हाथरस के हादसे ने याद दिलाया पिछले सप्ताह कि भारत विकसित देश बनने से अभी बहुत दूर है। अंधविश्वास कई देशों में दिखता है, लेकिन आमतौर पर वे देश विकसित नहीं कहलाते हैं और अगर किसी विकसित देश में कोई ढोंगी बाबा के कारण एक सौ इक्कीस लोगों की मौत होती तो पहले उनको गिरफ्तार किया जाता, उनके सेवादारों को नहीं। भगदड़ इसलिए मची क्योंकि जिस भोले बाबा के सत्संग में लाखों लोग इकट्ठा हुए थे, उनको इस बाबा ने विश्वास दिलाया था कि उनके चरणों की धूल में ऐसा जादू है कि बीमार ठीक हो जाते हैं और जिनके बच्चे न हों, उनको बच्चे हो जाते हैं। कुछ साल पहले ये भोले बाबा, जिनका पूरा नाम है, सूरज पाल, गिरफ्तार भी हुए थे इसलिए कि उन्होंने सोलह साल की एक लड़की का शव अगवा किया था उसको दोबारा जीवित करने के लिए।
ऐसे बाबाओं में अगर कोई शक्ति वास्तव में होती है तो सिर्फ यह कि भोले, जाहिल, गरीब लोगों को बेवकूफ बनाने में ये माहिर होते हैं। खासतौर पर महिलाओं को बेवकूफ बनाने में सफल होते हैं, शायद इसलिए कि अपने भारत महान में अंधविश्वास महिलाओं में ज्यादा दिखती हैं। कोई इत्तिफाक नहीं है कि जब लाशों की जांच की गई हाथरस वाले हादसे के बाद, तो पाया गया कि मरने वालों में ज्यादातर औरतें थीं। बाद में गवाहों ने बताया कि भगदड़ मची जब बाबा की गाड़ियों का काफिला निकल रहा था उनके प्रवचन के बाद और महिलाओं की एक बहुत बड़ी भीड़ ने कोशिश की थी गाड़ियों के पहियों के निशानों से धूल उठाने की। ऐसे दर्दनाक हादसे पहले भी हुए हैं, भविष्य में भी होते रहेंगे और हर हादसे के बाद हमको याद दिलाया जाएगा कि विकसित भारत अभी दूर क्षितिज पर भी नहीं दिख रहा है।
जबसे नरेंद्र मोदी का दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ था, तब से उन्होंने विकसित भारत का लक्ष्य रखा है आम भारतीयों के सामने। अच्छा लक्ष्य है, लेकिन लक्ष्य ही रहेगा जब तक अंधविश्वास के अलावा कुछ अन्य बुनियादी चीजों में परिवर्तन नहीं आएगा। इन दिनों गाजा पट्टी से टीवी पर रोज तस्वीरें आती हैं, जिसमें दिखाया जाता है कि युद्ध की वजह से जो लोग बेघर और बेसहारा हुए हैं, वे कैसे गुजारा कर रहे हैं कचरे के ढेरों के बीच। कैसे उनके पास न साफ पानी है, न सिर के ऊपर छत, न दो वक्त का खाना। न अब उनके अस्पतालों में दवाएं मिल रही हैं और न ही बच्चों के लिए स्कूल चल रहे हैं। मैं इन तस्वीरों को जब देखती हूं तो याद आता है कि अपने देश में कितने ऐसे गांव हैं जहां जीना उतना ही मुश्किल है बावजूद इसके कि यहां कोई युद्ध नहीं चल रहा है। मेरे अपने गांव में हर गली में देखने को मिलता है सड़ता हुआ कचरा। बारिश जिस दिन होती है तो यह कचरा गरीब लोगों की बस्तियों में बीमारियों को लेकर फैल जाता है। ऐसा सिर्फ देहातों में नहीं होता है, हमारे बड़े शहरों में भी यही हाल है झुग्गी बस्तियों में। मुंबई में ऐसी बस्तियां हैं जहां इतनी गंदगी है कि देख कर आश्चर्य होता है कि यहां लोग जिंदा रहते हैं तो कैसे! दिल्ली में जो बस्तियां हैं यमुना किनारे या लालकिले के पीछे, कचरे के पहाड़ों के बीच वहां सांस लेना मुश्किल है।
मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया था, जिसके शुरू होने के बाद अनपढ़, ग्रामीण लोग भी जान गए थे कि खुले में शौच करने से जानलेवा बीमारियां फैलती हैं। इस अभियान के तहत गांव-गांव में नौजवानों को स्वच्छता सेवक बनने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। ये लोग गांव के बुजुर्गों को समझाते थे कि उनको अपनी पुरानी आदतें बदलनी पड़ेंगी, इसलिए कि जमाना बदल गया है। माना जाता है कि इस स्वच्छता अभियान की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि जहां तकरीबन अस्सी फीसद ग्रामीण घरों में निजी शौचालय नहीं हुआ करते थे, अब हिसाब तकरीबन उल्टा हो गया है। लेकिन अब वक्त आ गया है एक नए अभियान को शुरू करने का, जिसका लक्ष्य होना चाहिए शहरों और गांवों की गलियों से कचरा हटाना। गुरबत और अंधविश्वास का गहरा रिश्ता है। बेबस, बेसहारा लोग अंधविश्वास के शिकार ज्यादा बनते हैं।
जब तक हमारे शहर और गांव युद्धग्रस्त गाजा पट्टी की तरह दिखते रहेंगे हम कभी भी विकसित देशों में नहीं गिने जाएंगे। गंदगी और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी हम सबको, यानी हर नागरिक को इसमें शामिल होना होगा, लेकिन सबसे बड़ी जिम्मेवारी बनती है हमारे जनप्रतिनिधियों की जो इतने नाकाबिल हैं कि उन आपदाओं की भी तैयारी नहीं करते हैं जो हर साल आती हैं। पिछले हफ्ते मैं दिल्ली में उस दिन थी जब पहली जोरदार बारिश हुई थी। इतनी बेहाल हुई अपने देश की राजधानी कि राजनेताओं के लुटियंस वाले घरों में भी पानी घुस गया था।
बाद में मालूम पड़ा कि ऐसा हुआ इसलिए कि इस साल नालों की सफाई बिल्कुल नहीं की गई थी। क्यों नहीं हुई थी? क्यों हर साल हमारे शहरों में न बारिश की तैयारी की जाती है और न उस मौसम की, जब सर्दियों में सांस लेना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि हवा प्रदूषित हो जाती है। प्रदूषित होती है उस धुएं से जो खेतों में पराली जलाने से उठता है। किसानों ने कई बार कहा है कि सरकार उनकी सहायता अगर करे तो पराली को जलाने के बदले वे उसको मशीनों से उठा सकेंगे। हर साल यह बात कही जाती है और कुछ नहीं होता है। हम आप में एक किस्म का अंधविश्वास ही होगा जिसके कारण हम इन प्रशासनिक गलतियों के सुधार के लिए आवाज नहीं उठाते हैं।