पिछले सप्ताह फिर आई सालगिरह उन चार डरावने दिनों की, जब जिहादी आतंकवादियों ने मुंबई में पाकिस्तान से आकर इंसानों का शिकार किया था। फिर उन लोगों की याद में लेख छपे, जो जिहादियों की गोलियों से मारे गए थे। फिर राजनेताओं ने औपचारिक तौर पर श्रद्धांजलि अर्पित की उन बहादुर लोगों को, जिन्होंने अपनी जान देकर बेगुनाह लोगों की जानें बचाई थीं सोलह वर्ष पहले। फिर भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व सिपाहियों ने याद दिलाया कि जब 26/11 वाली घटना घटी थी, तो कांग्रेस के आला नेताओं ने इस घिनौने अपराध का दोष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगाने की कोशिश की थी। फिर तस्वीरें छपी अखबारों में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री और मंत्री, दिग्विजय सिंह की उस किताब का विमोचन करते हुए, जिसका शीर्षक था ‘26/11: आरएसएस की साजिश’।

तुकाराम ओम्बले की वीरता और उसकी याद

इत्तिफाक से नवंबर 27 को मैं उस जगह से गुजरी थी, जहां तुकाराम ओम्बले नाम के एक बहादुर पुलिसवाले ने अपनी जान देकर अजमल कसाब को पकड़ा था। इत्तिफाक से मेरी गाड़ी जो चला रहा था मराठी था, तो मैंने उससे पूछा कि ओम्बले की कुर्बानी को याद करते हैं क्या मराठी लोग। उसने कहा, ‘हां करते हैं। वहां उसकी प्रतिमा लगी हुई है। उस पर कल पुलिसवालों ने फूलों की मालाएं चढ़ाई थीं और उसकी याद में यहां परेड भी किया था’। इस बात को सुन कर मुझे एक अजीब उदासी महसूस हुई, इसलिए कि याद आया कि साल में एक बार इस वीर को याद करना किसी भी तरह से काफी नहीं है। उससे ज्यादा याद किया जाता है उन लोगों को जिन्होंने ताज होटल और छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन पर लोगों को बचाया था। माना कि वे सब बहादुर वीर हैं, लेकिन मेरी राय में ओम्बले ने जो वीरता दिखाई थी, उसे काफी याद करते हैं हम। ओम्बले ने कसाब को अपनी जान देकर पकड़ा न होता तो शायद दुनिया मानती आज भी कि वास्तव में जो हुआ वह हिंदुओं ने किया था, दिल्ली में कांग्रेस सरकार को बदनाम करने लिए।

पाकिस्तान का झूठ और कसाब की सच्चाई

याद कीजिए, किस तरह उन जिहादी दरिंदों ने कलावे पहन रखे थे अपनी कलाइयों पर इस झूठ को साबित करने के लिए कि इस घिनौने जिहादी जनसंहार के पीछे पाकिस्तान का कोई हाथ नहीं है। पाकिस्तान आज तक नहीं मानता है कि कसाब और उसके जिहादी साथी उसकी सेना ने प्रशिक्षित करके भेजे थे भारत, मरने और मारने का आदेश देकर। ये पूरी जिहादी टुकड़ी मारी गई थी उन चार दिनों में। कसाब जीवित रहा और उससे पूछताछ जब की गई तो उसने बेझिझक कबूल किया कि वह कहां से आया था और किसने उसे भेजा था क्या करने।

भारत में आतंकवाद पर विभाजन और पाकिस्तान का समर्थन

हमारा दायित्व है कि जब इस तरह का हमला होता है भारत पर तो हमें एक आवाज में बोलना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता है अक्सर। इसलिए जब 26/11 के दो साल बाद राहुल गांधी से अमेरिका के राजदूत ने पूछा था कि क्या उनको जिहादी आतंकवाद से खतरा दिखता है तो उन्होंने जवाब दिया कि उनको हिंदू आतंकवाद का खतरा ज्यादा सताता है। राहुल ने कैसे इस बात को कहा, क्यों कहा, आज तक समझ में नहीं आता है, लेकिन इस तरह के बयानों के पीछे छिप कर बैठा है पाकिस्तान। आज तक पूरी तरह से अपने इस पड़ोसी जिहादी देश ने कबूल नहीं किया है कि 26/11 की साजिश पाकिस्तानी सेना के आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों में रची गई थी।

पाकिस्तान कबूल करे या नहीं, उसकी चिंता हमको कम होनी चाहिए और ज्यादा इसकी कि भारत चूंकि जिहादी आतंकवाद के खिलाफ एक आवाज में नहीं बोलता है, आज भी जिहादी आतंकवाद की घटनाएं होती हैं अपने देश में। माना कि उतनी नहीं होती हैं, जितनी हुआ करती थीं, लेकिन हर दूसरे दिन खबर आती है कश्मीर से कि किसी बेगुनाह भारतीय नागरिक या किसी वीर सिपाही को जान से मारा है बेनाम जिहादियों ने, जो फरार हो गए हैं।

इसमें दोराय नहीं है कि कांग्रेस और अन्य ‘सेकुलर’ राजनीतिक दल जिहादी आतंकवाद के खिलाफ ज्यादा नहीं बोलते हैं इस डर से कि मुसलमानों का उनका पक्का वोट बैंक बिखर न जाए। लेकिन दोष सिर्फ सेकुलर राजनेताओं का नहीं है, दोष हिंदुत्व मानसिकता राजनीतिकों का भी है। इसलिए कि वे जब बोलते हैं, जिहादी आतंकवाद के खिलाफ, दोष डालते हैं पूरी मुसलिम कौम पर। पिछले दस सालों में मुसलमानों के खिलाफ इतनी नफरत फैलाई गई है कि हिंदुत्व सोच के आम भारतीय हर मुसलमान को देशद्रोही मानने लगे हैं। भूल गए हैं ये लोग कि भारत की मिट्टी में मुसलमानों का खून भी है। स्वतंत्रता सेनानी मुसलमान भी थे और उनमें लाखों की तादाद ऐसे मुसलमानों की भी थी, जिन्होंने बंटवारे के खिलाफ आवाज उठाई थी उस समय। जब 1947 में बंटवारा हो ही गया, उन्होंने फैसला लिया भारत में रहने का।

विनम्रता से मेरा सुझाव है कि 26/11 की अगली सालगिरह आने से पहले तुकाराम ओम्बले की याद में एक ऐसी संस्था बनाई जाए, जो इस देश के असली भक्तों की आवाज बने। इसमें मुसलिम भी शामिल हों, हिंदू भी और इस संस्था के जरिए भारत का असली धर्मनिरपेक्ष चेहरा दिखाने की कोशिश की जाए। ऐसा इसलिए कह रही हूं कि ऐसे कई राजनेता हैं, जिनके लिए धर्मनिरपेक्षता सिर्फ एक नारा है। दूसरे खेमे में हैं वे हिंदुत्व सोच के लोग, जो हर मुसलिम से नफरत करते हैं और जो पिछले दस वर्षों में अपनी बिलों से निकल कर आए हैं नफरत की भाषा बोलने। सुझाव दे तो रही हूं, लेकिन एक मायूसी के साथ। जानती हूं कि देश में आजकल ऐसे राजनेता हैं ही नहीं, जो असली मायने में नेतृत्व दिखा सकते हों। सब ऐसे हैं जो धर्मनिरपेक्षता को हथियार बना कर इस्तेमाल करते हैं वोट बैंक बनाने के लिए।