बिहार के वृहत्तर गठबंधन को ‘सरकार बनते-बनते रहे गई’ वाला सांत्वना पुरस्कार तो मिला। लेकिन बंगाल में यह एका उतना आसान नहीं है। भाकपा माले नेता दीपांकर भट्टाचार्य प्राथमिक दुश्मन पहचानने की चेतावनी दे चुके हैं लेकिन बंगाल की राजनीतिक हिंसा की संस्कृति की अपनी जटिलता है। आज ममता को हराने के लिए भगवा झंडा हाथ में उठा जय श्रीराम का नारा देने वाले कई कार्यकर्ता माकपा के कैडर रहे थे। नंदीग्राम के बाद हुई हिंसा ने वहां की राजनीति का रुख मोड़ दिया और माकपा कार्यकर्ताओं ने जान बचाने के लिए वाम का साथ छोड़ राम को प्रणाम किया। बंगाल में सिद्धार्थ शंकर रे की अगुआई में कांग्रेस पर बड़े पैमाने पर राजनीतिक हिंसा के आरोप लगे थे। वहां के सत्तारूढ़ दल विपक्षियों पर हिंसा को अपना राजनीतिक अधिकार समझते रहे हैं। अब गठबंधन में वैचारिकी से ज्यादा बड़ा मामला अपना वजूद बचाने का है। बंगाल के राजनीतिक हालात में गठबंधन के सवाल पर बेबाक बोल

दिल्ली और पूरे देश से 294 भाजपा नेता पश्चिम बंगाल का रुख कर चुके हैं। ये लोग वहां के स्थानीय नेताओं के साथ मिल कर काम करेंगे। जल्द ही 2021 में बंगाल की 294 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव होंगे। भाजपा ने 200 से ज्यादा सीटों को जीतने की रणनीति के साथ अपने कार्यकर्ताओं में जोश भरने का काम शुरू कर दिया है। दिलचस्प है कि ममता बनर्जी की सरकार को उखाड़ फेंकने का नारा लगा रहे भाजपा कार्यकर्ताओं में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो कभी माकपा के कार्यकर्ता थे। माकपा की सत्ता उखड़ने के बाद ये न तो तृणमूल कांग्रेस में गए और न कांग्रेस में तो इसकी खास वजह रही है।

बंगाल अपनी राजनीतिक हिंसा के कारण भी जाना जाता रहा है। आम चुनावों के मसले के साथ यहां राजनीतिक पहचान की लड़ाई भी अहम है। तृणमूल कांग्रेस, वामपंथी दल और कांग्रेस। इन विरोधाभासी पहचानों के बीच कांग्रेस अपनी पहचान कैसे बनाएगी?

बिहार चुनाव में बने महागठबंधन और उसके प्रदर्शन के बाद एक सवाल लगातार बना हुआ है कि अब बंगाल में क्या होगा? इस सवाल को लेकर कांग्रेस और वाम दोनों के अंदर एक मंथन की स्थिति है। बिहार में वृहत्तर गठबंधन का वृत्त बंगाल आकर टेढ़ा-मेढ़ा हो जाता है। बिहार और बंगाल के हालात के बुनियादी अंतर को हम पहले भी रेखांकित कर चुके हैं कि वहां राजद पिछले डेढ़ दशक से सत्ता से बाहर था तो यहां ममता बनर्जी दस साल का शासन पूरा करने वाली हैं। यही वो अंतर है जो भाजपा को सबसे आक्रामक खिलाड़ी बनाने का मैदान तैयार कर चुका है।

बंगाल में सबसे बड़ी विडंबना से वाम जूझ रहा है। जनता के बीच तृणमूल को लेकर नाराजगी है। लेकिन बिहार में भाकपा माले नेता दीपांकर भट्टाचार्य कांग्रेस और वाम को चेतावनी दे चुके हैं कि हमें तृणमूल और भाजपा में अंतर करना ही पड़ेगा। प्राथमिक दुश्मन पहचानने का सवाल हवा में उछाल कर हवा का रुख तय करने की कोशिश की गई है। जब देश की राजनीति पर भाजपा का एकाधिकार सा हो रहा है उस हालात में दीपांकर की यह सलाह ऊपरी तौर पर भली लग कर तृणमूल कांग्रेस कम बड़ी दुश्मन दिख सकती है।

लेकिन बंगाल में जमीनी सच उतना आसान नहीं है। जिस माकपा कार्यकर्ता ने तृणमूल की और जिस तृणमूल कार्यकर्ता ने माकपा कार्यकर्ताओं की हिंसा झेली है क्या यह समीकरण उनके लिए उतना ही आसान होगा? आखिर किस तरह की राजनीतिक असुरक्षा का माहौल रहा होगा कि वाम कार्यकर्ताओं ने भगवा झंडा उठाने में भलाई समझी। जान बचेगी तभी तो कोई राजनीतिक विचारधारा रहेगी।

1972 में कांग्रेस के सिद्धार्थ शंकर रे के शासन के समय से ही हिंसा बंगाल की राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन गई। उस समय वामपंथी दलों के कई कार्यकर्ता अपनी जान बचाने के लिए अपना घर-बार छोड़ कर दिल्ली भाग आए थे। वाम दलों ने भी अपने शासन में इसका बदला लिया और नंदीग्राम के बाद से यह पहिया फिर घूमा। तृणमूल से राजनीतिक हिंसा की सीधी टकराहट के बाद माकपा के कार्यकर्ताओं ने अपना वजूद बचाने के लिए ‘जय श्रीराम’ का ही नारा लगाया। ‘पहले राम आगे वाम’ के नारे में राजनीतिक उग्रता को समझा जा सकता है।

वहां जो भी सत्ता में रहता है उस पर हिंसा के गहरे आरोप लगते हैं। आज जब भाजपा अपने कार्यकर्ताओं की राजनीतिक हत्या का आरोप लगाती है तो तृणमूल कांग्रेस के नेता सौगत राय इन आरोपों को फर्जी बताते हुए व्यंग्य में कह उठते हैं कि यहां कोई प्रेमी आत्महत्या कर लेता है तो उसे भी राजनीतिक मौत ही कहा जाता है। चाहे कांग्रेस हो, वाम या फिर तृणमूल, सत्ता में आने के बाद वह दल विपक्षियों पर हिंसा को अपना राजनीतिक अधिकार मानने लगता है।

इस तरह के हिंसक राजनीतिक माहौल में गठबंधन के वक्त कार्यकर्ताओं की भावनाओं की उपेक्षा आसान नहीं होगी। जिन कार्यकर्ताओं ने पीढ़ियों तक हिंसा झेली है, जो अपनी खेती और घर-बार से बेदखल हैं वे इतनी आसानी से उस पार्टी के साथ आने नहीं देंगे जिनके हाथ को अपने खून से सना हुआ समझते हैं।

ऐसे मुश्किल राजनीतिक हालात में जनता के असंतोष को लेकर कांग्रेस की रणनीति क्या हो सकती है? पिछले चुनाव के बाद वाम के कार्यकर्ता बड़ी संख्या में भाजपा में शामिल हो गए हैं तो इसे सिर्फ वैचारिक संकट के ही खाते में नहीं डाला जा सकता है। माकपा का कैडर अगर ममता को हराने के लिए भाजपा में शामिल हो रहा है तो समस्या विचारधारा से आगे की है।

कांग्रेस और वाम के सामने सबसे बड़ा संकट यही है कि राजनीतिक विचारधारा की उग्रता को लेकर दो ध्रुवीय चुनाव का माहौल बनाया जा रहा है ताकि बाकी के खिलाड़ियों के लिए कोई जगह ही न रहे। ममता बनर्जी भाजपा का भय दिखा रही हैं और भाजपा तृणमूल को लेकर आक्रामक है। बिहार में बनते-बनते रह गई सरकार वाला सांत्वना पुरस्कार लेकर बंगाल पहुंचे इन खिलाड़ियों के पास विकल्प बनने का उत्साह किसी तरह बचा रहे यह सवाल भी बहुत आसान नहीं है। और वो भी तब जब यहां लंबे समय से कांग्रेस पिछड़ती ही रही है।

एक समय स्थिति यह थी कि बंगाल में वाम सरकार थी और ममता बनर्जी राजग की हिस्सेदार बन केंद्रीय रेल मंत्री रहीं। आज के दौर में जब भाजपा विकल्प बनने की दमदार दावेदारी कर रही है तो क्या ममता बनर्जी वाम से गठबंधन करेंगी? बंगाल में मुसलमानों का वोट अहम है जो ममता बनर्जी को बांधे हुए है। उत्तर प्रदेश और बिहार के अलावा बंगाल एक और ऐसा राज्य है जहां मुसलमान वोट बैंक के रूप में हैं। कभी माकपा भी इसी के भरोसे ताकतवर थी। आज मुसलमान वोट न तो वाम के साथ है और न कांग्रेस के। अभी तक मुसलमान ममता के साथ हैं और वो उन्हें खोने के डर से भाजपा का डर दिखा रही हैं। ऐसी स्थिति में अगर व्यवस्था विरोधी माहौल बनता है तो यह बड़ा वोट बैंक किस तरफ जाएगा?

बंगाल के पूरे सियासी परिदृश्य में कांग्रेस और वाम के लिए अभी पूरी तरह से धुंध छाई हुई है। वहीं भाजपा को पूरा रास्ता साफ दिख रहा है कि उसे किस तरफ आगे बढ़ना है। बाकी दलों के पास भाजपा को रोकने की क्या रणनीति है उसमें कोई स्पष्टता दिखाई नहीं दे रही है। बहुत सारे विरोधाभासों के बीच एक बड़ा विरोधाभास धर्मनिरपेक्षता बनाम रोजी-रोटी का भी है। बिहार की तरह यहां रोजी-रोटी मुद्दा बन पाएगा कि नहीं यह देखने की बात है। लेकिन भाजपा ममता के खिलाफ धार्मिक पहचान के मुद्दे को पुरजोर तरीके से उठा चुकी है। रोजी-रोटी के सवाल पर भी ममता कमजोर पड़ती हैं तो उसका भी फायदा भाजपा को ही होता दिख रहा है।

कांग्रेस और वाम अभी पूरी तरह से सियासी असमंजस में हैं। अगर जनता इन्हें विकल्प के रूप में नहीं देखेगी तो ममता बनर्जी के खिलाफ पड़े वोट कहां जाएंगे? बंगाल की चुनावी बहस तृणमूल और भाजपा के इर्द-गिर्द ही सिमट गई तो कांग्रेस और वाम की बची-खुची जमीन भी चली जाएगी। इस खात्मे से बचने के लिए कांग्रेस और वाम को यह स्पष्टता लानी होगी कि इन्हें किससे और किस सवाल पर लड़ना है। इस स्पष्टता की अनुपस्थिति में एक विभाजित घटाटोप छाया हुआ है बंगाल में। अभी भी इससे नहीं निकले तो बंगाल में इसकी सबसे बड़ी शिकार कांग्रेस ही होगी अपने सियासी वजूद को खो कर। (क्रमश:)

सिद्धार्थ शंकर रे को कांग्रेस के संकटमोचक नेता का खिताब हासिल था। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के अलावा उन्होंने केंद्रीय मंत्री और राज्यपाल का पद भी संभाला था। आपातकाल लगाने के इंदिरा गांधी के फैसले पर उनका पूरा समर्थन था। बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष से लेकर नक्सलबाड़ी आंदोलन से निपटने में उनकी भूमिका रही। बंगाल में रे की सरकार पर बड़े पैमाने पर राजनीतिक हिंसा करवाने के आरोप लगे थे।