लोकतांत्रिक परंपरा में राजनीतिक दलों का अपना मह्त्त्व है। दो या दो से अधिक राजनीतिक दलों का अस्तित्व बताता है कि समाज और राजनीति में कई तरह की विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व है। भारतीय लोकतंत्र उस अविश्वसनीय दौर से गुजर रहा है जब सत्ता पक्ष ही विपक्ष के उठाए सभी मुद्दों को लागू कर देता है। एक राज्य के चुनाव में जिस जाति जनगणना को ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ की तरह देखा गया वहीं बिहार जाते ही जाति जनगणना का एलान कर शायद बंटेंगे तो बचेंगे का संदेश दिया गया। विपक्ष को प्रतिपक्ष की तरह लेने की संघ प्रमुख की सलाह के विपरीत उसे दुश्मन की तरह ‘लक्षित हमले’ की तरह चुना गया। राहुल समर्थक दावा कर रहे कि वे इतिहास के सफलतम विपक्षी नेताओं में शुमार किए जाएंगे क्योंकि उनका किया हर वादा सत्ता पूरा करती है। भाजपा-कांग्रेस के बीच का जब आखिरी फर्क भी मिट गया तो चिंता उस जनता की है जिसके पास किसी खास राजनीति को चुनने का राजनीतिक लक्ष्य ही नहीं बचा। जब संघ में भी कांग्रेस के ‘स्वयंसेवक’ हावी दिख रहे हों तो अलक्षित जनता पर बेबाक बोल

जब फिजा में बजरिए बिहार ‘कल्पना से परे’ शब्द तैर रहा था तब शायद अनुराग ठाकुर कल्पना भी नहीं कर पाए होंगे कि रातों-रात सिर्फ नोटबंदी ही नहीं होती है। दिनदहाड़े कुछ ऐसा हो जाता है कि आपको पाकिस्तानी यूट्यूबरों को प्रतिबंधित करने से ज्यादा इस बात की फिक्र हो जाती है कि महज एक चुनाव पहले आपने संसद में जो बोला था विपक्ष के लोग उसे ‘वायरल’ न कर दें। जनता के एक बड़े तबके ने अनुराग ठाकुर की उस हुंकार पर खूब तालियां बजाई थीं जब संसद में उन्होंने पूछा था कि राहुल गांधी की जाति क्या है? जनता को मांग करनी चाहिए कि संसद या चुनाव में भाषण देते वक्त नेताओं को उसकी मियादी तारीख भी बता देनी चाहिए कि फलां वादा और इरादा फलां क्षेत्र का चुनाव आते ही बदल जाएगा।

राहुल गांधी की जाति का आधार क्या होगा?

अब अनुराग ठाकुर से एक छोटा सा सवाल है कि क्या जाति जनगणना में राहुल गांधी की गणना हो पाएगी? उनकी जाति का आधार क्या होगा? उनके पिता या मां? देश में सत्ताधारी वर्ग सहित आम लोगों का बड़ा तबका है जिन्होंने जाति और धर्म के बंधन के परे जाकर शादी की है। सत्ताधारी खेमे तक में कई के जीवनसाथी मूल रूप से विदेशी हैं। क्या पितृवादी सोच के तहत पिता की जाति को ही संतान की जाति घोषित कर दी जाएगी? धर्म के बंधन से परे शादी करने वालों की संतान की जाति क्या होगी?

क्या जाति जनगणना वाले नितिन गडकरी के भी घर जाएंगे? क्या जाति पूछने पर नितिन गडकरी वही करेंगे जो हर आदमी के फोन में चल रहे अपने वीडियो में वे कह रहे? अनुराग ठाकुर, नीतिन गडकरी, सत्ता पक्ष के नेता से लेकर टीवी एंकरों तक के लिए यह कल्पना से परे था कि बिहार चुनाव के पहले ऐसा ‘लक्षित हमला’ हो जाएगा और हरियाणा, महाराष्ट्र व दिल्ली वाला पूरा पाठ्यक्रम बदल दिया जाएगा। ‘बंटेगे तो कटेंगे’, ‘एक हैं तो सेफ हैं’ अभी भी दीवारों पर धुंधला सा लिखा हुआ मिल जाएगा। नारे में थोड़ा ही बदलाव है- बंटेंगे तो बचेंगे (बिहार में)।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: फैसले की घड़ी

अचानक जाति जनगणना के समर्थन में सत्ता पक्ष के नेताओं से लेकर चैनलों ने जब ‘अनुराग’ दिखाना शुरू कर दिया तो राहुल गांधी को पूरे देश से शुकराना मिलने लगा। दावा किया जा रहा कि इतिहास में कोई भी नेता प्रतिपक्ष इतना सफल नहीं हुआ जितना राहुल गांधी। उनके हर मुद्दे व वादे को सत्ता पक्ष जमीनी हकीकत बनाने में जुट जाता है।

इस स्तंभ में भाजपा को लेकर कई बार तंज कसा गया है कि ‘रांझा रांझा कर दी नी मैं आपे रांझा होई।’ प्रेम के उलट किसी से नफरत की इंतिहा यही होती है कि आप उसके जैसे ही हो जाते हैं। भाजपा के शीर्ष नेताओं ने कांग्रेस और राहुल गांधी से इतनी नफरत की है कि पहले तो कांग्रेस के सारे नेता भाजपा को कांग्रेसयुक्त कर चुके और चुनाव दर चुनाव कांग्रेस के चुनावी मुद्दों को भाजपा अपनाती रही। कांग्रेस के चुनावी वादे को लपक कर भाजपा कहती है-सरकार में हम हैं तो लागू हम ही कर सकते हैं इसलिए कांग्रेस के इस मुद्दे को लागू करवाने के लिए हमें वोट दीजिए।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: हावर्ड की हदबंदी

कहा गया कि भाजपा के पास एक धुलाई मशीन है, जिसमें अन्य दलों के नेताओं को धो-सुखा कर अपने में शामिल कर लेती है। लेकिन धुलाई मशीन का एक नियम है। इसमें अलग-अलग रंगों के कपड़ों को एक साथ नहीं धोना चाहिए। अगर सारे रंगों के कपड़े एक साथ डाल दिए तो हर कपड़े का रंग एक-दूसरे पर चढ़ जाएगा। जब आप अपनों से ज्यादा दूसरे दलों से आए नेताओं को तवज्जो देंगे तो आपकी विचारधारा खत्म हो ही जाएगी। कांग्रेसयुक्त भाजपा का यह असर है कि राहुल गांधी के सबसे बड़े एजंडे को पूरा करना उसने स्वीकार लिया है।

पहलगाम पर आतकंवादी हमले के बाद पूरा देश सदमे में था और आपसे एक धमाके की उम्मीद कर रहा था। सत्ता का मंच कह रहा था, जाति नहीं पूछी, धर्म पूछ कर मार दिया गया। फिर घटनाओं का एक क्रम चला। बिहार से पाकिस्तान को चेतावनी दी गई। जब संघ प्रमुख मोहन भागवत भी सत्ता के शीर्ष से मिलने आए तो लगा कि यही मसला होगा।जैसा कि सरकार ने नाटकीयता को अपनी शासकीय मुहर बना ली है, तो इस बार अभिनेता थे पूर्व नौकर-शाह अश्विनी वैष्णव। वैष्णव प्रेस कांफ्रेंस करते हैं। उन्होंने सरकार के लिएदो फैसले बताए और कहा कि इनसे जुड़े सवाल ही लेंगे। जाते वक्त उन्हें याद आया और वे मुड़े कि उनकी जेब में एक पर्ची भी पड़ी है जिसके बारे में बोलना है। भाजपा के ग्यारह सालों के शासन में पर्ची-प्रथा अपने वैभव पर है।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: बेरोजगार कित्थे, ठेले ते

वैष्णव ने पर्ची पढ़ कर कांग्रेस पर हल्ला बोला कि किस तरह कांग्रेस जाति जनगणना पर देश को बांटती आई है। अब हम जाति जनगणना करके दिखाएंगे। भाजपा के नेताओं से लेकर टीवी के एंकरों ने इसे कांग्रेस पर लक्षित हमला करार दिया। शायद संघ प्रमुख भी भूल गए होंगे कि पिछले दिनों उन्होंने विपक्ष को दुश्मन की तरह नहीं बल्कि प्रतिपक्ष की तरह लेने की सलाह दी थी। ऐसा लग रहा है कि जब सब कुछ बदल गया है तो संघ में भी कांग्रेस के ‘स्वयंसेवकों’ ने प्रवेश पा लिया है।

लक्षित हमला पाकिस्तान पर हमले का प्रतीक बन चुका था। लेकिन इस शब्द का इस्तेमाल विपक्ष के लिए किया जा रहा है। लक्षित हमला शब्द का अर्थ उससे ज्यादा तेजी से बदल गया जितनी ज्यादा तेजी से हरियाणा में हुड्डा सरकार पर आरोप लगाया गया था राबर्ट वाड्रा के पक्ष में जमीन का उपयोग बदलने का।

जाति जनगणना के एलान के साथ ही लोगों ने राहुल गांधी को इस तोहफे के लिए शुक्रिया कहना शुरू कर दिया। कहा जाता है कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है। पर इतनी भी कमजोर नहीं होती कि कुछ दिनों पहले के किए वादों और इरादों को भूल जाए। जाति जनगणना का वादा कब तक और कैसे लागू होगा हम नहीं जानते। इस सरकार की शैली है अपने खड़े किए किरदारों को गुमनाम कर देने की।

सरकार की शैली वाट्सएप की उस सुविधा की तरह होती जा रही है जिसमें आप किसी की भेजी तस्वीर एक ही बार देख सकते हैं।हो सकता है कि बिहार से जब आप फिर बंगाल पहुंचें तो आपकी सोच अपनी ही मशीन से धुल जाए।

हमारी चिंता है मतदाताओं की। लोकतंत्र में मतदाता को स्वतंत्रता है कि वह अ या ब को चुने। जब जागरूक मतदाताओं ने कहा कि उन्हें अ, ब से लेकर वर्णमाला का कोई भी अक्षर पसंद नहीं फिर भी वे वोट डालना चाहते हैं तो उन्हें ‘नोटा’ का बटन दिया गया। कुछ दशक पहले बिहार से ही एक क्रांति हुई थी जातिविहीन उपनाम रखने की। कुमार, आजाद, प्रकाश, रंजन के उपनाम वाले लोग अपने सिद्धांत पर अड़े थे कि जाति नहीं बताएंगे। क्या इस तबके के लिए कोई नोटा जैसा इंतजाम किया गया है? जाति जनगणना के एलान के पहले क्या सभी पहलुओं पर सोच लिया गया? जब कांग्रेस ने जाति जनगणना का मुद्दा उठाया था तो सरकार ने विपक्ष के घोषणापत्र से संपत्ति के पुनर्वितरण को लेकर डराया था।

कहा था कि अगर आपकी दो भैंस हैं तो एक भैंस सरकार खोल कर ले जाएगी और जिसके पास भैंस नहीं है उसे दे देगी। जाति जनगणना के आंकड़ों का आप करेंगे क्या? क्या जनता आपके दिखाए डर को ही दुबारा याद कर ले कि सरकार उसकी एक भैंस खोल कर ले जाएगी। पक्ष से लेकर विपक्ष के बस सत्ता ही के लक्ष्य को देख कर यह खौफ क्यों न हो कि इन आंकड़ों का राजनीतिक दुरुपयोग ज्यादा होगा। भारतीय राजनीति में अभी ही जाति को लेकर अति उग्रता दिख रही है।

जातिगत समीकरण साध कर सत्ता को लगता है कि अब रोटी-रोजगार के सवालों से मुक्ति मिली। ये आंकड़े अस्तित्व में आते हैं तो इससे सभी जातियों का सर्वांगीण विकास होगा या यह चुनाव जीतने के लिए लक्षित हमला का हथियार भर रह जाएगा? अभी से इसकी कल्पना कर क्या करना क्योंकि होगा तो कल्पना के परे ही।