2024 के लोकसभा चुनाव की विडंबना यह है कि चुनाव प्रक्रिया की शुरुआत में सवालों के घेरे में रहने के बाद आखिरी चरणों के मतदान के दौरान चुनाव आयोग की अदालत में पेशी हुई। जिस आयोग की जिम्मेदारी थी असंवैधानिक काम करने वाले चुनावी उम्मीदवारों को सवालों के कठघरे में खड़े करने की वही, चुनावी प्रक्रिया के साथ अदालत के कठघरे में खड़ा था। चुनाव प्रणाली में यह विशेषाधिकार जनता के पास है कि वह किसी एक पक्ष को बेहतर मान कर उसे चुन ले। लेकिन, आरोप है कि खुद आयोग ही अपने पक्ष का चुनाव करके बैठा दिख रहा है, और आम लोग निष्पक्षता को खोज रहे हैं। जनता ने जिस पक्ष को चाहा सत्ता में वही चुना गया, इसके लिए संस्था की निष्पक्षता जरूरी है। जब चुनाव आयोग के पास लोकतंत्र को एक कड़ा संदेश देने का समय आया तो उसने उम्मीदवार की जगह पार्टी अध्यक्षों को नोटिस भेजने का नियम ला दिया। अंतिम चरणों में उसे संविधान से लेकर सेना पर दिशा-निर्देश जारी करने का ध्यान आया। चुनाव प्रक्रिया में आयोग पर लगातार उठ रहे सवालों पर प्रस्तुत है बेबाक बोल।
‘पूरी जानकारी देना और फार्म 17-सी को सार्वजनिक करना वैधानिक फ्रेमवर्क का हिस्सा नहीं है। इससे पूरे चुनावी क्षेत्र में गड़बड़ी हो सकती है, इस डेटा की तस्वीरों का दुरुपयोग हो सकता है।’ अदालत में आंकड़े सार्वजनिक होने के बाद दुरुपयोग होने का यह डर चुनाव आयोग ने दिखाया। 2024 के लोकसभा चुनाव की विडंबना है कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान इस संस्था को अदालत का सामना करना पड़ा।
इसके खिलाफ शिकायत भी ऐसी नहीं थी कि उसकी फर्जी तासीर को देख कर अदालत शिकायतकर्ता पर ही जुर्माना लगा दे। मतदान के आखिरी चरणों के दौरान अगर अदालत सुनवाई के लिए तैयार हुई थी तो अर्जी की ‘योग्यता’ को देख कर ही। हालांकि, मामले में अदालत का तर्क रहा कि चुनाव के बीच में काम करने के लिए लोग जुटाने में आयोग को मुश्किल होगी। अदालत ने आयोग को अपनी वेबसाइट पर केंद्रवार मत फीसद जारी करने के लिए निर्देश देने से इनकार किया।
मतदान के अंतिम आंकड़ों को देर से जारी करने के आरोप के बाद चुनाव आयोग की दलील थी कि सार्वजनिक करने से डेटा का दुरुपयोग किया जा सकता है। यह तर्क उस देश की संस्था दे रही है जो अपने डिजिटल होने पर गर्व कर रहा है। आधार कार्ड से लेकर अन्य मामलों में अगर आम लोगों से विपक्ष तक ने गलती से भी कोई सवाल उठा दिया तो सत्ता पक्ष से जुड़े सभी पक्षकार ‘विद्युत की गति’ से उन्हें देशद्रोही घोषित कर देते हैं। ईशनिंदा जैसा कोई कानून हमारे देश में अस्तित्व नहीं रखता, यह राहत की बात है, लेकिन अघोषित रूप से डिजिटल निंदा करने वालों के लिए देशद्रोही का तमगा है।
जब चुनाव आयोग ही डेटा के दुरुपयोग होने का खौफ देख रहा है तो फिर उस जनता का क्या जो ईवीएम मशीन की खराबी की शिकायत करती है और अपने वोट को लेकर डरती है। जनता अब यह भी पूछने लगी है कि आखिर क्या कारण है कि मशीन में खराबी सिर्फ एक चुनाव निशान के पक्ष में आ जाती है? अगर ‘निष्पक्ष मशीन’ खराब होगी तो कभी इस निशान को तो कभी उस निशान को वोट चले जाएंगे। सोशल मीडिया पर पसरी ऐसी सैकड़ों शिकायतों को लेकर जिम्मेदार संस्थाओं ने ‘स्वत: अज्ञान’ का रास्ता ही क्यों चुना है?
दुरुपयोग तो बहुत चीजों का हो सकता है। देश के शीर्ष नेताओं के चुनावी भाषण के ‘डीप फेक’ बन गए तो क्या किया गया? ‘डीप फेक’ बनाने के आरोपियों पर कार्रवाई शुरू हुई न कि नेताओं को सलाह दी गई कि वे चुनावी भाषण देना बंद कर दें, जिससे कि न ‘डीप फेक’ बनेंगे और न गड़बड़ी होगी। जनता की हर जरूरत पर ‘डिजिटल’ अनिवार्य कर संस्थाएं अपनी बारी आने पर कहें-दुरुपयोग हो सकता है। दुरुपयोग का खौफ दिखा कर जानकारी के हक को न खत्म किया जाए।
‘नेटफ्लिक्स’ पर वेब कड़ी है ‘जामताड़ा’। ‘हीरा मंडी’ के विलासिता भरे दृश्यों से ऊब गए हों तो डिजिटल दुनिया के स्याह पक्ष को बताने वाली इस कड़ी को देख लें। ‘जामताड़ा’ झारखंड का एक जिला है जो साइबर ठगी के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। विकास के पायदान पर यह देश के पिछड़े जिलों में गिना जाता है।
जिन युवाओं की पहुंच अच्छे स्कूलों तक नहीं हो पाई, वे उस तकनीक में सिद्धहस्त हो गए कि जामताड़ा में बैठ कर देश के किसी भी हिस्से के लोगों को ठग कर उनके बैंक खातों से पैसे निकाल लें। इस फिल्म को देखने के बाद आपकी आत्मा तक स्याह अंधेरे में डूब जाएगी। गरीबी, पुलिस से लुकाछिपी के बीच अन्य अपराध के साथ फर्जीवाड़े की यह कहानी बतौर दर्शक परेशान करती है। आर्थिक रूप से एक पिछड़ा हुआ इलाका डिजिटल फर्जीवाड़े का ‘विश्वगुरु’ बन गया।
जिस देश में ‘जामताड़ा’ है लोग वहां की डिजिटल व्यवस्था को लेकर सतर्क और सवालतलब क्यों न रहें? चुनावी बाजार के शीर्ष कारोबारी एक साक्षात्कार में अपना बाजार बचाए रखने के लिए अखबार में छपी चीजों की विश्वसनीयता को भले नकार दें। लेकिन, रोज अखबारों में साइबर फर्जीवाड़े की खबरें पढ़ने के बाद आप पता लगा सकते हैं कि आम लोगों के लिए ‘साइबर अपराध’ एक अबूझ पहेली है। फिर जब देश के लोकतंत्र का मुस्तकबिल तय हो रहा हो, और डिजिटल इंडिया के समय में चुनाव आयोग अपने लिए बैलगाड़ी से धीरे-धीरे चलने का विकल्प चुने तो फिर सवाल क्यों न उठें?
2024 की चुनाव प्रक्रिया का एलान करते वक्त मुख्य चुनाव आयुक्त ने संभवत: आयोग की अब तक की सबसे बड़ी प्रेस कांफ्रेंस करने का खिताब पा लिया। पत्रकारों के सवाल के जवाब में शेरो-शायरी करने में इतने मशगूल हो गए कि तब ‘संविधान’, ‘मंदिर’, ‘सेना’ और ‘अग्निवीर’ का जिक्र करना भूल गए। आखिरी चरणों के पहले पार्टी अध्यक्षों को संदेश भेजे गए कि इनके जिक्र में सावधानी बरतें।
मेरठ में एक टीवी कलाकार श्रीराम का पोस्टर लेकर घूम रहे थे। भगवान के नाम पर जब चुनाव आयोग आंखें मूंदे बैठा रहा तो एक उम्मीदवार ने भगवान जगन्नाथ को ही भक्त बता दिया। भगवान के नाम पर यह जिह्वा का फिसलन नहीं होता, अगर चुनाव आयोग दो महीने भर से लंबी चल रही प्रक्रिया में बार-बार अपने सिद्धांतों से विचलन नहीं करता।
2024 के चुनाव में एक वक्त आया जब मुख्य चुनाव आयुक्त, चुनाव आयोग जैसी संस्था के जरिए एक मजबूत संदेश देकर अपने हिस्से का इतिहास बना सकते थे। लेकिन, चुनाव के बीच में ही प्रक्रिया बदल कर उम्मीदवार की जगह पार्टी अध्यक्षों को नोटिस भेजना शुरू किया। लोकसभा चुनाव सांसद चुनने के लिए होता है न कि पार्टी अध्यक्ष चुनने के लिए।
इतनी शिकायतों के बाद जेपी नड्डा, मल्लिकार्जुन खरगे, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव जैसे पार्टी अध्यक्षों पर किस तरह की कार्रवाई हुई? जब चुनाव सांसद चुनने के लिए हो रहे हैं, प्रधानमंत्री सांसदों को चुनना है तो फिर बीच चुनाव में पार्टी अध्यक्ष पर आचार संहिता के उल्लंघन की जिम्मेदारी सौंप कर चुनाव आयोग ने संदेश देने का मौका गंवा दिया और खुद ही संदेश बन गया। संदेश इस बात का कि निष्पक्ष कार्रवाई से बचने के लिए जिम्मेदारी ऐसे पक्ष पर दे दो जिस पर कार्रवाई ही न हो पाए, जिसकी जिम्मेदारी ही तय न हो पाए।
जिस चुनाव आयोग की जिम्मेदारी बनती थी कि वह आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले चुनावी उम्मीदवारों को आयोग से लेकर अदालत तक का चक्कर लगाने के लिए मजबूर कर दे, वही चुनावी प्रक्रिया को लेकर अदालत में हाजिरी लगा रहा है। बीच चुनाव से लेकर चुनाव के अंत तक नियम बदल रहा है।
सत्ता की आण्विक निर्मिति ऐसी है कि वह सदा के लिए किसी की नहीं होती। यानी, उसकी आनुवांशिकी से कोई अपना नाता नहीं जोड़ सकता है। आज, अगर किसी खास सत्ता के लिए कोई संस्था अपने नियम-कायदों को बदल दे तो यह जरूरी नहीं कि वह सत्ता आगे उसके लिए अहसानमंद रहेगी। हो सकता है कि कल अपना चेहरा दुरुस्त करने की खातिर सबसे पहले उसकी दुरुस्तगी की कार्रवाई शुरू हो जाए।
सत्ता और संस्था में यही संवैधानिक फर्क है। संस्था स्थायी है और सत्ता बदलती रहती है। इतिहास में जिस भी संस्था ने सत्ता के लिए बदलना स्वीकार किया है, सत्ता उसे भी आकर बदल देती है। फिर चुनाव आयोग ने शायद अपने नाम को शब्दश: लिया थोड़ी गलतफहमी के साथ। उसे देश के लिए चुनाव करवाना है, न कि किसी पक्ष का चुनाव कर चुप बैठ जाना है जैसा कि उस पर आरोप लग रहा है।
किसी एक पक्ष को चुनने का विशेषाधिकार सिर्फ जनता के पास है। आयोग को अपना चुनाव किए बिना इतना निष्पक्ष दिखना चाहिए कि बीच चुनाव के दौरान लोग अदालत जाने पर मजबूर न हों। चुनाव के नतीजे जो भी निकलें, चुनाव आयोग को इतिहास में दर्ज होने वाले अपने नतीजों पर ही गौर करना चाहिए।