‘कोई हंगामा सर-ए-बज्म उठाया जाए
कुछ किया जाए चरागों को बुझाया जाए’
संसद का शीतकालीन सत्र दो कारोबारियों के नाम है। विपक्ष जिस भारतीय कारोबारी के खिलाफ सवाल उठा रहा है सत्ता पक्ष उसे सदन के समय की बर्बादी मानता है। जिस सत्ता पक्ष पर सदन चलाने की जिम्मेदारी है वह पलटवार में अमेरिकी कारोबारी को ले आया है। मानो उस अमेरिकी कारोबारी के नाम पर संसद में हंगामे से जनता के कर का पैसा चक्रवृद्धि ब्याज की दर से बढ़ेगा। लोकतंत्र का यह आदर्श नहीं है कि जीत-हार के बाद आप अपने तरीके से अलोकतांत्रिक हो जाएं। जनता सत्ता को चलाने के लिए अगर व्यक्ति को बदल देती है तो राजनीतिक दल उसे व्यक्तिगत तौर पर देखने लगे हैं। विपक्ष को लोकतांत्रिक सदन के समीकरण में जगह मिली है तो इसका मतलब है कि वह भी लोकतंत्र का हासिल है न कि खारिज। लोकतंत्र के संस्थागत तकाजे के व्यक्तिगत बन जाने पर शीत-सत्र के शोर में जिम्मेदारी को लेकर पसरी खामोशी पर बेबाक बोल

त्ता के संदर्भ में लोकतंत्र वह व्यवस्था है जहां जीत का रंग न तो कोई क्रांतिकारी लाल दिखता है और न हारनेवाला इतिहास की कचरापेटी का हिस्सा। जहां न लाल का रूमान हो और न किसी को स्याह में फेंकने का गुमान उसे ही लोकतंत्र कहते हैं। लोकतंत्र में जीत का रंग धूसर होता है। न काला और न सफेद। आप अगर जीत गए हैं तो एक पायदान ऊपर जरूर हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि सीढ़ी पर किसी और की जगह नहीं है।

भारत ही नहीं दुनिया भर के लोकतंत्र में ऐसी प्रवृत्ति दिखती जा रही है कि सत्ता में आए लोग भूल जाते हैं कि वे किस विधि से चुन कर आए हैं। लोकतांत्रिक सदन का पारंपरिक नक्शा वृत्ताकार की ओर जाता बना रहता है। अगर देश और समाज में विपक्ष शब्द बचा हुआ है तो इसका मतलब वहां लोकतंत्र भी बचा हुआ है।

इन आदर्श वाक्यों के इतर किसी भी राजनीतिक समाज की हकीकत में सबसे खूबसूरत चीज जीत है। हिमाचल, कर्नाटक और लोकसभा में पुनर्जीवन जैसी जीत के बाद विपक्ष के जिन बुजुर्गवार ने राहुल गांधी को विपक्ष की बाराती का दूल्हा बनाया था आज वो इंडिया गठबंधन में विपक्ष की नेता के तौर पर ममता बनर्जी की तरफदारी कर रहे हैं। अन्य विपक्षी नेता भी ममता बनर्जी के नाम से सहमत हैं। यह सब इसलिए कि फिलहाल राहुल गांधी के हिस्से हर तरफ हार है। ममता बनर्जी के हिस्से विपक्ष की आन-बान-शान देने की होड़ सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्होंने अपना राज्य महफूज रखने में कामयाबी हासिल की है। यह दूसरी बात है कि अन्य राज्यों में तृणमूल कांग्रेस का राजनीतिक अस्तित्व नहीं है।

लोकतंत्र में हार को ऐसे लेने का रिवाज नहीं रहा है कि आप सीधे अलोकतांत्रिक हो जाएं। छह दिसंबर को जब आम जनता पिछला बहुत कुछ भूल चुकी है तब कथित विनम्र उद्धव ठाकरे गुट बाबरी मस्जिद गिराने वालों पर गर्व करने लगता है। विधानसभा चुनाव में बुरी हार के बाद उद्धव गुट शायद मान बैठा होगा कि ‘गिराने’ वाली भाषा ही सत्ता दिलाती है। फिलहाल संसद के शीत सत्र में जनता की भूख, बेरोजगारी, टूटते पुल, अस्पताल की नर्सरी में जलते बच्चों, जलते मणिपुर की जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं दिख रहा। संसद के सत्र में या तो जीत है या हार है।

संसद में कोई लोकतांत्रिक तकाजा गुमशुदा है तो वह है जिम्मेदारी। विपक्ष ने संसद में एक कारोबारी समूह से लेकर मणिपुर तक पर आरोप लगाया। विपक्ष का काम है सरकार के कामकाज पर नजर रख कमियों पर आरोप लगाना। लेकिन अब तक सत्ता पक्ष से यही तवक्को थी कि वह संसद को आरोपों की कबड्डी का मैदान नहीं बनने देगा। उसके पास जैसे को तैसा का अलोकतांत्रिक विकल्प नहीं है क्योंकि उसके पास सरकार चलाने की लोकतांत्रिक जिम्मेदारी है। वह संविधान के द्वारा आरोप को जिम्मेदारी की जमीन पर खड़ा करने के लिए तारांकित है।
सरकार का काम महज आरोप लगाना नहीं होता है। उसका काम सबूत पेश कर मामले को न्यायसंगत मोड़ पर ले जाना होता है। सरकार आरोप लगा कर चुप नहीं बैठ सकती है।

एक थानेदार सड़क पर आकर हल्ला नहीं कर सकता है कि फलां गुट के लोगों ने उसके थाना क्षेत्र में अपराध बढ़ा दिया है। उसका काम अपराध पर नियंत्रण करना है फिर अपराध जिसकी तरफ से भी हो। उस थानेदार को कोई वीरता पुरस्कार इसलिए नहीं मिलेगा कि उसने आरोपों की झड़ी लगा दी देखो यह चोर है, ये लुटेरे हैं। या अपने थाना क्षेत्र की किसी समस्या पर वह सुदूर के किसी थाने के अपराधी का नाम लेकर कहे उसके गुर्गे यह कर जाते हैं। उसकी बहादुरी इसमें है कि आरोपी पक्ष को अदालती जांच के लिए सुपुर्द कर दे।
हिंदुस्तान में सत्ता पक्ष को आपत्ति है कि विपक्ष एक उद्योगपित के पीछे पड़ गया है। वह इसे सदन के समय की बर्बादी मानता है। कारोबारी के खिलाफ हवाई आरोप लगाने की बात कहता है।

वहीं विपक्ष के हर हमले के जवाब में सत्ता पक्ष के पक्षकार एक अमेरिकी उद्योगपति का नाम उठा कर ले आते हैं। हालत यह हो गई है कि आप सड़क पर भी किसी से बहस करें और आपका लहजा सरकार से सवालतलब होता दिखता है तभी आपको सड़क पर खड़े-खड़े उस अमेरिकी उद्योगपति का एजंट करार दिया जाएगा। आपके हाथों में पकड़ा हुआ एक किलो टमाटर का थैला भी उसी की ‘फंडिंग’ का नतीजा होगा।

सड़क जैसा हाल संसद में है। सत्ता पक्ष के सांसद एक विदेशी कारोबारी के खिलाफ ऐसा आरोप लगा जाते हैं जिससे दोनों देशों के दूतावासों में भी हचलच मच जाती है। लेकिन इन हलचलों को सामान्य इसलिए मान लिया जाने लगा है कि शायद जनता तक उन मुद्दों की हलचल न पहुंचे जिसे लेकर विपक्ष उम्मीदजदा है।

एक प्रमुख आरोप यह है कि फलां कारोबारी से जुड़ा समूह कश्मीर पर यह राय रखता है। विदेशी कारोबारी की बात छोड़िए महज कुछ साल पहले आपने कश्मीर में उनके साथ सरकार साझा की थी जो उन अलगाववादी गुटों की रहनुमा की तरह देखी जाती थीं, जो कश्मीर में भारतीय करंसी तक का बहिष्कार करता था।

कश्मीर का अब दो इतिहास हो चुका है। एक अनुच्छेद-370 खत्म होने के पहले और एक उसके बाद। आज यह हाल है कि विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उमर अबदुल्ला जैसे कश्मीर की जमीन के नेता सबसे पहले 370 जैसे मुद्दों से परहेज करते हैं। उमर अब्दुल्ला जानते हैं कि इतिहास कभी पीछे की तरफ नहीं जाता और कश्मीर में अनुच्छेद-370 अब इतिहास है। जिस तरह टीवी पर राजनीतिक बहसों में भारत की आजादी तक को ‘लीज’ (जाहिर सी बात है कांग्रेस द्वारा) पर बता कर उस दृश्य को वायरल कर दृश्यता जुटाई जा रही थी वैसा ही मामला संसद से टीवी तक उस अमेरिकी उद्योगपति का भी हो गया है।

आपके नेता जब तक पार्टी के प्रवक्ता के तौर पर टीवी पर जाते थे और नाली से लेकर खड़ंजे तक की समस्या पर ‘विदेशी हाथ’ को ले आते थे तब बात समझ में आती थी। आपके अगंभीर बयान और आरोप टीवी के लिए विज्ञापन वसूली वाले होते होंगे। अब जब आप संसद के सदस्य बन चुके हैं तो आप जनता के प्रति जिम्मेदार हैं। अगर आपके मुंह से कोई आरोप निकला है तो फिर आरोप को सिद्ध कर उसे सजा की मुकाम तक ले जाना आपकी सत्ता की जिम्मेदारी होगी। आपको कब तक झकझोर कर याद कराना पड़ेगा कि अब तो आप सत्ता के सदस्य हैं। जिन आरोपों को सालों तक टीवी पर लगाया, अब संसद परिसर में भी उठा रहे हैं उसे सिद्ध करना आपकी नैतिक जिम्मेदारी है। आपने जिस शब्द का इस्तेमाल किया, उसके सबूत एजंसियों को सौंप कर जल्द से जल्द मामले को रफा-दफा कर देना चाहिए।

ऐसे आरोप लगा कर हंगामा पैदा करने की शुरुआत तब हुई थी जब एक पूर्व प्रधानमंत्री पर ही पाकिस्तान के पक्षकार होने का आरोप लगा दिया गया था। यह देश की सुरक्षा के लिहाज से दुखद था कि इतना गंभीर आरोप टीवी चैनल की अगंभीर बहसों का हिस्सा तक ही रह गया, इसकी कोई औपचारिक जांच नहीं हुई।

लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें संस्था स्थिर रहती है और व्यक्ति आते-जाते हैं। सांवैधानिक रूप से व्यक्ति महज पांच साला मियाद है। व्यक्ति जो भी आएगा देश तो उसे संवैधानिक ढांचे के तहत चलाना होगा। महज व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप वाली यह व्यक्तिगत प्रवृत्ति समूचे लोकतांत्रिक ढांचे को नुकसान पहुंचाएगी।

न तो विपक्ष की ‘मुखौटा’ लड़ाई महज दो नामों तक सिमटे और न जनता के चुने गए प्रतिनिधि एक विदेशी कारोबारी के नाम को उछाल कर अपनी जिम्मेदारियों से निकल जाने की जुगत निकाल लें। जनता द्वारा सत्ता में व्यक्ति बदलने को व्यक्तिगत जीत-हार में न लें। नहीं तो सारे मौसमों के नाम हटा कर नाम ही व्यक्तिगत सत्र कर दें। संसद को संस्थागत तरीके से चलाइ व्यक्तिगत नहीं।