Appointment Of Election Commissioner And Interference Of Judiciary: एक अखबार की दी गई सुर्खी ‘किसी ने जेसिका को नहीं मारा’ के बाद छिड़ा आंदोलन इस बात का सबूत है कि महज न्यायपालिका की मौजूदगी निष्पक्षता की गारंटी नहीं होती है। धर्म, जाति से लेकर लैंगिक विमर्शों में जजों की धारणा पर सवाल उठते रहे हैं। जब अदालत से चुनाव आयोग के लिए आवाज आती है कि हमें शामिल करने के बाद आयोग निष्पक्ष दिखेगा तो यह समस्या बढ़ाने जैसा लगता है। जजों की धारणा जनतंत्र की परंपरा में जुड़ती है इसलिए जनधारणा बनाम जजधारणा पर बेबाक बोल

‘हम मुख्य चुनाव आयुक्त (Chief Election Commissioner) की नियुक्ति के लिए परामर्श प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं और इस प्रक्रिया में भारत के प्रधान न्यायाधीश (Chief Justice) को शामिल करने से आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित होगी’। न्यायमूर्ति केएम जोसेफ (Justice KM Joseph) की अगुआई वाली संविधान पीठ (Constitution Bench) ने निर्वाचन आयुक्त के रूप में अरुण गोयल (Arun Goyal) की नियुक्ति की अदालती पड़ताल के दौरान यह टिप्पणी की। इस टिप्पणी ने राजनीतिक से लेकर सांवैधानिक टिप्पणीकारों के बीच बहस छेड़ दी है। केंद्र सरकार जो पहले ही ‘अति न्यायिक सक्रियता (Extreme Judicial Activism)’ पर सवाल उठा रही थी जाहिर सी बात है इस बहस को आगे बढ़ाएगी। केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजीजू (Kiran Rijiju) ने पिछले दिनों कहा, ‘कार्यपालिका और विधायिका अपने कर्त्तव्यों में बंधे हैं और न्यायपालिका उन्हें सुधारती है। लेकिन जब न्यायपालिका (Judiciary) भटक जाती है तो उन्हें सुधारने का कोई उपाय नहीं है’।

केंद्र सरकार और Judiciary में पहले भी टकराव होता रहा है

केंद्र सरकार की शक्तियों से अदालती दिशा-निर्देश का टकराना कोई नई बात नहीं है। पिछले दशकों में राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक बदलाव के बाद यह टकराहट बढ़ी है। इस टकराव को इसी बात से समझा जा सकता है कि केंद्र सरकार जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग (National Judicial Commission) लाने का प्रस्ताव रखती है तो अदालत उसे असंवैधानिक करार देती है।

कांग्रेस को मात दे बहुमत से आई राजग सरकार के न्यायिक सुधारों की ओर कदम बढ़ाने के साथ ही टकराव भी बढ़े। पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने राजग सरकार के दो साल पूरे होने के बाद कहा, ‘न्यायपालिका की सक्रियता की वजह से कदम-दर-कदम, धीरे-धीरे विधायिका की इमारत ढह रही है’। उन्होंने राज्यसभा में वित्त विधेयक पर चर्चा के दौरान कहा, ‘ऐसे में सरकार का काम सिर्फ कर वसूलना रह जाएगा। न्यायपालिका चाहे तो उसे भी अपने पास रख ले’।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जब बड़ा राजनीतिक परिवर्तन होता है तो संवैधानिक संस्थाओं का टकराव लाजिम है। सत्ता और संस्थाओं के रिश्ते में सत्ता अपना वर्चस्व कायम करने के लोकतांत्रिक तर्क खोजती है। ऐसे में अनियमितताओं के आरोपों की अदालतों में पेशी भी होती है। जैसा कि किरण रिजीजू ने कहा, ‘अगर अदालत रास्ता भटकती है तो उसे सुधारने का कोई उपाय नहीं है’। चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली लंबे समय से विभिन्न सार्वजनिक मंचों पर सवालों के घेरे में रही है। अन्य संस्थाओं की भी रही है। लेकिन, इसके समाधान में अदालत चुनाव आयोग (Election Commission) के अध्यक्ष के चयन में अदालती अगुआ की भूमिका भी जोड़ने की बात कह दे तो यह समस्या को बढ़ाने जैसा होगा। अगर आप एक संस्था के दाग पर गैरजरूरी टिप्पणी कर नायक बनने की कोशिश करेंगे तो दूसरा आपकी कमीज पर लगे दाग दिखा देगा।

“महज न्यायपालिका की मौजूदगी निष्पक्षता की गारंटी मानना Constitution की गलत व्याख्या है”

अदालत ने केंद्र सरकार के पैरवीकारों के सामने सीबीआइ निदेशक (CBI Director) की नियुक्ति का हवाला दिया, जिसमें भारत के प्रधान न्यायाधीश शामिल होते हैं। इसके जवाब में सरकार ने कहा कि यह पूर्वधारणा कि महज न्यायपालिका की मौजूदगी से स्वतंत्रता और निष्पक्षता हासिल की जा सकती है, यह संविधान की गलत व्याख्या है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में अदालती आदेशों और टिप्पणियों का महत्त्व होता है। ये टिप्पणियां आगे की पीढ़ियों का भविष्य तय करती हैं कि उनके साथ सरकार कैसा व्यवहार करेगी और उन्हें अदालतों में किस तरह का न्याय मिलेगा। दक्षिण भारत में आज चल रहे किसी अदालती मामले में दशकों पहले उत्तर भारत की किसी अदालत के फैसले की मिसाल दी जा सकती है कि तब के विवाद में यह कहा गया था। अदालती टिप्पणियां सामान्य ज्ञान की किताबों का हिस्सा भर नहीं होती हैं बल्कि राज-समाज के लिए आधार तय करती हैं।

किसी भी देश के जनतंत्र में परंपरा का बहुत महत्त्व होता है। जनवाद की परंपरा जितनी लंबी होती है न्यायपालिका भी उतनी ही सशक्त होती है। इसके लिए अमेरिका को प्रमुख उदाहरण माना जाता है। सवाल यह है कि जहां परंपरा लंबी नहीं है वहां जनतंत्र किस तरह काम करेगा? भारत जैसे युवा लोकतंत्र में जन की धारणा अहम होती है। जो जनता के बीच प्रिय होगा यानी लोकप्रियता की परंपरा।

इसलिए विधायिका का कार्यपालिका व व्यस्थापिका से जब भी टकराव होता है तो वह अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए इसी लोकप्रियता का आधार लेती है। लोकप्रियता से ही वह खुद को सशक्त करने की कोशिश करती है। अब, जिस न्यायपालिका की बुनियाद ही परंपरा है वह भी लोकप्रियता को ही तरजीह दे रही है। वह ईमानदार दिखने की कोशिश कर रही है, भले ही ईमानदारी के खाते में उस कोशिश का नतीजा सिफर हो।

अदालतों के फैसले भी आलोचना (Criticism) से परे नहीं हैं

चुनाव आयोग पर व्यवस्था ढहने जैसी टिप्पणी के बरक्स देखें तो अदालतों के फैसले भी आलोचना से परे नहीं हैं। आलोचना क्या आंदोलन का सहारा लेना पड़ा जनता को। अदालत ने तो अपने पहले फैसले में जेसिका लाल हत्या के आरोपी मनु शर्मा को बरी कर दिया था। लेकिन ‘किसी ने जेसिका को नहीं मारा’ का जनांदोलन छिड़ने के बाद अदालत को फैसला देना पड़ा कि मनु शर्मा ने जेसिका लाल की हत्या की। अभी हालिया छावला कांड का उदाहरण देखें तो निचली अदालत ने जिन्हें फांसी दी ऊपरी अदालत ने सबको बरी कर दिया।

इसके साथ ही देखा गया है कि अदालत अगर एक फैसला दे भी देती है तो सरकारें उसे पलट देती हैं। ऐसा कांग्रेस सरकार ने भी किया और मौजूदा सरकार ने भी। राजीव गांधी ने चुनावी फायदा देखते हुए शाहबानो का फैसला पलटा तो राजग सरकार ने आरक्षण के प्रावधान में मलाईदार वर्ग को हटाने का फैसला पलट दिया क्योंकि उसे लेकर आंदोलन शुरू हो चुका था। बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार से लेकर राजीव गांधी हत्याकांड में राज्य सरकारों ने दोषियों के साथ सदाशयता दिखाई। इसलिए बेहतर है कि हर कोई अपनी संवैधानिक-रेखा को देखते हुए काम करे।

‘अति सक्रिय’ जनता से जज भी परेशान रहते हैं

इंटरनेट का यह युग क्रिया से लेकर प्रतिक्रिया तक अति-सक्रिय दिखने का युग है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के जज ने उन ‘अति-सक्रिय’ लोगों के प्रति नाराजगी जताई थी जो अदालती फैसलों को लेकर सोशल मीडिया पर जजों के खिलाफ मुहिम छेड़ कर अनावश्यक टिप्पणी करते हैं। ‘अति सक्रिय’ जनता से जज भी परेशान रहते हैं। खासकर कालेजियम प्रणाली (Collegium System) को लेकर जजों की पूरी वंशावली जारी कर दी जाती है दादा से लेकर पोते-पोती तक की। इसके साथ ही बहुजन समाज पूरी न्यायिक व्यवस्था पर खास सवर्ण जाति के वर्चस्व का आरोप लगा कर कालेजियम प्रणाली को घेरता रहा है। वहीं, लैंगिक नजरिए को लेकर नारीवादी अदालती फैसलों का घेराव करते हैं। न्यायमूर्ति कर्णन के मामले में अदालत अपने अंदर ही बुरी तरह घिर गई थी।

एक संस्था के रूप में अदालतें भी सवालों से परे नहीं है। अदालतें भी लोकलुभावन तरीका अख्तियार कर रही हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त वाले मामले में ही देखें तो अदालत इंसाफ होने से ज्यादा इंसाफपसंद दिखने की ख्वाहिशमंद लग रही है। उसका जोर इस बात पर है कि आयोग सर्वशक्तिमान के खिलाफ कार्रवाई करने में चूके नहीं। यहां इस बात से मतलब नहीं दिख रहा कि सर्वशक्तिमान के खिलाफ कार्रवाई संविधानसम्मत हो। भले ही कार्रवाई कर सुर्खियां बटोर फिर आयोग आंखें मूंद कर सो जाए।

आम जनमानस में संस्था के प्रति सत्ता से ज्यादा श्रद्धा है

भारत के संदर्भ में आम जनमानस में संस्था के प्रति सत्ता से ज्यादा श्रद्धा है। सत्ता के साथ जनता का बराबरी का संबंध है वहीं संस्था के साथ श्रद्धा का। जिस देश में किसी अप्रिय काम को लोग ‘मेरे साथ राजनीति नहीं करो’ कह कर टोक देते हैं वहीं अदालतों को न्याय के मंदिर का दर्जा दिया गया है। भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं वाला भाव विस्तार अदालतों को दिया गया है। लोग अपना सब कुछ गंवा कर भी बीस-तीस सालों तक अदालतों के भरोसे ही इंसाफ की लड़ाई के लिए अड़े रहते हैं। लेकिन, अदालती परिसरों से जब मोर के आंसुओं से गर्भवती होने और महज स्पर्श को यौन शोषण नहीं मानने वाली टिप्पणियां आती हैं तो जनता को अपने भविष्य पर खतरा मंडराने लगता है।

आज जब हर जगह बदलाव आया है तो संवैधानिक मूल्य के संकट बार-बार उभरते रहेंगे। लेकिन, जनतंत्र में इसी के बीच रास्ता निकाल कर परंपरा का निर्माण होना है। इस परंपरा को जितनी लंबी करेंगे जनतंत्र उतना ही परिपक्व होगा। सत्ता और संस्था का संतुलन उतना ही ज्यादा परिभाषित होता जाएगा। हर संस्था अपनी संविधान-रेखा को समझे तभी जनधारणा के साथ ‘जजधारणा’ का रिश्ता लोकतंत्र को मजबूत करेगा।