राहुल गांधी का राजग सरकार पर आरोप है कि वह विभिन्न तरह के आंकड़ों की पहरेदारी कर अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश कर रही है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा में उन्होंने उत्पादन से लेकर उपभोग के आंकड़ों पर तवज्जो दी। उन्होंने कांग्रेस काल को भी कठघरे में लिया जब रोजगार सृजन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। नब्बे के दशक में मुक्त अर्थव्यवस्था और घटती सामाजिक सुरक्षा की नीति की शुरुआत आज इस हालत में पहुंची है कि सालाना बारह लाख कमाई करने वाला व्यक्ति भी बाजार का मजबूत उपभोक्ता नहीं रहा। बजट सत्र में राहुल गांधी ने आर्थिक आख्यानों के साथ जिस तरह से राजग सरकार को घेरा उसके बाद उन पर सत्ता पक्ष का चौतरफा हमला भी शुरू हो गया। मुश्किल यह है कि राहुल गांधी बोलें किसी भी विषय पर लेकिन सत्ता पक्ष के द्वारा उन पर निजी हमला शुरू कर दिया जाता है। सत्ता पक्ष राहुल को राजनीति में बेकार साबित करने के लिए ऐसे हथकंडे अपनाता है जैसे भारतीय राजनीति में उसके लिए सबसे बड़ा डर राहुल गांधी ही हैं। राहुल से सत्ता के इस डर पर बेबाक बोल

वैकल्पिक विचार कैसा होना चाहिए? बजट पर राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान राहुल गांधी का यह सवाल भी था और उन्होंने अपने तरीके से इसका जवाब दिया। अगर आप संसद में जनता के प्रतिनिधि के रूप में बोल रहे हैं, खास कर नेता प्रतिपक्ष के रूप में तो आपके भाषण का आकलन किस आधार पर होगा? जाहिर सी बात है, इस आधार पर कि जिसकी तरफ से बोल रहे हैं क्या वह पक्ष आपकी भाषा ग्रहण कर रहा है? फैसलानुकूल होकर हम भी नहीं बोल सकते हैं कि आम जनता राहुल गांधी की बातों से प्रभावित हुई है या नहीं। पर राहुल गांधी अभी उन चुनिंदा नेताओं में दिखते हैं जो खुद को लगातार सुधारने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं। जो अपनी बात पर रुक कर कहते हैं कि आपको बुरा लगा, मैं माफी मांगता हूं।

‘वंश’ को सबसे बड़ा वरदान मानने वाले भारतीय जनमानस के बीच राहुल गांधी की जो वंशवादी छवि स्थापित कर दी गई है यह उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी बाधा बन चुकी है। वंशवादी चेहरों की भीड़ में सिर्फ उनके चेहरे को वंश के आधार पर अस्वीकार्य करने की सियासी सिफारिश मुखर रही है। मुश्किल है कि यह छवि उस जनता के बीच बनी है जिसे अपना पक्ष व विपक्ष चुनना है।
भारतीय जनमानस एक ऐसे ‘पुनर्जागरण’ की अवस्था से गुजर रहा है जहां उसे आस-पास की सारी राजनीति व परिस्थिति से निरपेक्ष होकर सुला दिया गया है। जनता की ऐसी स्थिति के जिम्मेदार पक्ष, विपक्ष से लेकर सभी मुख्यधारा के दल हैं। इनके पास अर्थव्यवस्था में उत्पादन बढ़ाने की कोई रणनीति नहीं है, दूसरी तरफ विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या की ओर बढ़ रहे देश के उपभोग पर पूरी दुनिया मुनाफे भरी नजर रखी हुई है।

राहुल गांधी ने संसद में डाटा को लेकर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि हमारे पास न उत्पादन का डाटा है और न उपभोग का। हमारा डाटा चीन के पास है। आज जब हर राजनीतिक-आर्थिक तर्क-वितर्क डोनाल्ड ट्रंप की खुद की खड़ी की गई आभासी ‘शक्तिमान’ जैसी शक्ति पर सिमटे हैं राहुल गांधी बार-बार आगाह कर रहे हैं कि चीन के सामने हम कैसे ‘गंगाधर’ बने हुए हैं।

हालांकि राहुल गांधी चीन पर वही घुसपैठ और दुश्मन देश वाला लोकलुभावन सुर उठाने का मोह नहीं छोड़ सके जो नीतिगत संवेदनशील मामला है। यह आम जनता के गम-ए-रोजगार की दवा भी नहीं है। किसी भी देश का उत्पादन व उपभोग उसके पड़ोसी देश पर भी निर्भर करता है। भारत पड़ोसी देशों के बीच अकेले द्वीप पर नहीं बैठ सकता। हम पड़ोसी नहीं बदल सकते हैं। चीन के साथ साझेदारी से भारत बहुत तरह के उत्पादनों में बेहतर स्थिति में आ सकता है।

राहुल गांधी ने उत्पादन व उपभोग के आंकड़ों की बात की। चीन ने इसके साथ तीसरे अहम आंकड़े पर भी काम किया, वह है वितरण। उत्पादन के साधनों पर कुछ ही लोगों का नियंत्रण न रहे कि कुछ ही लोगों के पास देश की ज्यादातर संपत्ति सिमटती जाए जिसकी शुरुआत नब्बे के दशक में कांग्रेस की मुक्त अर्थव्यवस्था की नीति के साथ हुई थी। आज सालाना 12 लाख की कमाई तक के लोगों को करमुक्त कर देने की नौबत आ पड़ी क्योंकि मध्य-वर्ग की क्रय शक्ति बहुत कमजोर हो गई। संसाधन कुछ लोगों तक सिमटेगा तो उपभोक्ता पूरी जनता कैसे होगी?

आज जब ट्रंप को मेक्सिको से लेकर कोलंबिया तक करारा जवाब दे रहे हैं उस वक्त चीन के ‘डीपसीक’ ने कृत्रिम बौद्धिकता पर आधारित अमेरिका के बाजार में हड़कंप मचा दिया। चीन कृत्रिम बौद्धिकता में अमेरिका को मात देने की हालत में है और हम कहां हैं? जरा याद करें, भारत में कुछ साल पहले भूतपूर्व ट्विटर (वर्तमान में एक्स) का विरोध क्यों हुआ था? हमारी राष्ट्रवादी सरकार ने बताया कि यह हमारे राष्ट्रवाद के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इसके साथ ही राष्ट्रवादी गाजे-बाजे के साथ ‘कू’ नाम का स्वदेशी सोशल मीडिया मंच आया। सरकार के मंत्रियों ने ‘कू’ पर खाता खोला। उस वक्त ऐसा माहौल बनाया गया कि जिसने ‘कू’ पर खाता नहीं खोला वह देशद्रोही की कतार में ही खड़ा पाया जाएगा। नीली चिड़िया की मुखालफत में पीली चिड़िया के रूप में आया ‘कू’ 2020 में दस भारतीय भाषाओं में शुरू हुआ था।

सत्ता पक्ष के नेताओं और समर्थक अभिनेता थोड़े दिन ‘कू-कू’ कर यह देखना भी भूल गए कि 2024 तक यह बंदी के कगार पर पहुंच गया। ‘कू’ पर राष्ट्रवाद की रस्म-अदायगी के बाद भारतीय नेताओं व अभिनेताओं को पहचान के बाजार में बने रहने के लिए एक्स (भूतपूर्व ट्विटर) का ही सहारा लेना पड़ा। इन्हें इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं थी कि ‘एक्स’ और ‘मेटा’ आखिकार उन्हीं देशों के हितों का झंडा उठाएंगे जहां इनका मूल कारोबार है। जिन शक्तियों ने ट्विटर के खिलाफ ‘कू’ का मोर्चा संभाला था क्या उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं थी इस मंच को बचाने की? आपकी राष्ट्रवादी सरकार आज भी उस अमेरिकी मंच से चल रही है, जिसके खिलाफ ट्रंप ‘ट्रुथसोशल’ को लेकर आए।

जब ट्रंप अपने मतदाताओं को खुश करने के लिए अवैध प्रवासियों को बेड़ियों में जकड़ कर उन्हें स्वदेश भेज रहे हैं उस वक्त अमेरिकी बाजार की सबसे बड़ी चिंता ‘डीपसीक’ बना हुआ है। ट्रंप मेक्सिको की खाड़ी का नाम बदलने का एलान कर चुके हैं लेकिन अमेरिकी बाजार समझ चुका है कि इससे वोट जुटा कर सरकार तो बना सकते हैं लेकिन ‘फिर से महान’ बनना मुश्किल है। नाम बदलना, प्रवासियों को अमानवीय स्थिति में अपमानित करने जैसे कदमों के बाद ट्रंप को अपने उसी बाजार में लौटना होगा जो चीन से डरा हुआ है। अमेरिकी चुनाव में ट्रंप की जीत के जैसे चमकदार आंकड़े हैं क्या अमेरिकी बाजार का भी वैसा ही आंकड़ा होगा? फिलहाल तो अमेरिकी बाजार चीन के डीपसीक के आंकड़ों में उलझा है।

राहुल गांधी ने संसद में अपने भाषण में उत्पादन और उपभोग को डाटा से जोड़ा है। अर्थशास्त्र की एक खास शाखा के हिसाब से यह सही है। राजग सरकार रोजगार, अर्थव्यवस्था से लेकर कई आंकड़ों पर नियंत्रण रख एक गुलाबी तस्वीर पेश करने की कोशिश करती रही है।
विपक्ष की जमीन पर खड़े नेता को यह भी समझ लेना चाहिए कि बाजार ने डाटा को एक अधिभारित शब्द भी बना दिया है। इसके लिए पत्रकारिता से बेहतर और कोई उदाहरण नहीं हो सकता। जब सत्ता के समक्ष जमीनी रपट करने वाली निर्भीक पत्रकारिता मारी जा रही थी तब इसकी साख बचाने के लिए ‘डाटा पत्रकारों’ का उदय हुआ। इनका काम सिर्फ डाटा देना है। उस डाटा का इस्तेमाल जो और जैसा करे। फिर यह डाटा चुनाव प्रक्रिया, चुनाव पूर्व सर्वेक्षण जैसी चीजों में गया और पूरा भारतीय चुनावी विश्लेषण इस बात पर सिमट गया कि किस जाति के कितने फीसद लोगों ने किसे कितना वोट दिया, किस सीट पर कितने फीसद मुसलमानों ने किसे वोट दिया। टूटी सड़क, टूटे स्कूल, भूखे लोग इस डाटा विश्लेषण से बाहर हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी कमजोरी बेरोजगारी है। बेरोजगारी के मुद्दे पर राहुल गांधी ने यूपीए शासन को भी कठघरे में रखा। वे इसे लेकर सतत सवालरत रहे हैं। पांच किलो मुफ्त राशन वाली जनता के लिए कृत्रिम बौद्धिकता की तब जरूरत पड़ेगी जब उसकी कुदरती जरूरतें सम्मान व रोजगार के साथ पूरी हों।

राहुल गांधी रोजगार की भाषा पर मेहनत करते रहें और जनता से संवाद करें। राहुल के सवालों का जवाब देने के बजाय उन पर हुए निजी हमलों को देख कर लगता है कि सत्ता के लिए बिगड़ती अर्थव्यवस्था से बड़ी समस्या सवाल पूछते राहुल हो जाते हैं। राहुल के खिलाफ जितनी बड़ी जवाबी फौज खड़ी कर दी जाती है उसे देख कर सत्ता से सवाल बनता है, क्या राहुल से डर लगता है!