर पर प्रचारित किया गया। केंद्र का यह दांव आज उल्टा पड़ रहा है, जबकि सबसे ज्यादा जरूरत थी।
आतंकवादी आजकल आसान लक्ष्य का चुनाव कर रहे हैं, क्योंकि प्रवासी जहां रहते हैं, वहां सुरक्षा के मुकम्मल इंतजाम नहीं होते। दूसरी अहम बात है कि उत्तर भारतीयों को जो संदेश केंद्र ने दिया अनुच्छेद 370 हटाने के बाद, उसका माकूल जवाब वे इन प्रवासियों को मार कर दे रहे हैं। लिहाजा, इन सिलसिलेवार घटनाओं की 1990 से तुलना करना इसे हल्के में लेना होगा या इस घटना की सरलीकृत व्याख्या करना होगा। यहीं पर मौजूदा सत्ताधारियों से इसे परखने में गलती हुई।
सबसे बड़ी बात है कि अन्य राज्यों की तरह जम्मू-कश्मीर में भी बेरोजगारी चरम पर है। लिहाजा, इस राज्य को सामरिक दृष्टि से तभी मजबूती मिलेगी, जब इसकी अंदरूनी समस्याओं के मुकम्मल समाधान होंगे। दिक्कत है कि प्रत्येक राज्य की अपनी स्थानीयता को दरकिनार कर मौजूदा राजनीति राष्ट्रीय मुद्दों का विधानसभा चुनावों में घालमेल करने की कोशिश करती है। इस प्रवृत्ति का खमियाजा भाजपा को पश्चिम बंगाल चुनाव में भुगतना भी पड़ा। तमाम जोर आजमाइश के बाद पार्टी को अच्छी कामयाबी मिली जरूर, मगर वह सत्ता से दूर ही रही। ऐसे में कश्मीर की कड़ी में नए अध्याय जोड़ कर मौजूदा समस्याओं के हल ढूंढ़ने होंगे।
’मुकेश कुमार मनन, पटना</p>