बिहार में शराबबंदी कानून के उल्लंघन में जो लाखों की संख्या में मामले दर्ज हुए हैं उनका अध्ययन किया जाए तो एक वर्ग संघर्ष साफ दिख जाएगा। आरोप है कि बिहार में रसूखदार तबका शराब खरीदता भी है और पीता भी है, पर वो कानून उल्लंघन की जद में नहीं आता। इन दिनों इंटरनेट पर पटना की एक कथित तस्वीर ‘वायरल’ है जिसमें लोग शराबनोशी कर रहे हैं। हालांकि नीतीश कुमार सरकार शराब को स्त्री विरोधी मानती है लेकिन आरोपित तस्वीर में शराबनोशी में स्त्री-पुरुष का भी फर्क नहीं है। फर्क उन सुधीजनों के रवैए में है जो स्त्री-उत्पीड़न, सहमति के मुद्दे पर एक होकर मुखर थे, लेकिन आरोपित तस्वीर के कारण अब बिखर गए। आरोपी भी चुप, पीड़ित भी चुप। इस चुप्पी से ही वह शोर उठा, जो इस वर्ग का भयावह चेहरा उजागर कर रहा है, जहां सच पर खेमेबंदी का परदा है। शराब का सत्य सामने आने के बाद उत्पीड़न के खिलाफ ‘सत्याग्रह’ के बजाए चुप्पी चुनी गई। क्या साहित्यकारों की चयनित चुप्पी के बाद शराबबंदी को लेकर मुखर बिहार सरकार भी चुप रहेगी? सवाल पूछता बेबाक बोल।
जाहिद शराब पीने दे पटना में बैठ कर
या वो जगह बता जहां कानून नहीं…
समय और काल के हिसाब से बदलाव के लिए शायर से क्षमा के साथ बात आगे बढ़ाते हैं। मूल शायरी उस वक्त लिखी गई थी जब मस्जिद और धार्मिक कानून के जरिए ही राजनीति और समाज नियंत्रित होते थे। मस्जिद में शराब प्रतिबंधित है तो शायर मिर्जा गालिब का सवाल था कि वो जगह बताई जाए जहां खुदा नहीं है। शराब को लेकर भारतीय समाज में हमेशा से कशमकश रही है।
गालिब और इकबाल ने कही है मन की बात
गालिब के इस शेर का जवाब एक सदी बाद इकबाल ने कुछ इस तरह दिया था, ‘मस्जिद खुदा का घर है, पीने की जगह नहीं/काफिर के घर में जा वहां खुदा नहीं।’ इकबाल को जवाब देते हुए फराज कह बैठते हैं, ‘काफिर के दिल से आया हूं मैं ये देखकर/खुदा मौजूद है वहां, पर उसे पता नहीं।’ शराब को लेकर शायरों का यह तर्क-वितर्क इसलिए कि राजनीति से लेकर साहित्य का खेमा बिहार की ओर कूच कर चुका है। अभी सबसे ज्यादा वहीं से और वहीं की बात होनी है।
स्वयंभू घोषित प्रगतिशील खेमा कहता है कि प्रतिरोध साहित्य का मूल स्वर है। प्रतिरोध के बिना साहित्य के शब्द वैसे जीन संवर्धित बीज हैं जो दिखने में खूबसूरत लग सकते हैं, लेकिन किसी तरह की चेतना पैदा नहीं कर सकते हैं। गालिब के जरिए मध्यकालीन शायर के प्रतिरोध का स्तर देखिए। वह सत्ता और व्यवस्था को चुनौती देते हुए कह रहा है कि खुदा की निगहबानी तो हर जगह है। फिर मस्जिद में पाबंदी क्यों?
प्रेमचंद का बहुउद्धृत वाक्य है कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। प्रेमचंद जब बीसवीं सदी में यह लिख रहे थे तब उन्हें अंदाजा नहीं था कि समय आगे बढ़ता जाएगा और साहित्य की चेतना पीछे चलती जाएगी। इक्कीसवीं सदी का तो यह हाल है कि चुनाव के समय राजनीति को लेखकों की वैसे ही याद आती है जैसे महीने में पांच किलो राशन लेने वाली जनता की। जरा दिल्ली विधानसभा चुनाव को याद कीजिए। आम जनता को बिजली, पानी मुफ्त-मुफ्त की हांक लगाई जा रही थी। वहीं जिन लेखकों को राजनीति और जनता के बीच चेतना की अलख जगानी थी उनके लिए भी ‘थोक’ में पुरस्कार का एलान कर दिया गया। बीता साल, वर्तमान साल सबको एक साथ ‘निपटा’ दिया गया।
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फिर साहित्य वाली मशाल क्या करती? चेतना जागृत करने का बुनियादी काम तो करना था ही। 2014 के बाद बहुचर्चित हुई ‘पुरस्कार वापसी’ के खिलाफ ही चेतना जागृत की जाने लगी। ‘पुरस्कार वापसी’ को साहित्य का अपमान बताया जाने लगा। चुनाव दर चुनाव जब केंद्रीय सत्ता राज्यों में भी सफलता हासिल करती जा रही थी तो फिर सबसे अनावश्यक ‘प्रतिरोध’ को ही बता दिया गया। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, जिस तरह यह वैश्विक सत्य के रूप में स्थापित है, उससे बड़ा सत्य यह स्थापित किया गया कि सत्ता से पुरस्कार हासिल करना लेखक का बुनियादी अधिकार है। साहित्यकार और उसकी रचना को अलग-अलग कर देखने की सिफारिश है। प्रतिरोध लिखने वाले, प्रतिरोध करें जरूरी नहीं।
सत्ता और साहित्य का संबंध दिल्ली के बाद बिहार में गठबंधन कर चुका है। आने वाला चुनाव है तो बिहार में साहित्यकारों की बहार है। फिलहाल बिहार को हम सब किसलिए जानते हैं? विकास पुरुष नीतीश कुमार की अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है? कौन सी ऐसी चीज है जिसे बिहार की सत्ता ने स्त्री उत्पीड़न का सबसे बड़ा औजार करार दिया है? सब जानते हैं कि इसका एक ही जवाब है-शराब। शराबबंदी नीतीश कुमार का एक ऐसा फैसला रहा है जिस पर वे किसी भी कीमत पर ‘पलटने’ को तैयार नहीं हुए।
बिहार की सत्ता पर आरोप भी लगा कि इस फैसले की वजह से सबसे नुकसान कमजोर तबके के लोगों का हुआ है। शराबबंदी राज्य का मामला है। न तो पूरे देश में शराब पीना अपराध है और न नीतीश कुमार के इस फैसले के पहले बिहार में शराब पीना अपराध था। शराबनोशी भारतीय समाज का हिस्सा है। जाहिर सी बात है कि रातों-रात एक कानून बना देने के बाद लोग इससे विमुख नहीं हो जाएंगे। आरोप है कि इस कानून की वजह से कमजोर तबका नकली और जहरीली शराब की चपेट में आ गया।
आरोप है कि राज्य द्वारा शराबंदी घोषित होने के बाद बिहार में शराब की अवैध बिक्री पुलिस और तस्करों की मिलीभगत से हो रही है। दावा किया जा रहा है कि शराब की कालाबाजारी चालीस हजार करोड़ रुपए तक पहुंच गई है। मजबूत तबका इस कालाबाजारी का सूचकांक बढ़ा रहा है तो वहीं कमजोर तबका न्यायिक व्यवस्था की चपेट में है।
अदालतों में शराबबंदी के लाखों मामले लंबित रहने की स्थिति में अदालत ने भी इसे ‘न्याय का दम घोंटने’ वाला करार दिया। विभिन्न आंकड़े दावा करते हैं कि अप्रैल 2016 से 31 मार्च 2025 तक शराबबंदी कानून के उल्लंघन के आरोप में 14.32 लाख लोगों को गिरफ्तार किया गया। साथ ही आरोप है कि अप्रैल 2016 से लेकर वर्तमान तक जहरीली शराब से 190 लोगों की मौत हो चुकी है।
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बिहार में विपक्ष से लेकर अदालत तक ने इस कानून की समीक्षा की मांग इसी तर्क पर की है कि इससे सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब तबका हो रहा है। अवैध रूप से हासिल सस्ती शराब इन्हें जेल से लेकर मौत के मुंह तक पहुंचा रही है। अब बिहार में चुनाव है तो जाहिर सी बात है कि शराबबंदी का मुद्दा जोड़ पकड़ेगा। सरकार के इस फैसले के खिलाफ तर्क है कि यह कानून हाशिए के समाज के खिलाफ है। पिछले दिनों कुछ आरोप-प्रत्यारोप के बाद इंटरनेट पर एक तस्वीर ‘वायरल ’ हुई है।
इस तस्वीर में आरोप है कि पटना के एक घर में बैठ कर लोग शराब पी रहे हैं। कथित तस्वीर में शराब की बोतल खुली हुई है, शीशे के पारदर्शी गिलास में शराब बिहार की कथित शराबबंदी को बेपर्दा कर रही है। आरोप है कि तस्वीर में शराबनोशी कर रहे लोग किसी कामगार, मजदूर या हाशिए के अन्य वर्ग से नहीं आते थे इसलिए चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ है।
अभी हम इस कथित तस्वीर की पूरी सच्चाई नहीं जानते हैं। लेकिन इन दिनों इंटरनेट पर वायरल वीडियो और तस्वीरों ने ही इंसाफ की कई राह खोली है। अदालतों ने कई मामलों में स्वत: संज्ञान लिया है और कानून व्यवस्था की कलई खुली है।
बिहार की सत्ता से सवाल है कि क्या वह शराबबंदी कानून के उल्लंघन का आरोप लगाती इस तस्वीर पर स्वत: संज्ञान लेगी? इस तस्वीर के जरिए लगा आरोप आप की पूरी व्यवस्था पर सवाल उठा रहा है। तस्वीर आरोप लगा रही है कि बिहार में शराब की अवैध बिक्री इतनी वैध सी हो गई है कि रसूख वाले तबके की ऐसी तस्वीरें सामने आ भी जाएं तो पूरी व्यवस्था मुंह फेर लेती है।
शराब हमारे सामाजिक जीवन का हिस्सा बन चुकी है।
हमारी चिंता यह है कि रसूखदार लोग शराबबंदी के बावजूद ज्यादा कीमत देकर अच्छी गुणवत्ता की शराब पीकर अपने इस शौक को पूरा करते हुए महफूज रह सकते हैं। उस तबके का क्या जो अपनी कमजोर जेब के कारण नकली और जहरीली शराब का शिकार हो बैठता है? नीतीश कुमार की सरकार का आरोप है कि शराब पीने वाले स्त्री विरोधी हो जाते हैं और दावा किया कि शराबबंदी के बाद से स्त्री उत्पीड़न में कमी आई है। कृपया बिहार सरकार इस ‘चर्चित’ तस्वीर पर एक बार अपनी व्यवस्था के जिम्मेदारों से बात करे तो उसे इस सिद्धांत को लेकर और मजबूत तर्क मिल सकते हैं।
क्या बिहार की सत्ता चुनाव के इस मौसम में आरोपित तस्वीर की तह में जाएगी? इस आरोपित तस्वीर पर अगर नीतीश कुमार की सरकार चुप्पी साध जाती है तो फिर हम तुलसीदास को याद कर ही चुप हो जाते हैं। हम मान लेते हैं कि सुशासन की आड़ में वही मध्यकालीन राज है-समरथ को नहीं दोष गुसाईं।