आशा शर्मा

आज वह देशभक्त दुनिया से चला गया। मैं नहीं जानता कि उसे देशभक्त कहा जाए या नहीं, क्योंकि न तो उसने कभी सीमा पर गोली खाई और न ही कहीं आतंकवादियों से लोहा लिया। उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया, जो देशभक्ति की पारंपरिक परिभाषा में आता हो। भविष्य में कभी कोई उसे याद करेगा, इसमें भी संशय है। तो फिर मैं उसे देशभक्त कह ही क्यों रहा हूं, जबकि हमारे दफ्तर में तो उसे ‘सिरफिरा’ ही कहा जाता था।

मैं जब शासकीय सेवा में भर्ती हुआ, तो मुझे उसके अधीन काम सीखने को कहा गया था। ‘सिरफिरे के अंडर कितने दिन टिक पाएगा।’ कोई हंसा था। कर्मचारियों की तिरछी मुस्कान से अनजान मैं अचरज में था। अभी कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन स्कूटर पंचर होने के कारण मैं सुबह जरा देर से पहुंचा। ‘आफिस का समय क्या है?’ उसने मुझे हाजिरी रजिस्टर में दस्तखत करते देखकर कहा। मेरे हाथ वहीं रुक गए और निगाह सामने दीवार पर लगी घड़ी पर जा टिकी। देखा तो साढ़े दस बज रहे थे। ‘जी, साढ़े नौ।’ मेरे मुंह से अटकते-अटकते शब्द बाहर आए। ‘साइन के नीचे टाइम लिख देना।’ उसने बिना मेरी तरफ देखे कहा। ‘लेकिन सर! आफिस में लगभग सभी लोग इसी समय आते हैं। बल्कि कल तो आप भी लेट आए थे।’ मैंने धृष्टता की। उसने एक पल मुझे घूरा और खुले रजिस्टर पर अपने नाम के पास अंगुली टिका दी।

मैंने देखा, कल उसकी आधे दिन की छुट्टी अंकित थी। मैंने अपने गाल पर तमाचा महसूस किया। उसके चैंबर से निकलते-निकलते मैं बुदबुदाया- ‘सिरफिरा’। वह सुबह ठीक साढ़े नौ बजे अपनी सीट पर मिल जाता। लंच का आधा घंटा छोड़ कर शाम छह बजे तक वह अपनी सीट पर ही मिलेगा। ऐसा नहीं कि काम के बोझ के चलते उसे सिर उठाने तक की फुर्सत नहीं है, काम तो वैसे भी सरकारी दफ्तरों में बचा ही कितना है। अधिकतर काम तो ठेके पर दे दिए जाते हैं। सरकार का काम केवल उनकी निगरानी करना बचा है। बस, उसी निगरानी का हिसाब-किताब रखने के लिए सरकार ने इतने बड़े-बड़े महकमे खोल रखे हैं।

ठेकेदारों की एमबी इसी सिरफिरे की पैनी निगाहों से होकर गुजरती है। इतनी बारीकी से छानबीन होती है कि पूछिए मत। क्या मजाल कि एक सिलवट भी कहीं रह जाए। और हो भी क्यों नहीं? सारा दिन सीट से चिपका वह आखिर करे भी तो क्या? पहाड़-सा दिन किसी तरह तो कटे।

मैं उसके साथ रह कर बहुत अच्छी तरह मंज गया था। थोड़ी-सी हेराफेरी भी तुरंत ताड़ लेता था। ठेकेदारों से कैसे काम करवाना है, यह भी मैं अच्छी तरह समझ गया था। नतीजतन, नौकरी के केवल सात सालों में ही मेरे पास अपना घर और गाड़ी थी। सिरफिरा आज भी अपनी उसी पुरानी साइकिल से आफिस आता, जिस पर सात साल पहले मैंने उसे देखा था।

‘बेचारा! अपनी प्रतिभा का ठीक से दोहन भी नहीं कर पाता।’ मैं उसे देखकर कुछ ऐसा ही सोचा करता था। समय के साथ मैं भी एक आम सरकारी कर्मचारी बन गया था। सुबह साढ़े दस बजे दफ्तर आकर भी मैं जैसे सरकार पर कोई अहसान करता था।

दोपहर एक बजे से तीन बजे तक तो अघोषित लंच होता ही था, शाम को भी पांच बजे मेरा बैग बंध जाता था और उसके बाद आधा घंटा दोस्तों के साथ बैठ कर सरकार और अधिकारियों को वेतन और सुविधाओं की कमी के नाम पर कोसना मेरी दिनचर्या का आवश्यक हिस्सा था। कभी-कभी जब उससे सामना हो जाता तो पता नहीं क्यों, लेकिन मैं ग्लानि से भर उठता था। उससे आंख मिलाने की मेरी हिम्मत नहीं होती थी।

जबसे सरकार ने आम जनता को ‘सूचना का अधिकार’ नाम का हथियार दिया है, तबसे नेता किस्म के लोग अफसरशाही पर हावी होने लगे हैं। आए दिन अखबारों में फंसे अधिकारियों-कर्मचारियों के समाचार छपते रहते हैं। मुझे तो इसमें आरटीआइ कार्यकर्ताओं की साजिश ही नजर आती है, लेकिन उसे लगता है कि सारी व्यवस्था ही भ्रष्ट है।
‘तुम पर कुछ लोगों की निगाह है।

संभल कर रहना। जरा-सी लापरवाही तुम्हें भारी पड़ सकती है।’ एक दिन मुझे उसने चेताया। मैं सचमुच डर गया, क्योंकि इन दिनों मैं जरा ज्यादा ही खुलकर खेलने लगा था। उसकी सलाह मानकर मैंने कुछ दिन किसी भी तरह के र्भ्ष्टाचार से परहेज रखने का निर्णय लिया। कोई प्यार से या जबर्दस्ती देने की कोशिश भी करता तो मैं विनम्रता से इनकार कर देता। इन सबका सकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि रात को नींद की गोली खाकर भी करवटें बदलने वाला मैं बिना गोली ही सपट नींद सोने लगा। इतना तनाव मुक्त मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था।

‘अच्छा कर रहे हो। बस थोड़ी-सी समय की पाबन्दी भी कर लो तो और अच्छा हो जाएगा।’ एक रोज उसने पीठ पर हाथ रखते हुए मुझे शाबाशी दी। मैंने मुस्कुरा दिया।

‘सुबह साढ़े नौ बजे से लेकर शाम छह बजे तक का हमारा समय सरकार के पास गिरवी है। इसी बात की तो तनख्वाह लेते हैं हम। समय पर आकर किसी पर अहसान नहीं करते, बल्कि एक तरह से देशसेवा ही करते हैं। कोई क्यों हमारे इंतजार में अपना कीमती समय बर्बाद करे?’ उसने आगे कहा। मैं देशसेवा की उसकी परिभाषा जानकर हैरान था।

हालांकि यह मेरे लिए आसान नहीं था, लेकिन फिर भी मैंने उससे अपनी इस आदत को सुधारने का वादा किया और उसे निभाया भी। इसका असर यह हुआ कि कुछ ही दिनों में दफ्तर में मुझे ‘दूसरा सिरफिरा’ कहकर मेरा मजाक उड़ाया जाने लगा। इन सबसे बेखबर आजकल मुझे भी यह देशसेवा सुहाने लगी थी।

वह जनवरी की बेहद ठंडी सुबह थी। इसी महीने शहर का स्थापना दिवस भी मनाया जाता है। हर साल इस अवसर पर जिला प्रशासन द्वारा कुछ विशेष व्यक्तियों को सम्मानित किया जाता है। यों तो वह एक अदृश्य कर्मचारी कहा जा सकता है, लेकिन चूंकि इसी साल वह सेवानिवृत्त होने वाला था और विभाग उसके प्रति अपना कर्ज चुकाने का मानस बना रहा था इसलिए विभाग ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री करते हुए विशिष्ट सम्मान के लिए उसके नाम की अनुशंसा जिला प्रशासन को कर दी, जो कि स्वीकार कर ली गई।

इस साल उसे नगर स्थापना दिवस के अवसर पर जिला प्रशासन द्वारा सम्मानित किया जा रहा है, यह खबर फैलते ही उनके पास बधाइयों का तांता लग गया। विनम्रता से दोहरा होता वह सबकी शुभकामनाएं स्वीकार कर रहा था। जिंदगी में कभी देर से दफ्तर न पहुंचने वाला वह उस दिन भला कैसे लेट हो सकता था। वह सुबह जल्दी ही तैयार होकर समारोह के लिए निकल गया। आज उसकी विशिष्ट देशसेवा को मान जो मिलने वाला था। मैं भी समारोह स्थल पर पहुंच गया। सबसे अधिक तालियां मैं ही बजाने वाला था। मैंने तो व्यक्तिगत रूप से उसे भेंट देने के लिए खादी की खूबसूरत शाल भी खरीद ली थी।

कार्यक्रम शुरू हो चुका था। सामान्य औपचारिकताओं के बाद एक-एककर सम्मानित होने वाले अतिथियों के नाम पुकारे जा रहे थे। उनके स्टेज पर आने तक संचालक महोदय माइक पर उनकी महिमा का बखान किए जा रहे थे। जैसे ही उसका नाम पुकारा गया, मैं जोश में आकर तालियां बजाने लगा, लेकिन यह क्या? बार-बार नाम पुकारे जाने के बाद भी वह स्टेज की तरफ आता दिखाई नहीं दिया। मेरी निगाह अतिथियों के लिए विशेष रूप से तैयार की गई दीर्घा की तरफ उठी, पर उधर भी कोई हलचल नहीं थी।

मेरे मन में हलचल मची हुई थी। कभी एक मिनट की भी देरी नहीं करने वाला व्यक्ति अपने इतने महत्त्वपूर्ण अवसर पर देरी कैसे कर सकता है? तभी सबने देखा कि वह मंच के सामने से हांफता-दौड़ता किसी तरह अपने आपको लुढकाता हुआ ला रहा है। मेरे चेहरे पर संतुष्टि की चमक बिखर गई।

संचालक महोदय एक पल को ठिठके और फिर मुस्कुराते हुए उसका नाम दुबारा पुकारा। जिले के प्रभारी मंत्री के हाथों पुरस्कार लेते हुए उसने गर्व से माथा उठाते हुए भीड़ की तरफ निगाह डाली, जो मुझ पर आकर स्थिर हो गई। हमारी आंखें टकरार्इं और मैंने अंगूठा दिखाते हुए हाथ हवा में लहरा दिया। तभी अचानक वह लड़खड़ा कर गिर गया। सब अवाक खड़े देखते रह गए और वह अनंत यात्रा पर चला गया।

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से पता चला कि उसकी दिल की धड़कन रुक गई थी। असल कारण जानने के लिए मैं गाड़ी उठाकर उस के घर की तरफ भागा। बेटे ने बताया- ‘पापा समारोह के लिए घर से निकल ही रहे थे कि देखा तो उनकी साइकिल पंचर पड़ी थी।

मैं उन्हें मोटरसाइकिल पर बिठाकर ले जा रहा था, लेकिन सामने रेलवे क्रासिंग लगी हुई थी। पापा को देर हो रही थी, इसलिए पैदल ही समारोह के लिए चल दिए। मैंने कहा भी कि जरा-सी देर होने से क्या फर्क पड़ता है, लेकिन वे तो समय की पाबंदी को देशसेवा ही मानते थे।

उन्होंने मेरी एक न सुनी और समय बचाने के लिए दौड़ने लगे। समारोह में तो वे समय पर पहुंच गए, लेकिन उनका बूढ़ा दिल शायद अपने ऊपर इतना दबाव झेल नहीं पाया और…’ शेष शब्द हिचकियों के हवाले हो गए। मैंने अपने साथ लाई हुई शॉल उसके पार्थिव शरीर पर ओढ़ा दी। अंतिम नमन करते समय मेरे मुंह से निकला- ‘सिरफिरा’।