कांग्रेस में पिछले दो दशक में संगठनात्मक चुनाव नहीं हुए हैं। भारतीय राजनीति में जब कोई दल लंबे समय तक सत्ता में रहता है तो संगठनात्मक स्तर पर लोकतांत्रिक कवायद से बेपरवाह हो जाता है। आलाकमान का वचन ही शासन होता है। कभी शीर्ष के बल पर शीर्ष में रखे गए नेता जितनी तेजी से कांग्रेस नेतृत्व पर आरोप लगा कर पार्टी को अलविदा कह रहे हैं उतनी तेजी से तो पार्टी में सुधार संभव नहीं दिखता। इन नेताओं ने 2014 से पहले लोकतांत्रिक कांग्रेस की मांग नहीं की थी क्योंकि इन्हें सत्ता में अहम भागीदारी मिली थी तो संगठन मजबूत करने की जिम्मेदारी शायद विपक्षी दलों का काम समझ लिया गया था। आज जब कांग्रेस में संगठनात्मक चुनाव का एलान हो गया है तो देखना होगा कि चिट्ठी-क्रांति करने वाला समूह चुनाव में भाग लेता है या चुनावी प्रक्रिया खट्टी है कह कर मुंह फेर लेता है। कल तक दरबारी का बिल्ला लगा रखे नेताओं के बागी बोल पर बेबाक बोल।
गुल भी मानिंद-ए-खार हैं अब तो
नंग-ए-फस्ल-ए-बहार हैं अब तो
– नामी नादरी
Congress party in trouble: कांग्रेस के लिए यह समय राजनीतिक विपन्नता का है। राजनीतिक शक्ति के संसाधन में वह अर्श से फर्श पर पहुंच चुकी है। जाहिर सी बात है कि यह समय पार्टी के उन लोगों के लिए बहुत कष्टकारी होगा जिन्होंने लंबे समय तक सत्ता का सुख भोगा है। अभी कांग्रेस महज दो जगहों पर सत्ता में है। पार्टी को अपने नेताओं के पास देने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है सिवाय संघर्ष के लिए उत्साहित करने के। लेकिन, संघर्ष शब्द आदर्श रूप से जितना आकर्षक लगता है, व्यावहारिक रूप से उतना ही मुश्किल।
केंद्र की सत्ता से बेदखल होने के बाद जितनी जल्दी जी-23 का जन्म हुआ वह उतना भी आश्चर्यजनक नहीं था। लंबे समय से जनता से दूर नेताओं के लिए सबसे आसान काम था, चिट्ठी लिख कर पार्टी आलाकमान से अपनी नाराजगी जताना। दूसरी ओर, सबसे मुश्किल काम था, जनता के बीच जाकर उनकी नाराजगी दूर करना। चिट्ठी लिखी गई, मीडिया को दी गई और बहुचर्चित हुई।
कांग्रेस को उपदेशों की झड़ी के साथ पार्टी छोड़ने वालों की लड़ी लग गई। जो कल तक खुद ‘राग दरबारी’ सप्तम सुर में गा रहे थे, आज वे कह रहे हैं कि कांग्रेस सुरक्षाकर्मियों (इशारा शायद केबी बायजू की ओर था जो राहुल गांधी की एसपीजी सुरक्षा के पूर्व सदस्य हैं) और चपरासियों के हवाले है।
जरा सोचिए, दरबार की सुरक्षित कुर्सियों पर बैठने वाले लोगों के लिए सुरक्षाकर्मियों और अन्य कर्मचारियों के लिए कितनी घृणा है। आज गुलाम नबी आजाद उस खेमे के मुरीद हो रहे हैं जिसने राजनीति में इसी कथित सामंती संभ्रांत मानसिकता को तोड़ा है। आजाद की सामंती सुर की भाषा ही उनकी अचकन पर लगा उनकी पहचान बताने वाला बिल्ला उचक-उचक कर दिखा रही है।
कपिल सिब्बल में भी आई थी बगावत की क्रांति
इसके पहले अपनी राज्यसभा की सदस्यता खत्म होते ही कपिल सिब्बल के अंदर भी बगावत की क्रांति आई और वे कांग्रेस को छोड़ कर समाजवादी पार्टी के कोटे से राज्यसभा सांसद बन गए। अभी हिमाचल प्रदेश कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती का मैदान है। वहां चुनाव आने वाले हैं और पार्टी को बहुत मेहनत करनी है। जाहिर सी बात है कि हिमाचल में कांग्रेस विपक्ष में है और वहां आम आदमी पार्टी का उभार तेजी से हो रहा है तो कांग्रेस को मुकाबले में रहने के लिए भी बहुत ज्यादा मेहनत करनी होगी। अब मेहनत करने से अच्छा है कि किसी भी तरह की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ो। आनंद शर्मा ने हिमाचल में चुनौतियों का हिमालय देख आरोप और उपदेश का आसान रास्ता चुना।
चुनावों में लगातार मिल रही पार्टी की हार के बाद मनीष तिवारी से लेकर आनंद शर्मा तक पार्टी के संगठनात्मक ढांचे से नाराज हैं। पार्टी के 23 वरिष्ठ नेताओं ने चिट्ठी लिख कर अपनी नाराजगी दिखाई। अब इनकी नाराजगी दूर करने का मौका आ गया है। कांग्रेस ने संगठनात्मक ढांचे में आम चुनाव का एलान कर दिया है। पार्टी का संदेश है कि लोकतांत्रिक तरीके से अध्यक्ष चुना जाए, चाहे वह राहुल गांधी हों या कोई और।
मनीष तिवारी से लेकर आनंद शर्मा तक नाराज
अब, वे सभी नेता जिन्हें लगता है कि राहुल इस जिम्मेदारी के योग्य नहीं हैं उन्हें अध्यक्ष-पद के लिए चुनाव लड़ना चाहिए। पार्टी के संविधान के मुताबिक पार्टी का कोई भी सदस्य चुनाव लड़ सकता है। अध्यक्ष पद के लिए इंदिरा गांधी तक को चुनौती दी भी जा चुकी है। सीताराम केसरी को शरद पवार और राजेश पायलट ने चुनौती दी थी। सोनिया गांधी को जितेंद्र प्रसाद ने चुनौती दी थी।
डूबती हुई नाव से सबसे पहले वही भागते हैं जिनमें जहाज खेने का जज्बा न बचा हो। अभी दरबारी पुराण छेड़ कर सवाल उठाने वाले लोग वहीं हैं जो नब्बे के दशक में मनमोहन सिंह के समय में कांग्रेस में उभरे। इन नेताओं का संबंध कभी भी जमीनी राजनीति से नहीं रहा है। इन सबने कांग्रेस की बनी-बनाई जमीन पर अपनी सुविधाजनक राजनीति की आलीशान इमारत बनाई। राहुल गांधी की अयोग्यता की दलील देने वाले सभी हुनरमंद नेता हैं जो कांग्रेस के आधार पर ही स्थापित हुए।
अब जब बना-बनाया आधार खिसक गया है तो इनके पास क्षमता नहीं है कि अपना आधार बनाने के लिए संघर्ष करें। कांग्रेस में लंबे समय से तो कोई आधार बनाने के लिए गया ही नहीं। आधार बनाने का सारा काम ऊपर से ही हुआ। ये सभी ऊपर से ही डाले गए नेतृत्व थे। नेतृत्व ने ही इन्हें उठा कर मंत्रिमंडल में लिया। ये हमेशा शीर्ष पर शीर्ष की बदौलत ही रहे। आज जब इनके पांवों ने जमीन मांगी तो हवा में लटकने का सारा दोष भी शीर्ष पर ही डाल रहे।
राहुल के पास ज्योतिरादित्य की तरह भाजपा में जाने की सुविधा नहीं
राहुल गांधी की दिक्कत यह है कि कांग्रेस की कमान उन्हें तब मिली जब यह चौतरफा संकटों से घिर चुकी थी। अब उनके पास तो ज्योतिरादित्य सिंधिया या जितिन प्रसाद की तरह भाजपा में चले जाने की सुविधा है नहीं। विरासती नेता का आरोप उन्हें झेलना है तो इस विरासत को दुरुस्त करने की जिम्मेदारी भी सिर्फ उन्हीं की मानी जा रही है। दूर से तो राहुल गांधी की कोशिश ऐसी टीम खड़ी करने की दिख रही है जो जमीन से जुड़ी हुई संघर्षशील हो। राहुल संगठन का ढांचा भी दुरुस्त करने की कवायद में दिख रहे हैं।
इन सब में सिर्फ आसमानी दलील वाले बेजमीनी नेता कहीं से भी योग्य नहीं ठहरते हैं। यहीं से विरोधाभास शुरू होता है। हर चुनावी हार के बाद नेताओं की पार्टी छोड़ने की सुविधाजनक दलील शुरू हो जाती है।
चाहे वे अशोक गहलोत हों या दिग्विजय सिंह, इन नेताओं में इस तरह का संकट नहीं दिखता है। सत्ता से दूर रहने की हताशा तो स्वाभाविक है लेकिन इनके पास अपनी बनाई जमीन है तो वापसी की उम्मीद भी रहती है। संकट में वे ज्यादा दिखे जो कांग्रेस की बनी-बनाई जमीन पर स्थापित किए गए। जो कभी सत्ता के गलियारे में आसमान से टपके और अब सत्ता के लिए कहां जाएं की सोच पर अटके हैं।
भाजपा लगातार दूसरी पारी खेल रही है और आगे भी उसका भविष्य उज्ज्वल ही दिख रहा है। चुनाव सुधार के नाम पर चुनावी चंदे का भी सीधा-सीधा नुकसान कांग्रेस को हुआ है। ये लोग वैसे शाही नेता हैं जिन्होंने कांग्रेस की गरीबी के दिन नहीं देखे थे। ऐसी स्थिति में चाहे कपिल सिब्बल हों या गुलाम नबी आजाद, अपनी राजनीतिक आकांक्षाएं पूरी करने के लिए पार्टी छोड़ना ही बेहतर समझ रहे हैं।
सांगठनिक चुनाव में हिस्सा बन दिखाएं गंभीरता
पार्टी के संगठनात्मक ढांचे पर सवाल उठा रहे नेता आगे नजीर तभी बनेंगे जब वे सांगठनिक चुनाव का हिस्सा बन कांग्रेस में सुधार को लेकर अपनी गंभीरता दिखाएं। अगर आपने इस मौके का फायदा नहीं उठाया और सिर्फ प्रक्रियागत दोष निकाला तो यही माना जाएगा कि आप कांग्रेस के बने रहने के खेल में हिस्सा नहीं लेना चाहते हैं, बल्कि उसका खेल ही खराब कर देना चाहते हैं। जैसे कि सारे विपक्षी दल चुनाव से पहले ही ईवीएम का रोना रोने लगते हैं। वहीं, दिल्ली व पंजाब में उनकी जीत हो जाती है तो फिर उन्हें विपक्ष में कोई खामी नजर नहीं आती है। यानी हार के पहले ही आरोपों का प्रहार करने का रास्ता आप बना लेना चाहते हैं।
कांग्रेस के बागी नेता संगठनात्मक चुनाव में हिस्सा नहीं लेते हैं तो यही माना जाएगा कि आप में और विपक्ष में इतना ही फर्क है कि वे पार्टी के बाहर हैं और आप अंदर। अगर आपने चुनावों में हिस्सा लिया और 23 वोट ही हासिल कर लिए तो भी आप अपनी चिंताओं को वैधानिकता दे पाएंगे। नहीं तो यही माना जाएगा कि आप कोई नया रास्ता नहीं बनाना चाहते, सिर्फ पिछले दरवाजे से कुर्सी, बंगला ही सुरक्षित रखना चाहते हैं।