जब आप किसी सूबे का विधानसभा चुनाव जीत कर भी शक्तिशाली न दिखें। जब आपकी अगुआई वाला राज्य अतिक्रमण व भ्रष्टाचार के चंगुल से त्रस्त हो। जहां जलवायु संकट अपनी जोरदार आहट दे चुका हो। ऐसे राज्य के मुखिया व उससे जुड़ी संस्थाओं की क्या प्राथमिकता होनी चाहिए? क्या यही कि मुख्यमंत्री किसी समारोह में जाएं और उनके लिए मंगाए गए समोसे उन्हें नहीं परोसे जा सकें तो सीआइडी जैसा अहम महकमा जांच बिठा दे। इतना ही नहीं, गलतफहमी में समोसे कहीं और पहुंच जाने व अन्य व्यक्तियों के द्वारा ग्रहण करने को सरकार विरोधी, सीआइडी विरोधी और एजंडा परक कहा जाए। समोसा कांड पर सरकार जो सफाई दे, सीआइडी जितना बचाव करे यह तो साफ है कि सत्ता व संस्थाओं की प्राथमिकता में हिमालयी राज्य को बर्बादी की कगार पर ले जाना वाला अतिक्रमण व उससे जुड़ा भ्रष्टाचार नहीं है। इस घटनाक्रम में सबसे चिंताजनक है सरकार विरोधी कार्य की परिभाषा में समोसे का शामिल हो जाना। सुक्खू के समोसे के बहाने सत्ता व संस्थाओं की प्राथमिकताओं पर सवाल उठाता बेबाक बोल

दया कुछ तो गड़बड़ है…
इस संवाद को मशहूर किया टीवी पर चलने वाले लंबे धारावाहिक ‘सीआइडी’ ने। सीआइडी…वैसे तो संस्था का नाम ही काफी है लेकिन बजरिए इस धारावाहिक आम लोगों के बीच इस महकमे की अलग ही साख बनी। चौबीस गुणे सात काम करने वाली सीआइडी के चुस्त-दुरुस्त अधिकारी अपराधी तक पहुंचने की हर कूबत रखते हैं। मजाल है कि टीवी वाली सीआइडी की टीम को कोई इनके केस से इधर-उधर भटका दे। इनकी एक ही प्राथमिकता है अपराध पर नियंत्रण रखना। हालांकि इस धारावाहिक में सीआइडी के किरदार वह सब भी काम करते दिख जाएंगे जो असली जिंदगी में सीआइडी नहीं करती।

समोसे और केक की कथित गुमशुदगी भी सरकार विरोधी गतिविधि

असली सीआइडी क्या करती है? गंभीर अपराधों को लेकर चाक-चौबंद टीवी वाली सीआइडी के बरक्स अभी सत्ता और सीआइडी की एक नई छवि सामने आई है। सत्ता और उसकी संस्था को आखिर कितना चौकस होना चाहिए? इतना कि अगर किसी समारोह में मेहमान मुख्यमंत्री हों तो फिर उनके लिए मंगाए गए समोसे और केक की कथित गुमशुदगी भी सरकार विरोधी गतिविधियों के संदर्भ में पेश कर दी जाएगी?

खाने-पीने में उदारता को लेकर हमारी संस्कृति में एक कहावत है-दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम। यानी खाना जिस तक भी पहुंचा उसी तक पहुंचना था। किसका खाना था, किसने, क्यों और कितना खा लिया, हमारी सांस्कृतिक तमीज तहजीब में इस पर चर्चा करना ही ओछेपन की निशानी होती है।

हिमालयी राज्य की जांच रपट में अधिकारी ने ऐतिहासिक टिप्पणी की

हिमालयी राज्य में अभी-अभी सीआइडी ने एक जांच पूरी की। जांच रपट में अधिकारी के द्वारा ऐतिहासिक टिप्पणी भी की गई कि यह कृत्य सीआइडी और सरकार विरोधी है। जांच रपट में नामित लोगों ने सीआइडी विरोधी और सरकार विरोधी तरीके से काम किया है…जिस कारण ये चीजें अति विशिष्ट सम्मानित व्यक्ति को नहीं दी जा सकीं। इन लोगों ने अपने एजंडे के अनुसार काम किया है।

सरकार विरोधी…इन दो शब्दों के मायने इतने गंभीर हैं कि किसी व्यक्ति के साथ यह जुड़ गया तो फिर उसके आगे का जीवन जेल और अदालत के बीच कितना लंबा चलेगा कोई नहीं जानता। सरकार के साथ वृहत्तर संदर्भ में देश भी आता है। सरकार विरोधी होना देश विरोधी के संदर्भ में भी आ जाता है। सरकार विरोधी ऐसा आरोप है जो कोई भी मोड़ ले सकता है।

याद करें स्टेन स्वामी को। 2018 में भीमा कोरेगांव से जुड़ी हिंसा में उन्हें गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) संशोधन अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किया गया था। दावा किया जाता है कि वे आतंकवाद का आरोप झेलने वाले भारत के सबसे उम्रदराज व्यक्ति थे। अपनी गिरफ्तारी की अवधि में वे अदालत पहुंचे थे और अपील की थी कि उनका सिपर और स्ट्रा उन्हें वापस किया जाए क्योंकि पर्किंसन के मरीज होने के कारण उन्हें गिलास या किसी और तरह से पानी पीने में दिक्कत होती थी। 2021 में उनकी मौत हो गई।

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दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीएन साईंबाबा को नक्सलियों से संबंधों के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। नब्बे फीसद दिव्यांग साईंबाबा दस साल कारावास का कष्ट भुगतने के बाद मामले से बरी हुए। जिस अवस्था में उन्हें हिरासत में रखा गया था कई संगठनों ने उसके खिलाफ आवाज भी उठाई थी। बरी होने के छह महीने बाद ही विभिन्न बीमारियों से उनकी मौत हो गई। आरोप है कि नब्बे फीसद दिव्यांग होने के कारण जेल में उनकी देखभाल ठीक से नहीं हो पाई जिस वजह से उनकी तबीयत बिगड़ती गई।

ये दो उदाहरण हमारे देश के कानूनी इतिहास में दर्ज हो चुके हैं। स्टेन स्वामी तो मुकदमे का फैसला हुए बिना इस दुनिया से चले गए और नब्बे फीसद दिव्यांग जीएन साईंबाबा को आरोप-मुक्त होने में दस साल लग गए। कहा जा सकता है कि इन दो बड़े मामलों का हिमाचल की घटना से क्या संबंध? संबंध है परिभाषा का। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सीआइडी के दफ्तर के एक समारोह में गए। समारोह में सुक्खू को परोसने के लिए जो जलपान मंगवाया गया वह गलतफहमी में समारोह के वक्त उन्हें नहीं परोसा गया।

समारोह खत्म होने के बाद अधिकारियों को जिज्ञासा हुई कि मुख्यमंत्री के लिए जो जलपान आया था वह कहां गया। पता चला कि वह अन्य कर्मचारियों की गलतफहमी से मुख्यमंत्री साहब के सहयोगी अमले को परोस दिया गया। समोसों की यह गुमशुदगी सीआइडी के अधिकारियों को बर्दाश्त नहीं हुई और इस पर बाकायदा जांच बिठा दी गई। समोसों को किसी और को परोस देने को खास ‘एजंडा’ की संज्ञा देते हुए इसे सरकार व सीआइडी विरोधी कृत्य कहा गया।

जो हिमाचल प्रदेश लंबे समय से हिमालय जैसी मुश्किलों से घिरा हुआ है वहां की सरकार और उससे जुड़ी संस्थाओं की प्राथमिकता क्या है? पूरा हिमाचल कंक्रीट का जंगल बन चुका है। लंबे समय की प्रशासनिक लापरवाहियों का नतीजा है कि शिमला कभी पानी की दिक्कत तो कभी सर्दी में भी गर्मी पड़ने के कारण सुर्खियों में रहता है। सिर्फ शिमला ही नहीं पूरा हिमाचल अवैध निर्माण के शिकंजे में है। बेरोजगारी की समस्या तो है ही। राज्य में प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर जब हर तरह की सत्ता चुप्पी साधे रही तब कुदरत ने ही बाढ़ में अतिक्रमण के अतिरेक को बहा कर दुनिया को दिखाया कि हिमाचल की क्या हालत है।

कांग्रेस सरकार बनने के बाद सुक्खू के चयन की शुरुआती तारीफ इसलिए हुई कि वे जमीन से जुड़े नेता हैं। जल्द ही पता चला कि मुख्यमंत्री बनने के बाद सुक्खू की जमीन पर कोई पकड़ नहीं है। वह चाहे विधायकों की बगावत का मामला हो या फिर लोकसभा चुनाव में बुरी तरह नाकामी का। चुनावों में जनता के सामने जो भारी-भरकम वादे किए गए थे उन पर भी सवाल उठ रहे हैं।

यहां तक कि राहुल गांधी की ‘मोहब्बत की दुकान’ पर भी नफरत का सामान बेचने का आरोप भी सुक्खू शासित हिमाचल प्रदेश में ही लगा। सुक्खू प्रदेश कांग्रेस की विचारधारा के तहत नीति नहीं बना पा रहे थे, जिस कारण से विक्रमादित्य सिंह जैसे मंत्री ऐसे आदेश पारित कर रहे थे जो उन्हें भाजपा की विचारधारा के खेमे में खड़ा कर रहे थे। मस्जिद निर्माण को लेकर जिस तरह से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण शुरू हुआ उसने वहां के राजनीतिक हालात को भाजपा की राजनीति के लिए मुफीद बना दिया है।

हिमाचल की जनता ने कांग्रेस को राजनीतिक संजीवनी दी थी। यहां से उठे पेंशन के मुद्दे ने राजग सरकार को अपने बड़े आर्थिक फैसलों में से एक को लेकर अपनी नीतियों में बदलाव करने के लिए मजबूर किया। छोटे से राज्य के जनादेश ने कांग्रेस को आगे बड़े कदम उठाने का हौसला दिया था।
पिछले एक दशक में भारत के राजनीतिक माहौल में बड़े परिवर्तन हो चुके हैं। अब आपका येन-केन प्रकारेण जीत जाना ही काफी नहीं होता है। खास कर जब आपके सामने भाजपा जैसी संगठित राजनीतिक चाल चलने वाली शक्ति हो तो फिर सत्ता में आपका हर दिन चुनौती भरा होता है। भाजपा सुक्खू को चुनौती दिए भी जा रही है लेकिन उनके चेहरे पर किसी तरह की शिकन नहीं दिखती है।

जिस राज्य में आप सत्ता पाने के बाद भी शक्तिशाली नहीं दिख रहे हों वहां आपकी प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? समोसे किसने खाए इतना बड़ा सवाल कैसे बन गया? मामले में सरकार अपना जितना बचाव करे, सीआइडी सरकार का जितना बचाव करे, यह साफ दिख रहा है कि सुक्खू सरकार को असली चुनौतियों की बिल्कुल परवाह नहीं है। समोसा कांड सुक्खू सरकार की प्राथमिकताओं को लेकर कह रहा-कुछ तो गड़बड़ है…।