दुनिया भर की किताबों में लोकतंत्र की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं हैं। भारतीय संदर्भ में 19 नवंबर, 2021 को भी एक परिभाषा का जन्म हुआ। जब जनचेतना को समझ कर किसी देश के प्रधानमंत्री अपने किसी फैसले से उत्पन्न हालात पर क्षमाप्रार्थी होते हुए किसानों से अपने खेतों में और परिवार के बीच लौटने की अपील करते हैं तो उसे लोकतंत्र कहते हैं। जनता और सत्ता के संबंध में प्रधानमंत्री के लिए क्षमा शब्द का इस्तेमाल अहमियत रखता है। समकालीन इतिहास में किसानों का यह अभूतपूर्व आंदोलन 19 नवंबर की तारीख में दर्ज हो चुका है। इस एक फैसले के बाद अचानक से न तो किसानी की समस्या खत्म हो जाएगी और न ही सरकारें अपने एजंडे से पीछे हो जाएंगी। किसानों की चुनौतियां और रोष कृषि कानून पारित होने के पहले उत्पन्न हो चुके थे। कानून वापसी से जनचेतना के सम्मान का जो लोकरंगा दृश्य पैदा हुआ है उस पर बेबाक बोल

‘मेरी सरकार तीन नए कृषि कानून के फायदों को किसानों के एक वर्ग को तमाम प्रयासों के बावजूद समझाने में नाकाम रही। इन तीनों कृषि कानूनों का लक्ष्य किसानों खास कर छोटे किसानों का सशक्तिकरण था। इन तीनों कानूनों को निरस्त किया जाएगा और इसके लिए संसद के आगामी सत्र में विधेयक लाया जाएगा।’

किसान आंदोलन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दिया यह बयान एक ऐसा सुखद अध्याय है जिसकी वजह से भारत खुद को सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने का दावा करता है। प्रधानमंत्री का माफी मांगना उस जनचेतना का सम्मान है जो किसानों ने अपने एक साल के संघर्ष की बदौलत तैयार किया। सरकार अपनी सोच और नीति के हिसाब से यह कानून लाई थी। आज भी सरकार ने इस कानून को खराब नहीं कहा है।

सरकार ने अपनी तरफ से माना है कि वह इन फायदों को किसानों के एक वर्ग को समझाने में नाकाम रही है। सरकारें किसी भी कानून को जनता के हित में लाने का ही दावा करती हैं। लेकिन जब जनता उसके लिए तैयार नहीं हो पाती है तो उससे कदम वापसी लोकतंत्र को एक कदम और मजबूत करने की शुरुआत होती है।

सरकार की इस कानून वापसी को स्वाभाविक तौर पर उत्तर प्रदेश, हिमाचल और पंजाब के चुनावों से जोड़ा जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि इससे पहले बंगाल, केरल और अन्य अहम राज्यों में भी चुनाव हुए। उस वक्त भी किसान आंदोलन चरम पर था। बंगाल में किसान नेताओं ने भाजपा के खिलाफ मजबूत अभियान भी चलाया। तब सरकार ने इस कानून पर कदम वापस क्यों नहीं लिए? उन चुनावों के समय में और आगामी समय में सबसे बुनियादी अंतर है उत्तर प्रदेश का।

उत्तर प्रदेश की जमीन पर तैयार हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता सत्यपाल मलिक लगातार किसानों से समझौता करने की बात कर रहे थे। यहां तक कि वे अपनी ही सरकार पर हमलावर हो गए थे इस कानून को रद्द करवाने के लिए। सत्यपाल मलिक जमीनी नेता हैं और उन्हें जनता के नब्ज की पकड़ है। उन्हें अंदाजा हो गया था कि आगे भाजपा के लिए हालात और खराब होने वाले हैं।

कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद जब अपनी किताब में भारत के हिंदुत्ववादी संगठन (उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम नहीं लिखा है, लेकिन उनका इशारा संघ की तरफ ही है) की बोको हरम और इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों से तुलना कर रहे थे तब वह संगठन जमीन पर भाजपा सरकार के लिए जनचेतना को समझने की कोशिश में जुटा था। सरकार से जुड़े संगठन इस मुद्दे पर जनता को अपने साथ नहीं कर पा रहे थे तो उन्होंने जनता के साथ हो जाने का सरकार को संदेश दिया।

संघ को इस बात का भरपूर अहसास है कि उत्तर प्रदेश में जरा सा भी कमजोर हुए तो केंद्र की सत्ता में लंबे समय तक मजबूती से टिकना संभव नहीं होगा। बंगाल, तमिलनाडु, केरल जैसे राज्य अगर सत्ता की परिधि हैं तो उत्तर प्रदेश सत्ता का केंद्र है। वहां की जमीन पर कमजोर होने का मतलब है केंद्रीय परिधि में कमजोर हो जाना।

भाजपा और संघ इस बात को बखूबी जानते हैं कि हिंदुत्व का एजंडा तभी तक आगे बढ़ सकता है जब तक कि सत्ता है। अगर सत्ता ही दरक गई तो हिंदुत्व के एजंडे को लेकर आगे चलना भी संभव नहीं हो पाएगा। इसलिए उसने इस कानून पर एक कदम आगे बढ़ने के बाद दो कदम पीछे चलना मंजूर कर लिया क्योंकि उसे अपने जमीनी आधार की फिक्र है।

2014 के बाद से कांग्रेस और भाजपा में इसी जमीनी आधार का फर्क गहराता जा रहा है। याद करें उस दृश्य को जब राहुल गांधी ने भू-अधिग्रहण कानून से जुड़े कागज को फाड़ा था। उस वक्त कांग्रेस व उनके नेताओं की कितनी आलोचना हुई थी। जन असंतोष के बाद राहुल गांधी ने भू-विधेयक को बकवास कानून बताया था। लेकिन राहुल गांधी उसका फायदा नहीं उठा पाए क्योंकि उनके पास जनता के मिजाज की कोई सूचना ही नहीं होती है। बिना जनसंगठन के आप जनता को अपने पक्ष में संगठित कर ही नहीं सकते हैं।

सत्ता तभी चलेगी जब आप कोई नीति बनाएंगे और उसे जन नीति के तौर पर पेश करेंगे। संघ-भाजपा एक नीति बना चुके हैं। प्रधानमंत्री सीधे-सीधे कह रहे हैं कि हम जनता को इस कानून की अच्छाई के बारे में समझा नहीं पाए। संघ से मालूम हुई सच्चाई के बाद भाजपा नेतृत्व सच से मुंह नहीं मोड़ता है। इसके पहले भी आरक्षण के सवाल पर सरकार ने अपने कदम न सिर्फ पीछे किए बल्कि आगे आरक्षण के मसले पर मील का पत्थर भी बनने की कोशिश की।

भाजपा के जन संगठन का जो जन चेतना के निर्माण और जनता की समझ को समझने का सलीका है उसकी तारीफ तो बनती है।
आज सरकारी पक्ष कह रहा है कि कृषि कानून की वापसी जनता के लिए उपहार है। लेकिन किसानों ने पूरी दुनिया को दिखाया कि यह उनकी मेहनत का अर्जित है।

जब किसानों को लगा कि सरकार सुनने वाली नहीं है तो वे जनता के पास गए और ठान लिया कि कृषि मुद्दे के केंद्र पर टिके रहना है। विरोध का केंद्र दिल्ली को बना कर अखिल भारतीय चेतना के विस्तार में पूरी तरह कामयाब रहे। इस आंदोलन को पटरी से उतारने की चौतरफा कोशिश हुई। कुछ अप्रिय घटनाएं भी हुईं लेकिन किसानों ने आंदोलन को केंद्र से भटकने नहीं दिया।

हर तरह के मौसम की मार झेलते हुए साल भर का परिणाम यह रहा कि सरकार को कानून वापसी का एलान करना पड़ा। यहां तक पहुंचना बहुत आसान नहीं रहा। संयुक्त किसान मोर्चा का कहना है कि इस आंदोलन में सात सौ किसानों की शहादत हुई।

किसी आंदोलन की बुनियाद में जन असंतोष ही होता है। आंदोलन के अगुआ जन असंतोष को संगठित करने का काम करते हैं। ऐसा नहीं है कि किसानों के बीच सिर्फ कृषि कानून आने से असंतोष हुआ। असंतोष पहले से व्याप्त था, जिसे संगठित करने का काम किसान आंदोलन ने किया। इस सफलता के साथ संयुक्त किसान मोर्चा की जिम्मेदारी और बढ़ गई है। किसानों की समस्या इन कानूनों के आने से पहले भी थी। पंजाब में किसान प्रतिकूल जलवायु में धान की खेती कर रहे हैं।

वे ज्यादा धान इसलिए उपजा रहे क्योंकि उसका न्यूनतम समर्थन मूल्य ही फायदेमंद होता है। किसानों के खेतों तक पराली नष्ट करने की महंगी मशीनें नहीं पहुंच पा रही हैं और वे दिल्ली के पर्यावरण के दुश्मन की तरह बताए जाने लगते हैं।

मौजूदा समय में पूरी दुनिया की खेती संकटों से जूझ रही है। यह वैश्विक बाजार का मसला है जो सरकारों को इस तरह के कानून लाने के लिए मजबूर करता है। जलवायु संकट के साथ किसानों को बाजार से भी कदमताल करना है। खेती-किसानी की चौतरफा दिक्कतों पर किसान नेता आगे कैसे बढ़ते हैं यह देखने की बात होगी। लेकिन इस आंदोलन के जरिए उन्होंने देश के इतिहास को वह अध्याय दिया है जिससे इक्कीसवीं सदी में भी साबित हुआ कि भारत कृषि प्रधान देश है।

भाजपा के लिए भी आगे की चुनौती बड़ी है। किसान आंदोलन के नारों ने उसकी बाजार वाली सरकार की छवि तो बना ही दी है। बाजार के बड़े आसमान की सच्चाई से मुंह मोड़ना मुश्किल है लेकिन जमीन से जुड़े संघ को इस छवि से उबरना भी है। इन सबके साथ महंगाई और बेरोजगारी तो बड़ा मुद्दा है ही। किसान आंदोलन ने जनपक्षधरता की चेतना का निर्माण कर दिया है जिसकी वजह से इस कानून को लौटाना पड़ा। इस चेतना को लेकर भाजपा चिंतित तो जरूर है। देखना है, आगे वह कौन सा रास्ता अख्तियार करती है।