तृणमूल कांग्रेस की नेता महुआ मोइत्रा जब भारतीय संसद में वाशिंगटन डीसी स्थित होलोकॉस्ट मेमोरियल म्यूजियम के पोस्टर के हवाले से फासीवाद के लक्षण बता रही थीं उसी वक्त पश्चिम बंगाल में तूल पकड़ा ‘कटमनी’ का मामला वाम की विरासत वाले राज्य में लोकतंत्र का हाल बयान कर रहा था। बिहार के जो नेता भय जता रहे थे कि अगर हम नहीं जीते तो 2019 के बाद चुनाव ही नहीं होगा वे जनादेश के बाद जनता के बीच से ही गायब ही हो गए। इस माहौल में देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी हार की जिम्मेदारी लेते हुए अपना पद छोड़ने का साहसिक फैसला लेते हैं। नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ बोल रहे राहुल गांधी आज कांग्रेस की सामंती मानसिकता के मलबे के ढेर पर खड़े हैं। विपक्ष के सूने मैदान पर राहुल गांधी को कैसी मेहनत और ऊर्जा की दरकार है इसकी बात करता बेबाक बोल…
काबे किस मुंह से जाओगे गालिब
शर्म तुम को मगर नहीं आती
कांग्रेस के वे सभी बड़े नेता जो नेहरू-गांधी परिवार के नाम पर राजनीति में अपने परिवार को आगे बढ़ा रहे थे उन्हें उम्मीद नहीं थी कि राहुल गांधी अपने फैसले पर टिके रहेंगे। जंग-ए-आजादी की विरासत का तमगा पहने पार्टी के बड़े नेताओं को लग रहा था कि हर बार की तरह उनके दबाव में आलाकमान अपना फैसला बदल देंगे और सब कुछ पहले की तरह चलता रहेगा। राहुल गांधी की अपील के बाद भी किसी बड़े नेता ने अपना इस्तीफा नहीं दिया। राहुल गांधी तो अपने फैसले पर टिके रहे, लेकिन अब ये लोग जनता के पास किस मुंह से जाएंगे जिन पर आरोप लग चुके हैं कि कांग्रेस की राजनीति में इनका मकसद सिर्फ अपने बेटों के पांव जमाना है। चुनावों के समय जब ये अपने आरामगाह से निकलेंगे तो क्या जनता से आंखें मिलाते वक्त इन्हें शर्म आएगी?
राहुल गांधी ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद छोड़ दिया है। ट्वीटर खाते पर भी अपना परिचय बदलने में देर नहीं लगाई। राहुल गांधी को यह बात समझ आ चुकी है कि जब जनता के बीच साख नहीं रही तो अपने सामंती सोच वाले समर्थकों के लिए कांग्रेस अध्यक्ष बनकर क्या करना। जनता के बीच की साख की अहमियत उनकी मां सोनिया गांधी ने भी समझी थी। विदेशी मूल वाले मुद्दे के तूल पकड़ने पर सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा दिया था। विदेशी मूल ऐसा भावुक मुद्दा था जिस पर कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ भी पार्टी का साथ छोड़ कर चले गए थे। आज अगर राष्टÑवादी कांग्रेस पार्टी के नेता सोनिया गांधी के इस त्याग की तारीफ कर कांग्रेस में एक हो जाने की बात करते हैं तो सोनिया की दूरदृष्टि को समझा जा सकता है। तारिक अनवर तो घर वापसी कर भी चुके हैं।
यूपीए-दो के शासन के वक्त ही सोनिया गांधी और राहुल समझ चुके थे कि नवउदारवाद के राजमार्ग पर सत्ता का रथ नहीं दौड़ाया जा सकता है। आर्थिक सुधार के नाम पर बनाए उस मार्ग पर कमजोर तबकों के लिए कोई सहायक सड़क नहीं थी। किसान, कामगार सब हाशिए पर पहुंच चुके थे। अर्थव्यवस्था के इस हाल का उपचार अर्थशास्त्र के किसी डॉक्टर के पास नहीं था और कांग्रेस की विदाई तय थी।
2014-2019 के सफर में राहुल गांधी ने भी जनता से जुड़ने में देर कर दी थी। पूरी कांग्रेस पार्टी इसी भरोसे बैठी थी कि लोग महज सरकार बदलने के लिए उन्हें वोट दे देंगे। राहुल गांधी अगर इतने आहत हैं तो वह इसलिए कि उन्हें 23 मई 2019 को अहसास हुआ कि उनकी पार्टी के लोगों का जमीन से कोई रिश्ता नहीं है। उन तक अमेठी से लेकर पूरे हिंदुस्तान तक की जमीनी रिपोर्ट गलत पहुंच रही थी। कुछ लोगों को सच का पता था। शायद इसलिए उन्होंने केरल के वायनाड से भी परचा भर दिया और आज उनके परिचय में लोकसभा के सांसद का पद जुड़ा हुआ है।
2014 की हार के बाद राहुल गांधी ने तो अपनी भाषा बदल ली थी। पिछले पांच सालों में वे उसी अर्थव्यवस्था के कटु आलोचक बने, जिसका रास्ता प्रणब मुखर्जी, डॉक्टर मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम ने तैयार किया था। भट्टा-पारसौल से शुरू हुई उनकी पाठशाला सबको न्यूनतम आय की योजना तक पहुंची थी। राहुल सीख रहे थे, समझ रहे थे। लेकिन उनकी खुद की भी मेहनत उतनी ज्यादा नहीं थी कि उन्हें वांछित नतीजे मिलते।
पिछले पूरे पांच साल राहुल वर्तमान कांग्रेस यहां तक की खुद के खिलाफ होकर बोल रहे थे। लेकिन अपने व्यक्तिगत प्रदर्शन को वो पार्टी के ढांचे तक नहीं पहुंचा सके। पार्टी का ढांचा वही सामंती सोच का रहा। ऐन चुनावों के समय राहुल जो 72000 वाला घोषणापत्र लेकर आए उसे बड़े-बड़े कांग्रेसी नेता नहीं समझ पा रहे थे तो वो जनता को क्या समझा पाते। यह वह समय था जब ज्यादातर कांग्रेसी अपना सुरक्षित भविष्य देखते हुए भाजपा का दामन थाम रहे थे। 2014-2019 के दौरान कांग्रेसी नेता जितनी बड़ी संख्या में भाजपा में शामिल हुए उससे पता चलता है कि पार्टी के लोग वैचारिक रूप से कितने कमजोर थे। अब तक वे सिर्फ इसलिए कांग्रेसी थे क्योंकि सत्ता कांग्रेस की थी। सत्ता हाथ से निकलते ही कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा ध्वस्त हो गया और उसके मलबे की र्इंटों ने सत्ता पक्ष की दीवारों में लग जाना पसंद किया।
राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया है और कांग्रेस को नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का नया अध्यक्ष मिल जाएगा। उसके बाद क्या? क्या कांग्रेस की समस्या सिर्फ वंशवाद है? राहुल गांधी ने अपने इस्तीफे के साथ जो पत्र जारी किया है उसमें तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा के नवउदारवादी बौद्धिक वर्ग के भाषण की छाप है। महुआ मोइत्रा संसद में रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियों से सोशल मीडिया पर साप्ताहिक सितारा तो बनी हुई थीं लेकिन पूछने वाले तो पूछ ही रहे थे कि क्या आपको कमजोर होते लोकतंत्र के लक्षण पश्चिम बंगाल में नहीं दिखे थे। वाम शासन के समय से ही शासन की योजनाओं पर माफिया काबिज हो चुके थे। सरकारी योजना से गरीब के घर को बनाने के लिए कौन राजमिस्त्री जाएगा यह भी राजनीतिक गुंडे ही तय करते थे। अब पश्चिम बंगाल में ‘मजबूत लोकतंत्र’ की निशानी तो देखिए कि एक मुख्यमंत्री राजनीतिक गुंडों से कह रही हैं कि ‘कटमनी’ यानी गुंडागर्दी से जमा किए गए पैसे वापस करो। सबसे ठगा हुआ तो बंगाल का वह लोक है जिसका जिक्र शायद वाशिंगटन डीसी के होलोकॉस्ट मेमोरियल म्यूजियम के पोस्टर में नहीं होगा।
यहां पर महुआ मोइत्रा के भाषण का जिक्र इसलिए कि राहुल ने देश के हालात को भी अपनी हार के कारणों में गिना है। उन्होंने कहा कि हमारा लोकतंत्र बुनियादी तौर पर कमजोर है और इसके साथ ही खतरा जताया है कि अब चुनाव महज रस्म अदायगी होगी। यहां पर राहुल से सवाल यह है कि भारत का लोकतंत्र अगर कमजोर है तो उसकी इस कमजोरी का जिम्मेदार कौन है? आप पांच साल गायब रहेंगे और ऐन चुनावों के वक्त न्यूनतम आय वाली योजना लेकर आएंगे तो सामने वाले पक्ष के लिए चुनाव तो रस्म अदायगी हो ही जाएगी।
राहुल ने अपने पत्र में कहा है कि भारत में आदत है सत्ता से चिपके रहने की…कोई सत्ता की कुर्बानी नहीं देना चाहता, विरोधियों को बिना कुर्बानी हरा नहीं सकते। इस चिट्ठी को लिखते वक्त अगर राहुल गांधी लोकसभा में अपनी मां सोनिया गांधी का भाषण सुन रहे होंगे तो उन्हें राह वहीं से दिखेगी। संसद में वाम और अवाम खत्म है और पूरे विपक्ष की जमीन खाली है। सोनिया गांधी ने संस्थाओं के निजीकरण के खिलाफ बोल कर जनपक्षधरता का मोर्चा संभाला है। इसके साथ ही राहुल गांधी को अटल बिहारी वाजपेयी के समय का नारा भी याद रखना होगा, ‘दो से दोबारा’। लोकतंत्र में अहम जिम्मेदारी विपक्ष की होती है, और उसे ही ज्यादा मेहनत करनी होती है। इतनी बड़ी हार के बाद भी अपने-अपने पदों से चिपके कांग्रेसी बता रहे हैं कि लड़ाई कितनी मुश्किल है। कांग्रेस ढांचागत स्तर पर ध्वस्त हो चुकी है। इसे सामंती, वंशवादी नेताओं की पकड़ से निकाल जमीन से जुड़े लोगों तक पहुंचाना होगा। राजनीति में कुर्बानी से ज्यादा मायने मेहनत की है। अगर आपने मेहनत नहीं की तो इस कुर्बानी को भी इतिहास में प्रहसन ही माना जाएगा। उम्मीद है, राहुल कड़ी मेहनत के लिए तैयार होंगे, क्योंकि इसके अलावा अब कोई विकल्प है ही नहीं।