फिलहाल सबसे बड़ी खबर यह है कि अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर तालिबान का कब्जा हो गया है। अमेरिका जब तक अफगान के साथ था, उसने न केवल अफगानिस्तान की सेना को तैयार किया, बल्कि प्रशिक्षित किया और इसके लिए उसने अफगानिस्तान पर पिछले बीस साल में 5.59 लाख करोड़ रुपए खर्च भी किए। अमेरिका खुद भी अफगानिस्तान में काफी समय तक रहा, मगर जब राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपनी सेना की वापसी का ऐलान किया और अमेरिकी सेना की रवानगी होने लगी तब क्या कारण था कि तीन या साढ़े तीन लाख अफगानी सेना, जिसे हर तरह से अमेरिका ने बनाया था, सहारा दिया था, सिखाया था और उस पर पैसा खर्च किया था, उसी सेना ने मात्र सत्तर-पचहत्तर हजार तालिबानियों के सामने आत्मसमर्पण कुछ इस तरह कर दिया, जैसे ताश के पत्ते हवा के कारण गिर जाते हैं।
कह सकते हैं कि तालिबान के सामने एक तरह से अफगानिस्तान ने घुटने टेक दिए, वह भी बिना लड़े, बिना जोर अजमाइश के। हमारा ऐसा सोचना है कि अमेरिका का अफगानिस्तान से वापसी का जो निर्णय था, वह अफगान सेना के हौसले पस्त करने वाला था। जब तक वहां अमेरिकी सेना अफगानियों से कंधे से कंधा मिला कर लड़ रही थी, तब तक अफगानों के हौसले बुलंदी पर थे। पर अचानक अमेरिका के जाने की घोषणा के बाद अफगानों के हालात पस्त हो गए और वे घबरा गए शायद उन्हें अपनी पुरानी हार की भी याद आ गई शायद। इसलिए हम यही कहेंगे कि लगातार सक्रियता के साथ अफगान सेना अगर अमेरिका सेना के साथ मिल कर लड़ती तो अपने देश से तालिबान को भगा सकते थे। पर ऐसा नहीं हुआ। आज तालिबान के सामने अफगान सेना अपने को असहाय और अकेली मान रही है।
’मनमोहन राजावत ‘राज’, शाजापुर, मप्र