भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की संकल्पना की गई है, सैद्धांतिक तौर पर इन विचारों पर निजीकरण की प्रक्रिया से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वर्तमान में भारत सरकार और उसका सरकारी तंत्र अपनी उपयोगिता, क्षमता और अपनी मूल संरचना और उद्देश्य से परे निजीकरण पर जोर दे रहा है, जो भारत की सामाजिक आर्थिक न्याय की संकल्पना से दूर है। हालांकि निजीकरण में अपनी सहमति रखने वाले विशेषज्ञ व अर्थशास्त्री बताते हैं कि ‘व्यापार राज्य का व्यवसाय नहीं है’। इसलिए व्यापार या अर्थव्यवस्था में सरकार का अत्यंत सीमित हस्तक्षेप होना चाहिए और गैर-महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में लगी सार्वजनिक संसाधनों की बड़ी धनराशि को समाज की प्राथमिकता में सर्वोपरि क्षेत्रों में लगाना चाहिए। मसलन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, प्राथमिक शिक्षा तथा सामाजिक और आवश्यक आधारभूत संरचना।
वर्तमान में भारत सरकार के द्वारा नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन की शुरुआत की गई है, जिसमें सरकार छह लाख करोड़ रुपए की राष्ट्रीय मौद्रिकरण योजना लाई है। इसके तहत यात्री ट्रेन, रेलवे स्टेशन से लेकर हवाई अड्डे, सड़कें और स्टेडियम तक का मौद्रिकरण शामिल हैं। अनुमानित 1.2 लाख करोड़ रुपए के मौद्रिकरण परियोजना में चार सौ रेलवे स्टेशनों, नब्बे यात्री ट्रेनों, सात सौ इकतालीस किलोमीटर लंबे कोंकण रेलवे और पंद्रह रेलवे स्टेडियमों और कॉलोनियों का मौद्रिकरण करने की योजना है। बताया गया है कि निजी भागीदारी के जरिए इनका विकास किया जाएगा।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि सरकार जिन परिसंपत्तियों को बेचा जाएगा, उसका मालिकाना हक सरकार के पास ही रहेगा और निजी क्षेत्र के साझेदार को तय समय के बाद अनिवार्य रूप से वापस करना होगा। लेकिन भारत जैसे विशाल जनसमूह वाले देश मे जहां आजादी के पचहत्तर साल बाद भी आय व संपत्ति के वितरण में भारी विषमता, उच्च स्तर में गरीबी और बेरोजगारी है, गुणात्मक व मात्रात्मक शिक्षा पाना अधिक मुश्किल है, साथ ही खेलकूद में भी संसाधनों और उचित संरक्षण और संपोषण का अभाव है, उस वातावरण में निजीकरण को बढ़ावा देना कहीं न कहीं प्रतिकूल परिणाम को आमंत्रित करने जैसा है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की संकल्पना की गई है। सैद्धांतिक रूप से इन विचारों पर निजीकरण का मतभेद रहा है। मालूम हो कि ज्यादातर निजी कंपनियां कम अवधि में लाभ कमाने पर बल देंगी, जिसके कारण दीर्घ अवधि वाले निवेश की अनदेखी हो सकती है। साथ ही धन संकेंद्रण और व्यापारिक एकाधिकार की वजह से बाजार में स्वस्थ प्रतियोगिता का अभाव हो सकता है। सरकार का निजीकरण के प्रति झुकाव से भारत की आबादी के ज्यादातर हिस्से को शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, नौकरी के लिए उच्च कीमत चुकानी पड़ सकती है, जिससे आय और संपत्ति के वितरण की असमानता में उच्च स्तर की वृद्धि होगी। बहुत सारे लोग दायरे से बाहर भी हो जाएंगे।
अभी वर्तमान कोविड काल में पूरे देश ने निजी संस्थानों का कार्य और कार्यप्रणाली देखा और महसूस किया, जो भारतीय लोकतांत्रिक और सामाजिक सोच से परे था। इसलिए आवश्यक है कि सरकार के द्वारा एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया जाए और सभी पहलुओं को ध्यान में रख कर आगे बढ़ा जाए। सरकार को अपने तंत्र को मजबूत करके सरकारी स्वामित्व वाले क्षेत्रों को सुदृढ़ करने पर जोर देना चाहिए, ताकि आर्थिक और सामाजिक न्याय को संरक्षित किया जा सके।
’संत जी, बेगूसराय, बिहार</p>
विज्ञान ज्ञान
आज के समय में हमारे जीवन में सर्वाधिक महत्त्व विज्ञान का है। टीवी, एसी, फ्रिज, मोटर साइकिल सब विज्ञान की देन है। पिछले कुछ समय में विज्ञान ने काफी तरक्की की है, लेकिन एक ओर जहां विज्ञान बढ़ा है, दूसरी ओर उसका कैसे कब और कहां इस्तेमाल किया जाना चाहिए, इस बात का ज्ञान हमने लिया ही नहीं। विज्ञान का इस्तेमाल किया जाना चाहिए इंसान की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए, न कि पर्यावरण को दूषित करने के लिए। हम एक कमरे को ठंडा करने के लिए एसी का इस्तेमाल कर पूरे पर्यावरण को दूषित करते हैं। छोटी-छोटी दूरियों को भी मोटरसाइकिलों या मोटरगाड़ियों से नापते हैं और प्रदूषण बढ़ाते हैं। एक तरफ हम अपनी लापरवाही से पर्यावरण को दूषित करते हैं और दूसरी तरफ उसे बचाने और साफ करने के लिए नए नए शोध करते हैं। बढ़ता विज्ञान अच्छी बात है, लेकिन इस घटते ज्ञान को बढ़ाने की जरूरत है।
’मानू प्रताप मीना, लखनऊ, उप्र