रंगमंच की दुनिया सिकुड़ रही है, हर कोई सिनेमा की तरफ भाग रहा है, थिएटर मर रहा है, जैसे जुमले आए दिन सुनने को मिलते हैं। थिएटर में बुनियादी सुविधाओं के अभाव और सरकारी उदासीनता, दर्शकों में पैसा खर्च कर नाटक देखने की प्रवृत्ति का विकास न हो पाने जैसी मुश्किलों का हवाला भी दिया जाता है। पर हकीकत यह है कि थिएटर आज भी कुछ रंगकर्मियों के जुनून के बल पर जिंदा है और विकसित हो रहा है। छोटे-छोटे शहरों और कस्बों में भी ऐसे अनेक प्रतिबद्ध रंगकर्मी हैं। ऐसे जुनूनी रंगकर्मियों और कस्बाई रंगमंचों को एक उम्मीद भरी नजर से देख रहे हैं सत्यदेव त्रिपाठी।

जीवन के हर क्षेत्र की तरह रंगकर्म में भी जबर्दस्त बदलाव आए हैं, पर अगर मूलत: अशिक्षितों-पिछड़ों के लिए खासतौर पर बनी है यह दृश्य-श्रव्य विधा, तो बडे शहरों के समक्ष छोटे शहरों और गांवों का रंगकर्म नितांत पिछड़ी-सी स्थिति में रहा है। ऐसे में इसका अविराम चलना और आज इधर एक-डेढ़ दशक से नियमित और काफी बेहतर काम करना सिद्ध करता है कि छोटे शहरों की रंगमंडलियों का यह रंगकर्म साधनहीन साधना का बड़ा रंगकर्म है।
और रंगकर्म कर रहे गांव तो अपवाद ही होंगे। छोटे शहरों में होते रंगकर्म का औसत फीसद भी कुल के मुकाबले बीस से भी काफी कम होगा, पर बावजूद इसके यहां होते रंगकर्म आज भी उस बीज की तरह हैं, जिसमें उगे पौधे ही कहीं और रोपे जाकर लहलहाती फसल बनते हैं… सत्यदेव दुबे बनते हैं, हबीब तनवीर बनते हैं…।  बस, आज साफ-साफ दिख रहा है यह बदलाव कि ‘राडा’ से लौट कर अपने छत्तीसगढ़ में जाकर काम करने वाले हबीब तनवीर और मणिपुर में ‘थिएटर गांव’ बसाने वाले रतन थियम की जमात कुछ बढ़ रही है और मुंबई जाकर ‘बहुरि ना आवना या देस’ की मानिंद फिर कभी अपने रायपुर न आने वाले सत्यदेव दुबे और दिल्ली-भोपाल में अटक जाने वाले बव कारंत की जमात कुछ घट रही है।

तब तो यह तय था कि मुंबई न जाते, तो दुबेजी ‘पंडित सत्यदेव दुबे’ न बन पाते। लेकिन एनएसडी की फाइनल परीक्षा देकर प्रमाणपत्र लेने के पहले ही मुंबई का टिकट कटा लेने (कहीं फिल्म-टीवी में उसी दिन होने वाले चयन से वंचित न हो जाएं) वाली दो दशक पहले की पीढ़ी को अपने गृहनगरों में लौट कर आने वाली आज की जमात जवाब देने को तैयार है, जिसका परिणाम तो अभी आने वाला समय बताएगा। लेकिन यह सवाल आज भी बड़ा बना हुआ है कि लौट कर जो हबीब तनवीर और रतन थियम बने, वह बिना गए यहीं रह कर बन सकते थे क्या?… और सवाल का लखपती विस्तार यह कि छिहत्तर साल की आजादी के दौरान कलाओं की उन्नति-प्रगति का बीड़ा उठाए इस देश में तनवीरों को हबीब और थियामों को रतन बनने के लिए कब तक गृह-नगरों से बाहर जाना पडेगा…? इसी सवाल के तहत यह भी सच है कि आमद के बावजूद रंगकर्मियों का पलायन भी थोड़ा कम जरूर हुआ है, पर रुका नहीं है। और यह दशा थिएटर की ही नहीं, हर क्षेत्र की है। जिस तरह पलायन के चलते अच्छे और कुशल लोगों से खाली हैं गांव, पर उतने ही खेतों में आज पैदावार बीस गुना बढ़ गई है, उसी तरह ‘रंगसमूह’ चलाने वाले बहुतेरे लोगों का संजयों की तरह भोपाल में ‘उपाध्याय’ और वामनों की तरह दिल्ली में ‘केंद्रे’ बन जाने के बावजूद छोटी जगहों का रंगकर्म बीस-तीस न सही, लेकिन दस-पांच गुना अवश्य बढ़ा है। ऐसा होने के कई कारणों में छिहत्तर साल की आजादी के दौरान कलाओं के विकास की योजनाओं के किंचित योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता, लेकिन बकौल पुंजप्रकाश (दस्तक रंग समूह, पटना) ‘इसका असली कारण तकनीक और मीडिया से ‘केंद्रित’ नया रंगकर्मी है, क्योंकि हमारी पीढ़ी को एनएसडी के बारे में जानने में भी सालों लग गए थे।’

और ‘इनफॉर्म्ड पब्लिक इज अ वाइज पब्लिक’ को साबित करता छोटे शहरों का यह नया रंगकर्मी अमूमन पहले वालों की तरह न भावुक है, न आदर्शवादी। वह बहुत हद तक व्यावहारिक है। उसे थिएटर से समाज में क्रांति लाने का मुगालता नहीं, जिसमें बह कर तब के कई रंगकर्मियों ने जिंदगियां तबाह कर लीं। इसीलिए वह दुबे, तनवीर, कारंत और थियम से अधिक और नसीर-ओम पुरी की, बल्कि उनके बाद के अब उनसे भी अधिक इरफान और नवाजुद्दीन की सफलता और लोकप्रियता से प्रेरित-संचालित है। वह बड़ा जीवट और जुझारूपन लेकर इस थिएटर के रणक्षेत्र में उतरा है, तो क्या फर्क पड़ता है अगर आने वाला समय उसके व्यावहारिक होकर बुने ख्वाब की ताबीर न करके उसे वंचित ही कर दे…!!

जागरूकता और विश्वास के बावजूद

इस जागरूकता और विश्वास के बावजूद उन्हें मिली हुई जो स्थितियां हैं, उनमें ‘सुर-नर-मुनि द्वारा ओढके मैली कीनी चदरिया’ को जस की तस ही रख दिया गया है। इस तरह की जिन बातों पर एक मत हुआ जा सकता है, उनमें सभागार और अभ्यास-स्थल का अभाव सबसे प्रमुख है। पटना के ‘कालिदास रंगालय’ जैसे या इससे कुछ बड़े-छोटे और बने-बिगडेÞ हॉल सभी शहरों में हैं, पर वही कि अद्यतन तो क्या, निम्नतम संसाधन-सुविधाओं से भी महरूम हैं। मनोज मिश्र (मंडप समूह, रीवां) के शब्दों में ‘नाटक कितना भी यथार्थवादी कर लिया जाए, माइक तो ऊपर ही लटकाना पड़ेगा।’ आजमगढ़ में पुराने ‘हरिऔध कला भवन’ के नाकाम हो जाने और नए के तैयार न होने के बीच ‘सूत्रधार’ के लिए पंडित अभिषेक-ममतादि को बंद पड़े- ‘मुरली’ टॉकिज के एक हिस्से में कैसे-कैसे थिएटर करना पड़ता है, का पीड़ानंद वही जानते हैं। अभ्यास के लिए पेड़ों की छांव से लेकर रोजाना कक्षा की कुर्सी-टेबल उठाने-रखने की वर्जिश के साथ उस स्कूल के बच्चों को प्रशिक्षित करने की ‘बेगार’ भी उठाने के बीच झूल रहे वही हालात हैं, जिसमें नाट्यकर्मी द्वारा बदलाव की कोशिश करना ऊंचे लगे फल के लिए हाथ उठाने वाले बौने जैसा ही होगा। और सरकार अपनी बंधी-बंधाई फाइलों की इबारतों के आगे कब सोचने वाली? सो, यह समस्या सनातन-सी है।
लेकिन थिएटर करने के लिए आर्थिक अभाव को लेकर छोटे शहरों का रंगकर्मी आज पहले की तरह परेशान नहीं है। जगजाहिर आधार तो आज सरकारी अनुदान ही हैं, जिन्हें थोड़ा भी सक्रिय और चैतन्य कर्मी आज पा लेता है और जुगाडू हुआ तो पूछना ही क्या! दलालों (जो इसी दौर की उपज हैं) की मार्फत गांज ही लेगा। लेकिन सराहनीय विकास ऐसा है कि आज के जहीन रंगकर्मियों ने अच्छे और रंगमंचीय रास्ते खोज और बना लिए हैं। इससे बड़े नाट्योचित विकास हो रहे हैं। लोग रंगमंच नाम की चीज से परिचित और मुतासिर होने लगे हैं, मौजूदा मंजर में बड़े शहरों की तरह बड़े-बडेÞ उद्योग प्रतिष्ठानों जैसे प्रायोजक न सही, ठीकठाक अर्थ-सहाय से लेकर नाट्योत्सवों में आने वालों के आवास-आतिथ्य के इंतजाम जैसे सहयोग आसानी से मिलने लगे हैं। यह बड़ा पारस्परिक भी है- रंगकर्मी का अच्छा काम, तो सहृदय द्वारा उसका वाजिब सम्मान।

अभावों के बीच

अपनी सूचना-सीमा में दो उल्लेखनीय उदाहरण देना चाहूंगा। रींवा में रामलीला के छह प्रसंगों के तीन दिनों में किसी भी दिन तीन लाख से कम चढ़ावा न आया। माना कि यह जादू धार्मिक विश्वास का है, पर विशुद्ध थिएटर के प्रति भी ऐसी आस्था पैदा हो, तो पैसे ही पैसे हैं इस देश की छोटी से छोटी जगहों पर भी…। और रंगकर्मियों ने इस दिशा में ले जाने की सक्षमता भी दिखाई है। दूसरा है सीधी में, जहां के प्रखर रंगकर्मी रोशनी प्रसाद मिश्र (इंद्रावती नाट्य समिति) ने बताया कि उनके लगभग तीस-पैंतीस कलाकारों के रंगमंडल में दस लोग शहर के बाहर ही नहीं, जलगांव (महाराष्ट्र) और कानपुर जैसे शहरों के भी हैं। ये लोग वहीं रह कर नियमित रूप से नाटक कर रहे हैं। एक हॉलनुमा बड़े कमरे में सबके रहने की व्यवस्था है। खाने का प्रबंध बाहर के शो की आमदनी से रंगमंडल करता है। बनाने का काम वे लोग खुद कर लेते हैं। इस तरह आर्थिक स्थिति से निपटने के कई सरंजाम हो पा रहे हैं। एक-दूसरे के नाट्य-समारोहों में निशुल्क आ-जा कर नाट्यकर्म को सही ढंग से आगे बढ़ाने के पारस्परिक कार्य तो कुछ पहले से भी होते आ रहे हैं।
लेकिन अर्थव्यवस्था अच्छे थिएटर की कारक भले होती हो, उसकी सार्थकता दशकों के होने में निहित होती है। सरकारी अनुदान हों या प्रायोजक, वे पैसे देंगे, दर्शक नहीं। पर सुखद है कि आज छोटे शहरों में भी आबादी के अनुसार तीन सौ से लेकर एक हजार तक के दर्शक आमतौर पर आ जाते हैं। वह दर्शक इतना अनुशासित भी हुआ है कि आजमगढ़ जैसी छोटी-सी जगह पर हुए ‘संगीत नाटक अकादेमी’ के लोक-नाट्योत्सव में लगभग दस हजार की जनता भी बिना किसी बदमजगी के इतने सलीके से लुत्फ लेती पाई गई कि छोटे शहरों के रंगकर्म को सलाम करने के लिए बरबस उठ गए हाथ..।
पर और यह ‘पर’ बहुत अहम है कि स्थायी रूप से चलने के लिए रंगमच का पेशेवर होना आदर्श स्थिति है, जो टिकटों से आए पैसों के बिना नहीं बन सकती। छोटे शहरों में इसका अभाव आज भी नब्बे फीसद तो वैसा ही है, खासकर उत्तर भारत के शहरों में, जैसा पहले था। गौरतलब है कि बडेÞ शहरों- मुंबई जैसे महानगरों- में शनि-रवि के दिन पांच सौ रुपए के टिकट आम हैं, अक्सर ज्यादा भी होते हैं। अभी रेकॉर्डतोड़ रेकॉर्ड बनाया है ‘मुगल-ए-आजम’ के लिए फिरोज अब्बास खान ने बारह सौ से दस हजार रुपए के टिकट बेच कर। हालांकि यह नाटक क्या, किसी भी कला के लिए कतई स्वास्थयवर्धक नहीं है। पर महत्त्वपूर्ण यह है कि इसके समक्ष छोटे शहर के रूप में पटना के एक शो के लिए कुल बिक्री के अधिकतम रेकॉर्ड की खबर बाईस हजार की आई, जो सागर में बूंद भर ही हो शायद। पर जब तक नब्बे फीसद दर्शक टिकट लेकर नाटक देखने नहीं आएंगे, न थिएटर के वर्तमान को स्थायी कहा जा सकेगा, न भविष्य को उज्ज्वल। इसके लिए प्रयत्न करना, दर्शकों में टिकट लेकर ही नाटक देखने के संस्कार पैदा करना छोटे शहरों के रंगकर्म के लिए बहुत जरूरी और बड़ी चुनौती है।

उम्मीद की सूरत

इस चुनौती से पार पाने की उम्मीदें आज बढ़ी हैं, जिसका आधार ऊपर कहा वही केंद्रित रंगकर्मी है। थिएटर का यह सबसे प्रमुख स्तंभ छोटे शहरों में इधर बहुत पुख्ता हुआ है। इनकी रंगमंडलियों में अब पहले की तरह गिनती और भर्ती के अनियमित और बिखरे पचासों सदस्यों के बदले तीस-पैंतीस ऐसे सन्नद्ध रंगकर्मी हैं, जिनमें लगभग सत्तर फीसद लोग एक-एक दशक से स्थायी तौर पर जुट कर काम कर रहे हैं। उनके पास थिएटर कैसा हो और वैसा थिएटर कैसे बने, के अपने स-तर्क सोच और विधान हैं, जिसमें प्रशिक्षित कलाकार की अवधारणा नंबर एक पर है। यह सुपरिणाम है नाट्य-प्रशिक्षण के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थानों के योगदान का। अभिषेक पंडित के अनुसार इस प्रवृत्ति को छोटे शहरों की रंगमंडलियां आज आगे बढ़ा रही हैं- अपने कलाकारों के लिए खासतौर पर विशेषज्ञों द्वारा कार्यशालाएं, व्याख्यान और खेले जा रहे नाटकों पर विमर्श और सेमिनार आदि के आयोजनों से। यह उनकी जरूरत तो है ही, उनका सोच और कार्यशैली भी बन गया है।
जरूरत तो कलाकरों के अभिभावकों को भी प्रशिक्षित करने की है। अगर मेडिकल और इंजीनियरिंग आदि की तीन-तीन, चार-चार साल की पढ़ाई होती है, उनमें लाखों के खर्च ही नहीं, भारी दान भी देने होते हैं, तो नाटक करने आया बच्चा, जब सीखने के लिए पहले नाटक में ही काम करता है, तो पारिश्रमिक पाने की उम्मीदें और इसके लिए शिकायतें क्यों होती हैं? उन्हें प्रशिक्षित करने से जो समझ और जागृति आएगी, उससे लड़कियों को नाटक करने के लिए भेजने में आज भी जो शर्म-संकोच है, वह हटेगा और तब स्त्री कलाकर की आज की काफी असुलभता भी दूर हो सकेगी।
इससे ज्यादा जरूरत देश की शिक्षा-व्यवस्था को भी अवगत कराने की है कि अगर चित्र-संगीत आदि कला माध्यम सिखाए जाते हैं, तो व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करने वाली नाट्य कला को नियमित पाठ्यक्रम का हिस्सा क्यों नहीं बनाया जाता? केंद्रीय विद्यालयों में ऐच्छिक विषय के रूप में इसे शामिल किया गया है, पर जरूरत है अनिवार्य बनाने की, ताकि सभी छात्र इसे पढेÞं, लाभ उठाएं और थिएटर भी ज्ञान की अविभाज्य शाखा के रूप में जन-जन तक पहुंचे, इसे लेकर तमाम दकियानूसी धारणाएं खत्म हों और नाट्य-कला के शिक्षितों के लिए रोजगार पाने का एक और सदर दरवाजा भी खुले…।
छोटे शहरों की रंगमंडलियों के ये सारे सोच और कार्य हो तो अलग-अलग शहरों में रहे हैं, पर सबको मिला कर देखते हुए यह एक आंदोलन तो नहीं, सुनियोजित प्रयत्न की ऐसी छाप छोड़ता है, जिससे अगर फेसबुकी और यू-ट्यूबी संस्कृति के दुष्प्रभावी प्रदूषण से बचा, तो मुकम्मल उम्मीद ही नहीं, काफी हद तक यकीन भी होता है कि इंशाअल्ला, ऐसा होगा।…. ०