पिछले सप्ताह कांग्रेस अधिवेशन की समाप्ति के अगले दिन सोशल मीडिया पर राहुल गांधी ने गर्व से सोशल मीडिया पर एक वीडियो डाला। इसमें उनके अपने भाषण के कुछ खास हिस्से थे। यानी जाति जनगणना कानून को हम लोकसभा में पारित करके रहेंगे। देश का सारा धन इस सरकार ने अडाणी और अंबानी के हवाले कर दिया है। यह धन जब सरकारी कारखानों में निवेश किया गया था, तो पिछड़ी जाति के नौजवान, दलित और आदिवासी नौजवान आसानी से नौकरी पाते थे, लेकिन अब नहीं। प्रधानमंत्री ‘मित्र’ ट्रंप से मिलने गए थे, लेकिन इस बार गलबहियाँ करते नहीं दिखे, चुपचाप बैठे दिखे जब ट्रंप ने उनको अपने नए ‘टैरिफ’ या आयात शुल्क के बारे में बताया।
ट्रंप के शुल्क के अलावा ये सारे विषय ऐसे हैं, जिनके बारे में कहा जा सकता है कि राहुल के ये सबसे पसंदीदा विषय हैं। तो अलग क्या था जो मैं इनका ज़िक्र इस लेख की पहली पंक्तियों में कर रही हूँ? अलग यह था कि गांधी परिवार के इस वारिस के भाषण में इस बार मैंने ग़ुस्सा देखा जो पहले नहीं दिखता था। इसको देखकर ऐसा लगा मुझे कि शायद राहुल को जनता पर ग़ुस्सा आ रहा है कि इतनी बार इन ‘गंभीर विषयों’ को उठाने के बाद जनता की प्रतिक्रिया ठंडी है। क्यों नहीं देश के सबसे पिछड़े, ग़रीब मतदाता उनकी आवाज़ सुनकर अपने वोट कांग्रेस को देते दिख रहे हैं अभी तक? इसको देखकर अगर राहुल गांधी जनता पर दोष डाल रहे हैं, तो शायद उनको एकांत में बैठकर थोड़ा आत्ममंथन करना होगा।
ऐसा नहीं करना चाहते हैं अगर, तो कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद शशि थरूर की ही बात मान लें। अधिवेशन के बाद थरूर साहब ने एक वक्तव्य जारी कर सलाह दी कि कांग्रेस पार्टी को नकारात्मकता त्यागकर कुछ सकारात्मक बातें करनी चाहिए। सलाह अच्छी है, लेकिन थरूर साहब की कौन सुनेगा कांग्रेस के आला कमान में जब उनको दुश्मन माना जाता है, जब उनके बारे में अफवाहें फैलाई जाती हैं कि बस कुछ ही दिनों में वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने वाले हैं। जो लोग फैला रहे हैं इस किस्म की अफवाहें, वे कांग्रेस के असली दुश्मन हैं, इसलिए कि ऐसी बातों के कारण ही कांग्रेस में कभी असली आत्ममंथन नहीं हुआ है। बावजूद इसके कि पिछले दशक में तकरीबन हर चुनाव में कांग्रेस हारी है।
हारने का कारण मेरी नज़र में यह है कि कांग्रेस भविष्य की तरफ़ देखने के बदले इतिहास के गहरे कुएँ में डूबती रही है। अहमदाबाद के अधिवेशन में राहुल गांधी का भाषण ही ले लीजिए। भाषण की शुरुआत राहुल गांधी ने अपनी दादी का ज़िक्र करते हुए कहा कि एक दिन ‘जब मैं छोटा बच्चा था, मैंने अपनी दादी से पूछा कि क्या उनको चिंता है कि उनके मरने के बाद उनके बारे में लोग क्या कहेंगे। और दादी ने कहा, राहुल मैं अपना काम करती हूँ। मुझे कोई परवाह नहीं है कि मेरे बारे में क्या कहेंगे लोग। यह मेरे लिए ‘परफेक्ट’ जवाब था और मैं भी ऐसा ही सोचता हूँ’।
अच्छी बात है राहुलजी कि आपको अपनी दादी की छोटी-छोटी बातें याद हैं, लेकिन क्या आपको मालूम है कि आज के मतदाता अक्सर इतनी छोटी उम्र के हैं कि न इंदिरा गांधी से उनको कोई वास्ता है और न इतिहास से। जब वोट डालने जाते हैं, तो सिर्फ़ यह सोचकर कि उनके जीवन को कौन बेहतर बना सकता है। उनकी बेरोज़गारी की चिंता कौन मिटाएगा। उनको कौन उम्मीद देगा कि देश इतनी तरक़्क़ी कर रहा है कि उनको आर्थिक शरणार्थी बनकर देश छोड़कर भागना न पड़े। भारत में हासिल हो सकेंगी अच्छी नौकरियाँ और वे सारी चीज़ें जो उनके जीवन को बेहतर बना सकती हैं।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के आला नेता इन चीज़ों के बारे में सोचते नहीं हैं। समस्या उनकी यह है कि उनके सारे समाधान पुराने हैं। जैसे जाति जनगणना। आरक्षण को पचास फीसद से ऊपर लेकर जाना। नौकरियों के बदले मासिक राहत भत्ता देना। महिलाओं के बैंक खातों में हर महीने थोड़ा बहुत पैसा डालना ताकि वह ‘इज्ज़त’ से जी सकें। जब ग़रीबी इतनी ज़्यादा है कि पंद्रह सौ रुपए या दो हज़ार रुपए से उनको इज्ज़त मिल सकती है, तो हमको शर्म आनी चाहिए कि आज़ादी के बाद इस ‘अमृत काल’ में भी भारत के लोग इतने ग़रीब हैं। शर्मिंदा होना चाहिए हमारे राजनीतिज्ञों को कि उनकी नीतियाँ इतनी नाकाम रही हैं कि जिन लोगों को हम मध्य वर्ग में गिनते हैं, उनको भी खैरात चाहिए। सरकारी नौकरी मिलना उनका सबसे बड़ा सपना है।
ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी नहीं खैरात बाँटते हैं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने कोई नई आर्थिक दिशा में देश को ले जाकर दिखाया है। आज भी भारत इतना बदला नहीं है जितना उसको बदलने की सख्त आवश्यकता है, लेकिन मोदी कम से कम लोगों के दिलों में उम्मीदों का दीया जलते रहने के लिए सुनहरे भविष्य की बातें करते हैं। याद दिलाना नहीं भूलते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था अब पाँचवें नंबर पर पहुँच गई है और थोड़ी ही देर में तीसरे नंबर पर पहुँचने वाली है अमेरिका और चीन के पीछे।
शायद ऐसा होने में देर लगेगा। शायद विकसित भारत का सपना 2047 तक नहीं साकार होगा, लेकिन मोदी समझ गए हैं कि आम लोग उम्मीद पर जीना पसंद करते हैं। समझ गए हैं मोदी कि लोगों को विकसित भारत का सपना दिखाकर कम से कम उनको मायूसी और निराशा में डूबने से बचा रहे हैं। दूसरी तरफ़ है कांग्रेस पार्टी जो वर्तमान और भविष्य के बदले अपने ‘सुनहरे’ अतीत की बातें करती है। उन पुराने नेताओं के बारे में बातें करते हैं कांग्रेस के आला नेता, जिनका समय बहुत पहले गुज़र गया था।