पिछले दिनों आई फिल्म ‘आदिपुरुष’ की तीखी आलोचना हुई। वजह यह थी कि इसमें रामायण के चरित्रों को अभद्र भाषा बोलते हुए दिखाया गया था। घोर आलोचना के बाद फिल्म के कुछ संवाद बदले भी गए। कहते हैं कि फिल्में समाज का आईना होती हैं, तो एक बार यह बात सच भी हो गई। संसद के मानसून सत्र में केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए सत्ता पक्ष के अगुआ प्रवक्ता ने जिस तरह ‘चीरहरण’ के प्रतीक को बदल दिया और अच्छाई व बुराई की मनचाही व्याख्या की उससे लगता है कि इन नेताओं ने कभी महाभारत और गीता पढ़ी ही नहीं, किसी ‘आदिपुरुष’ जैसी फिल्म से ही कथा का लघु-काट निकाल लिया। आज महाभारत और रामायण का उदाहरण दे-देकर जिस तरह की चीजें हो रही हैं, उसे किसी भी तरह से राजनीति जैसे पवित्र और जिम्मेदार शब्द से नहीं जोड़ा जा सकता है। इस ‘कु-राजनीति’ व संसद के मानसून सत्र में दिखे ‘आदिपुरुष-भाग दो’ पर बेबाक बोल

जाना नहीं आसान है
उस पेड़ के नीचे,
यादों का बियाबान है
उस पेड़ के नीचे।
मछली से तड़पते हैं
वहां धूप के टुकड़े,
साया भी परेशान है
उस पेड़ के नीचे।
-गाफ नून अदब
वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी भटनागर ने जब मोबाइल पर यह शेर भेजा तो इसके भाव ने उस पूरे अभाव को सामने रख दिया जो आज देश की राजनीति में परिलक्षित है। इस शेर ने देश की उस पूरी राजनीति की तस्वीर बयान कर दी जो आज उस मोड़ पर है जहां राजनीति-शास्त्र के पुरखे चाणक्य और निकोलो मैकियावेली भी नाकाम हैं।

सभ्यता और समाज के पुरखों ने राजनीति के जिस ढांचे को खड़ा किया था, उन्हें अंदाजा नहीं था, एक दिन उसकी मियाद खत्म हो जाएगी। जिन राजनीतिक सिद्धांतों को कालजयी कहा गया था वह काल विशेष में पराजित हो जाएगा।

राजनीति अब ऐसा विष-वृक्ष हो गई है, जिसके नीचे जाने से घबराने लगे हैं युवा

शायरों की संवेदना और इल्म उन्हें समय को साफ-साफ देखने की सलाहियत देते हैं। गाफ नून अदब ने देख लिया था कि राजनीति अब ऐसा विष-वृक्ष हो गई है, जिसके नीचे जाने से युवा घबराने लगे हैं। अब इस विष-वृक्ष के सहारे समाज के युवा राजनीति की अमरबेल नहीं बन सकते हैं। यह वृक्ष किसी बेल को सहारा व जीवन नहीं देगा, बल्कि उसकी नमी निचोड़ कर उसे निष्प्राण कर देगा। छात्र-राजनीति इतिहास की किताबों में सिमटने की तैयारी कर रही है।

आज किसी विश्वविद्यालय से कोई नया नेता नहीं निकल रहा है। जो इक्के-दुक्के नेता बन रहे हैं, वह इसलिए नहीं कि कोई पार्टी उन्हें नेता बनाना चाहती थी। वे ऐसी ही किसी पेड़ जैसी पार्टी की कुगर्जना के खिलाफ नारे लगा रहे थे जिस कारण उन्हें जेल भेज दिया गया। आज जो लोग नेता बन रहे हैं, चुनावी हलफनामों में उन पर चल रहे मुकदमों की संख्या इतनी होती है कि समझ में आ सकता है कि इन्हें कालेज-विश्वविद्यालयों की कक्षाओं में कदम रखने की फुर्सत ही नहीं मिली होगी। संसद में ताजा अविश्वास प्रस्ताव की बहस ने इस नई राजनीति पर मुहर लगा दी है।

लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान अपनी बात रखते कांग्रेस नेता राहुल गांधी, अधीर रंजन चौधरी (बाएं), और जवाब देते केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। (दाएं) (फोटो- पीटीआई)

सत्ता पक्ष की पहली पंक्ति के प्रवक्ता नेता ‘बेटे को सेट और जमाई को भेंट’ का ताना मार कर सत्ता पक्ष के केंद्रीय मंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता के बारे में बता रहे थे कि बिना पारिवारिक सहारे के खुद की काबिलियत से राजनीति में शीर्ष को छुआ।

उस वक्त केंद्रीय मंत्री के पुत्र सोच रहे होंगे कि ‘अंकल जी,’ आप क्यों मुझे और मुझ जैसे नेता-पुत्रों को सोशल मीडिया पर चुटकुलों का मरकज बनाना चाहते हैं। कुछ समय पहले पंजाब में जिस राजनीतिक परिवार के दादा, पोते, बीवी, भाई को टिकट दिए गए थे क्या आप उन्हें भूल गए? और, जब आप वैचारिक स्तर पर कांग्रेस और माकपा के साथ आने का ताना मार रहे थे तो मोहतरमा महबूबा मुफ्ती हैरान हो रही थीं कि कश्मीर में सत्ता के लिए उनके साथ गठबंधन करने के लिए क्या मंगल ग्रह से कोई राजनीतिक दल आया था?

विपक्ष में करोड़ों के घोटाले का आरोपी नेता, सत्ता पक्ष में आते ही निर्दोष हो जाता है

आज राजनीति का यह पेड़ सत्तर हजार करोड़ के घोटाले के आरोपियों का कल्प-वृक्ष बन गया है, जिसके नीचे आते ही जांच एजंसियों की नजर में आने से बचने का वरदान मिल जाता है। यह कल्प-वृक्ष समय से परे जाकर भी वरदान देने की शक्ति रखता है। आप पर पहले सत्तर हजार करोड़ के घोटाले का आरोप है, आप पर एजंसी की नजर पड़ भी चुकी है तो इस कल्प-वृक्ष के तथास्तु कहते ही जांच एजंसी आपकी तरफ से नजर मूंद लेगी, आपकी फाइल को कोई छवि-विस्तारक यंत्र से भी नहीं खोज सकेगा।

संसद में महाभारत को देखकर महर्षि वेदव्यास अपने महाभारत को भूलना चाह रहे होंगे

विदेश मंत्री इन दिनों महाभारत के विशेषज्ञ बन ही चुके थे। लेकिन, सदन में अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार के अगुआ वक्ता ने जिस तरह से महाभारत का विश्लेषण किया, उसके बाद तो महर्षि वेदव्यास की इच्छा हो रही होगी कि धरती पर आकर निवेदन करें कि महाभारत पर उनके दिए ‘अ-ज्ञान’ को कार्रवाई से हटा दिया जाए नहीं तो आने वाली पीढ़ियां इसे ही सच मानेंगी।

सत्ता पक्ष के माननीय सांसद ने कौरव और पांडव दोनों को एक साथ खड़ा कर दिया। और, जब उन्होंने महाभारत की बात शुरू की तो सीधा प्रसारण देख रहे पूरे देश को उम्मीद बंधी थी कि अब मणिपुर के संदर्भ में औरतों पर हिंसा की बात होगी। महाभारत ने चीरहरण को स्त्री पर हिंसा के प्रतीक के रूप में स्थापित किया। लेकिन, नई वाली राजनीति के नेता व महाभारत के इस अनोखे पाठक ने मणिपुर में स्त्री पर हुई हिंसा का जिक्र नहीं किया। और, विपक्ष पर एक पुरुष के चीरहरण का आरोप लगा दिया। चाणक्य और मैकियावेली की तरह वेदव्यास ने भी नहीं सोचा होगा कि महाभारत के संदेश का इस तरह चीरहरण होगा।

सत्ता पक्ष के या अन्य नेताओं ने कभी महाभारत या उसका अहम हिस्सा गीता पढ़ी होती तो उन्हें पता चलता कि श्रीकृष्ण ने महाभारत को दो धड़ों में बांटा था। उन्होंने अच्छाई और बुराई की साफ-साफ लकीर खींची थी। या तो आपको अच्छा चुनना था या बुरा। उसमें दोस्ती और दुश्मनी की स्पष्ट व्याख्या है। महर्षि वेदव्यास को पता नहीं था कि आगे चलकर उनके अच्छे-बुरे सिद्धांत की धज्जियां उड़ा दी जाएंगी। आज राजनीति के पेड़ से जो फल निकल रहे वे ‘निर्बीज’ हैं, संतति पैदा नहीं कर सकते।

महाभारत में जाति और लैंगिक भेद नहीं किया गया था, अब राजनीति में सब कुछ बांट दिया

महाभारत में जाति और लैंगिक भेद नहीं किया गया। एक अहम किरदार उभयलिंगी है तो स्त्री ही सत्ता का निर्माण और विध्वंस कर रही है। लेकिन, इस पेड़ से निकली राजनीति ने सब कुछ बांट दिया है। ये तेरे राज्य की द्रौपदी, ये मेरे राज्य की द्रौपदी। इस पेड़ से निकली राजनीति किसी द्रौपदी का सखा नहीं बनेगी। किसी द्रौपदी के लिए कृष्ण नहीं आएंगे।

राजनीति के इस पेड़ के नीचे वे भी आ गए जो कभी बुनियादे ढांचे की व्याख्या करते हुए कहते थे कि इसके साथ छेड़खानी न की जाए, अब इसके उलट तर्क दे रहे हैं। वे राज्यसभा में आने के बाद पहली बार बोले थे। नियम महाभारत में भी तोड़े गए थे, लेकिन अपवाद के तहत, अभ्यास के तहत नहीं। अब तो इस पेड़ के नीचे बना राजनीतिक गुरुकुल नियमों को तोड़ने का अभ्यास ही करवा रहा है। नियम तोड़ने में गुरु गुड़ तो चेला चीनी साबित हो रहे हैं। गुरु राजतिलक के लिए उन्हीं शिष्यों को चुनते हैं जिसने सबसे ज्यादा नियम तोड़े।

ये चंद उदाहरण हैं, पूरे देश में ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। देश की राजनीति का ऐसा मोड़ तो किसी ने सोचा भी नहीं होगा। महाभारत में अच्छा और बुरा तय करने के लिए कृष्ण को मानक माना गया था। आज इस देश के पास ऐसा कोई पंच-परमेश्वर नहीं है जो अच्छा और बुरा तय कर करे। जिन लोगों ने गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की मांग की थी उनकी कथनी और करनी देख कर लगता नहीं कि इन्होंने गीता कभी पढ़ी भी होगी।

समारोह में गीता का उपहार देना अलग बात है और उसे पढ़ना-समझना अलग बात है

विदेशी मेहमानों को, सभा-समारोहों में गीता का उपहार देना अलग बात है, किताबों की आलमारी में उसे सजा देना अलग बात है, व उसे पढ़ना-समझना तो एकदम अलग बात है। सत्ताधारी नेता जिस तरह महाभारत व गीता के अर्थ का अनर्थ कर रहे हैं उसे देख कर लग लग रहा कि अब ‘ग्रंथ बचाओ दिवस’ घोषित करना होगा। ग्रंथों के साथ जो ये नेता अनर्थ कर रहे हैं आने वाले समय में उसे ही अर्थ मान लिया जाएगा।

पहले पार्टी सदस्यता देने के लिए आवेदन मांगती थी, अब सिर्फ मिस्ड काल से बनते हैं सदस्य

जो राजनीति सभ्यता व संस्कृति के मूल में है वह गाफ नून अदब के पेड़ जैसी हो रही है। पहले राजनीतिक दल अपनी सदस्यता लेने के इच्छुक लोगों से आवेदन-पत्र मांगते थे। पूरी जांच-परख होती थी कि आवेदक वैचारिक रूप से हमारे दल के योग्य है या नहीं। अब कहते हैं फलां नंबर पर ‘मिस्ड काल’ दीजिए और हमारे सदस्य बनिए। बस आपका नंबर हमारे पास और हम आपको वाट्सएप राजनीति में ऐसा माहिर कर देंगे कि आप जनता का ‘ज’ भी बोलना भूल जाएंगे। आज इस देश के ज्यादातर राजनीतिक दलों का यही हाल है। वेदव्यास और चाणक्य बेदखल हैं। मैकियावेली कुछ विदेशी सा नाम है, मैं माफी मांग कर उसे खुद ही हटा देता हूं। क्योंकि नाम में…।

आज जो हो रहा है, उसे परिलक्षित करने के लिए पारंपरिक ‘राजनीति’ शब्द पूरी तरह से अयोग्य हो चुका है। तो क्या विश्वविद्यालयों में ‘कु-राजनीति विज्ञान’ के नाम से संकाय खोलने की विनती की जाए? क्योंकि नाम से ही काम का पता चल जाना अच्छा होता है।