अठारहवीं लोकसभा के पहले सत्र में विपक्ष जनता से हासिल ‘अभय मुद्रा’ को लाया। नई लोकसभा में ‘अजेय’ बनाम ‘अभय’ की मुद्राओं का संघर्ष दिखा। राजनीतिक नियम को देखें तो यहां कोई भी ‘अजेय’ नहीं रह सकता है। हां, अगर आप जनता की समानुभूति को सड़क पर महसूस करने के लिए निकलते हैं तो जनता आपके भय का हरण कर अभय बना कर संसद में भेज देती है। राहुल गांधी ने संसद में नेता प्रतिपक्ष के बारे में कहा कि उसके निज को खत्म हो जाना चाहिए। यानी जिसकी अपनी कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं होगी। वह सभी विपक्षी दलों को समान नजर से देखेगा। महंगाई, बेरोजगारी, परीक्षा व्यवस्था, मणिपुर जैसे मुद्दों के जरिए सत्ता पक्ष पर सवाल उठाए। माथे पर वंशवाद की मणि के घाव से रिसते रक्त से बेअसर जब वो जोश और जज्बे से विपक्ष का पक्ष पत्थर की तरह उठाने की बात करते हैं तो एक बार उनके कहे से गुजरना लाजिम है। रही बात बालक बुद्धि की तो यह फैसला अब अगले चुनाव तक होगा कि बालक बुद्धि है या बालक बुद्धिमान हो गया है। सदन में विपक्ष के बोल पर बेबाक बोल

अठारहवीं लोकसभा का पहला सत्र। इसी समय स्कूलों में उच्चतर कक्षाओं के लिए नया सत्र शुरू हुआ। वैचारिक रूप से देश की संसद और स्कूल का एक रिश्ता देखा जा सकता है। स्कूल ही वह जगह है जहां से हमारे संसद की रूपरेखा तय होती है। जैसे हमारे स्कूल होंगे वैसी हमारी संसद होगी। जैसी हमारी संसद होगी वैसे हमारे स्कूल होंगे। उच्च कक्षाओं के बच्चों को संसद का सीधा प्रसारण देखना ही चाहिए, इससे उनकी राजनीतिक समझ विकसित होगी।

बच्चों की खातिर हमें अपनी संसद को जिम्मेदार बनाना होगा

कुछ लोगों को इससे आपत्ति होगी और वे कहेंगे कि संसद के अंदर के दृश्य स्कूली बच्चों को विचलित कर सकते हैं। लेकिन, स्कूली बच्चे संसद को नहीं समझेंगे तो सड़क को भी नहीं समझेंगे। इन्हीं बच्चों की खातिर हमें अपनी संसद को जिम्मेदार बनाना होगा कि वहां से कोई भी दृश्य ऐसा न आए जो देश की ‘बालक-बुद्धि’ के लिए असंसदीय हो।

अभी दुनिया भर के देश राजनीतिक बदलावों से गुजर रहे हैं। सरकारें हर जगह बदल रही हैं, लेकिन महंगाई, बेरोजगारी का समाधान कहीं नहीं दिख रहा। अठारहवीं लोकसभा में जनता ने बहुत कुछ बदल कर भेजा है। सबसे बड़ा बदलाव यह है कि राहुल गांधी लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं। राहुल गांधी भारतीय राजनीति को भविष्य में क्या देंगे यह बाद की बात है, लेकिन हम वर्तमान के संदर्भ में उनकी अब तक की राजनीतिक भूमिका को समझने की कोशिश करते हैं।

सफलता अपवाद है और संघर्ष नियम

राहुल के संघर्ष को हर स्कूली बच्चे, ‘नीट’ के परीक्षार्थी या किसी भी तरह की बेरोजगारी या महंगाई के संकट से जूझ रहे युवाओं के लिए अहम माना जा सकता है। आज कई तरह के अभावों से जूझ रहे अभिभावकों को अपनी संतानों को समझाने के लिए राहुल एक रूपक बन चुके हैं। सफलता अपवाद है और संघर्ष नियम। जो राजनीतिक प्रयोगशाला राहुल गांधी को पूरी तरह खारिज मान कर अपनी परखनली को धो-पोछ कर रख चुकी थी वहीं अस्तित्व के लिए संघर्ष के रसायन के साथ प्रतिक्रिया कर एक राजनीतिक उत्पाद बनता है। इस उत्पाद का नाम विपक्ष है।

इस देश की ज्यादातर जनता को हमेशा विपक्ष में ही रहना पड़ता है। रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ, सड़क, बिजली की मांग करते ही वह विपक्षी करार दे जाती है। फिलहाल एक मां-बाप व्यवस्था से हताश अपने बालक को कह सकते हैं, राहुल गांधी को देखो, उसने हार नहीं मानी। जीतने से ज्यादा जरूरी है लड़ते रहना।

राहुल गांधी ने संसद में कहा कि मुझे पता है कि मैं अभी विपक्ष में हूं। वे कहते हैं कि मेरी जिम्मेदारी बढ़ गई है। अब सभी दल मेरे लिए एक समान हैं। देश की संसद में विपक्ष का जज्बा, विपक्ष का संघर्ष राजनीति का वह पक्ष है जो स्कूली बच्चों के लिए संसद को एक पाठशाला बनाता है। पिछले लंबे समय से मुख्यधारा का मीडिया विपक्ष को एक नाकारात्मक शब्द की तरह ले रहा था जो जनतांत्रिक भावना के खिलाफ था।

राहुल ने जनता की सहानुभूति नहीं उसकी समानुभूति हासिल की है

राहुल गांधी का राजनीतिक संघर्ष आसान नहीं रहा है। अभी सत्ता तो दूर की बात है, विपक्ष का यह तमगा भी राहुल गांधी को मुंह में चांदी की चम्मच की तरह नहीं मिला है। न ही यह जनता की तरफ से कोई सहानुभूति है। राहुल ने जनता की सहानुभूति नहीं उसकी समानुभूति हासिल की है। जनता से मिली समानुभूति के साथ वे संसद में ‘महंगाई की हिंसा’ की बात करते हैं। आम घरों में अगर सभी परिजनों के लिए मुकम्मल राशन नहीं है तो उसके लिए भी स्त्री को घरेलू हिंसा झेलनी पड़ सकती है। घर में पर्याप्त खाना नहीं बनने के कारण पति, स्त्री को पीटता है। महंगाई, बेरोजगारी जनता पर एक तरह की शासकीय हिंसा है, संसद में राहुल गांधी ने इसे जिस तरह से पेश किया, जनता की इस समानुभूति को संसद से सड़क तक लाकर कोई बदलाव ला पाते हैं या नहीं यह देखने की बात होगी।

राहुल गांधी ने कहा कि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद उनका भय खत्म हो गया है। इसके पहले उन्होंने ‘अभय मुद्रा’ का जिक्र किया। संसद में राहुल गांधी को यह ‘अभय मुद्रा’ जनता ने दी है। एक तरह से यह उस ‘अजेय मुद्रा’ के विपरीत है जिसे दस सालों से सत्ता पक्ष ने धारण कर रखा था। ‘अजेय’ शाश्वत नहीं हो सकता। किसी को ‘अजेय’ मानना राजनीतिक सिद्धांत के खिलाफ जाना है। जो आया है, वह जाएगा। हां, ‘अभय’ का भाव शाश्वत रह सकता है। आप पक्ष में रहें या विपक्ष में, आप बहुमत में रहें या अल्पमत में अगर आप जनता के मुद्दों के साथ रहेंगे तो आप ‘अभय’ रह सकते हैं। राहुल गांधी ने लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में कहा कि जब आप एक संवैधानिक व्यक्ति होते हैं तो आपको अपने अंदर की निजता को मार देना चाहिए। राहुल गांधी ने विपक्ष के नेता के रूप में अपनी जिम्मेदारी की जिस तरह व्याख्या की, देखना है कि उस पर कायम रह पाते हैं या नहीं?

विपक्ष की सांसद महुआ मोइत्रा की ओर से संसद में पाब्लो नेरुदा का उद्धरण दिया गया। इस स्तंभ का सांसदों से अनुरोध है कि संसद में नेरुदा की तरह जमीन से जुड़ कर जमीन की भाषा बोलना भी सीखिए। नेरूदा को पूरी दुनिया अपनी भाषा में इसलिए रूपांतरित करती है क्योंकि उन्होंने अपनी जैविकता की भाषा में रचना की। अगर आप आम के बगान वाले इलाके में हैं और अपने उदाहरण में ‘अवाकाडो’ को लाएंगे तो जनता उसका भावानुवाद नहीं कर पाएगी। पाब्लो नेरुदा को समझने वालों को यह समझना चाहिए कि आम खाने वाली जनता के सामने ‘अवाकाडो’ के स्वाद का वर्णन बदलाव के स्वाद को बेमजा ही करेगा। पाब्लो नेरुदा जो सीख प्रेम गीत में दे गए हैं वह राजनीति के लोगों को भी समझना चाहिए। पाब्लो की प्रसिद्ध पंक्ति है-‘प्रेम बहुत छोटा है, भूलना बहुत लंबा है’।

प्रसिद्ध व्यक्तियों, शायरों के उद्धरणों से सुसज्जित भाषण से क्षणिक नायकत्व हासिल करना आसान है, लेकिन सदन को भूख, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा जैसे मुद्दों पर टिकाए रखना बहुत मुश्किल है। निजी हमले, कटाक्ष के विपरीत इसमें सदन में मेज पर कम थपथपाहट होगी, लेकिन बाहर जनता के मुद्दों को लंबी धड़कन मिलेगी। जब आपने ‘जय संविधान’ बोल ही दिया तो फिर संसद में ‘हिंदू’ और ‘हिंसा’ का जिक्र कर ‘धर्म-शिक्षा’ की कक्षा लगाने की क्या जरूरत है? वो भी तब जब आप उस मैदान के विशेषज्ञ नहीं हैं। अगर आप शिव जी की व्याख्या करेंगे तो फिर सेंगोल से कैसे बचेंगे? जनता ने ही जब ‘धर्म-युद्ध’ को नकार दिया है तो इससे परहेज करें।

दस साल पहले की बात है कि जनता ने संसद में किसी को भी ‘नेता विपक्षवाला’ बनने के लिए सम्मानजनक आंकड़ा नहीं दिया था। रोजी और रोटी मांग रही जनता ने अपने घरेलू नेरुदाओं से सुन रखा था कि रोटी पलटी न जाए तो जल जाती है। अब नजर रखनी जरूरी है कि पलटने के बाद भी रोटी जलने को न मचलने लगे।

दस साल बाद जनता ने रोटी पलटी है तो क्या यह वह सही समय नहीं है जब दोनों पक्ष आपसी कटुता को दरकिनार कर संवेदनशीलता से महंगाई, रोजगार की बात करें। पांच साल बीतने में जरा भी वक्त नहीं लगता। तब जनता किसके साथ क्या करेगी कहा नहीं जा सकता। शुरुआती सत्र के बाद उम्मीद है कि दोनों पक्ष कटाक्ष की लोकलुभावन भाषा छोड़ कर महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य को दुरुस्त करने जैसे मुश्किल विषयों पर स्थिर रहेंगे। तू-तू, मैं-मैं के बाद देखना है कि बदलाव का नक्शा किसी के पास है भी या नहीं?

जनता दंड नहीं देती, अपने लिए न्याय खोजती है। दोनों पक्षों से नम्र अनुरोध है कि जनता के लाए बदलाव को किसी भी तरह के ‘बदले’ की भावना की तरह न देखा जाए। जनता के लिए वैसा कीजिए जो पाब्लो नेरुदा कहते हैं-मैं तुम्हारे लिए वह करना चाहता हूं जो वसंत का मौसम चेरी के वृक्षों के साथ करता है।