कहा जाता है कि कई बार पागलपन सुनियोजित भी होता है।

बिहार चुनाव ने हरेक को सबक दिया। भाजपा को सबक मिला कि सब राज्यों में मोदी फार्मूला नहीं चल सकता। कांग्रेस ने सीखा कि वह हर जगह अव्वल या अकेली खिलाड़ी नहीं हो सकती। जनता दल (यू) और राष्ट्रीय जनता दल को सीख मिली कि स्थायी मित्रता या स्थायी शत्रुता जैसी चीज नहीं होती, और दोस्ती बरकरार रखने के लिए उन्हें कड़ी मेहनत करनी होगी।

एक राज्य आधारित पार्टियों ने भी चुपचाप अपना सबक हासिल किया। अगर आप एक राज्य-केंद्रित पार्टी हैं, जिस राज्य से आप आते हैं, जहां आपको बने रहना है और अपने गढ़ की रक्षा करनी है। यह सबक काफी साल पहले ही द्रमुक, अन्नाद्रमुक और बीजू जनता दल ने सीख लिया, और फिर अकाली दल तथा शिवसेना ने भी। अब समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस को यह सीखना है। आम आदमी पार्टी को भी इसे जल्दी ही सीखना होगा।

वैश्विक भय:
एक सरसरी नजर वैश्विक स्थिति पर डालना जरूरी है। पेरिस में हुए आतंकी हमले (तेरह नवंबर) और फिर अमेरिका के बर्नार्डिनो में हुए आतंकी हमले (दो दिसंबर) के बाद हरेक देश खुद को पहले से अधिक असुरक्षित महसूस करने लगा है और ज्यादा आत्मकेंद्रित हो गया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आतंकवाद को अब आव्रजन से जोड़ दिया गया है, और वैसे हर शख्स को शक की नजर से देखा जा रहा है जो अश्वेत हो, या दाढ़ी या मुसलिम नाम वाला हो। रूस, फ्रांस, फिर ब्रिटेन और अब जर्मनी को भी अपनी सरहदों से आगे जाकर अपने दुश्मनों के ठिकानों पर हमला बोलने में कोई हिचक नहीं है।

आतंकवाद से लड़ना अब आगे बढ़े हुए और सामरिक रूप से सर्वाधिक शक्तिशाली देशों के एजेंडे में सबसे ऊपर है। शुक्र है कि उन्होंने जलवायु परिवर्तन और फिर विश्व व्यापार से जुड़ी वार्ताओं के लिए वक्त निकाल लिया। इन दोनों मसलों पर समझौतों से जैसे ही वे फारिग होंगे, अपनी सबसे बड़ी चिंता पर लौटेंगे, जो कि आतंकवाद है। आतंकवादी गुटों और खासकर आइएसआइएस की ताकत और दायरे को देखते हुए आतंकवाद से बेहद पीड़ित इन देशों के रुख को उचित न मानना कठिन है, (हालांकि इसमें बहुत खामी भी है)।

इस वक्त भारत सीढ़ी से गिर जाए, तो दुनिया उसका संज्ञान नहीं लेगी, और हम उसी स्थिति में दिख रहे हैं- सीढ़ी चढ़ते हुए लड़खड़ा रहे हैं।

छब्बीस नवंबर से शुरू हुए संसद के सत्र ने सरकार और विपक्ष के बीच संबंध सुधार का एक बड़ा मौका पेश किया। जीएसटी की मंजिल आसानी से पाई जा सकती थी। मुख्य आर्थिक सलाहकार की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट के जरिए तीन विवादित मुद्दों पर सहमति की राह निकल सकती थी: एक फीसद अतिरिक्त कर का प्रस्ताव दफ्न हो चुका है, कोई भी राज्य विवाद निपटारा तंत्र बनाए जाने के एकदम खिलाफ नहीं है, और अधिकतम कर का मसला, मसविदे को बेहतर बना कर सुलझाया जा सकता था।

नेशनल हेरल्ड मामला:

किसी भी सरकार को अप्रत्याशित स्थिति के लिए हरदम तैयार रहना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि नेशनल हेरल्ड मामले में सरकार की तैयारी उस स्थिति के लिए थी, जिसकी उसने आस लगा रखी थी। लगता है सरकार को भरोसा था कि हाईकोर्ट का फैसला उसकी उम्मीद के अनुरूप आएगा। फैसले के हफ्तों पहले से सरकार इस मामले में पक्ष लेती दिख रही थी। उसने एक निजी शिकायतकर्ता के पत्र को तवज्जो दी, और इस प्रकार वास्तव में प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक को दरकिनार कर दिया, और उस जांच को दोबारा शुरू किया जिसे पूर्व निदेशक ने बंद कर दिया था। लिहाजा, जब फैसला आया, सरकार और भाजपा के प्रवक्ता कांग्रेस के खिलाफ आग उगलने के लिए तैयार बैठे थे।

जब वाकयुद्ध शुरू हो जाता है, सच्चाई की परवाह नहीं की जाती। नेशनल हेरल्ड मामले में हकीकत यह है कि-

– एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजीएल) की आय और परिसंपत्तियां उसी के नाम बनी हुई हैं;

– एजीएल को ऋण देने वाली कांग्रेस पार्टी थी, जिसने ऋण को कांग्रेस के नियंत्रण वाली यंग इंडियन नामक गैर-व्यावसायिक कंपनी को सौंपा;

– ऋणदाता यंग इंडियन ने ऋण को शेयरों से बदल लिया और एजीएल में प्रमुख हिस्सेदार हो गई;

– न तो एक भी पैसा एजीएल से लिया गया, न एक भी पैसा यंग इंडियन ने हासिल किया, और न ही एक भी पैसा यंग इंडियन ने किसी को दिया।

सरकार नाहक इस मामले में कूद पड़ी और पक्षकार बन गई।

कुछ और बेवकूफियां:

एक तरफ नेशनल हेरल्ड मामला फिर से अदालती विषय बन रहा था, और दूसरी तरफ सीबीआइ ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के दफ्तर पर ‘छापा’ डाला। सीबीआइ का कहना है कि वह कुछ पुरानी फाइलों को ढूंढ़ रही थी जो शिक्षा, स्वास्थ्य और सूचना तकनीक महकमों से संबंधित थीं, जिन महकमों में मुख्यमंत्री के एक सचिव ने कुछ साल पहले काम किया था। सीबीआइ ने कैसे यह उम्मीद कर ली कि पुरानी और अन्य विभागों से ताल्लुक रखने वाली फाइलें मुख्यमंत्री कार्यालय में मिलेंगी? आखिरकार, सीबीआइ को केजरीवाल के दफ्तर में वे फाइलें नहीं मिलीं, और इस तरह उसने ‘पिंजरे में बंद तोता’ की अपनी छवि को और पुख्ता ही किया।

केजरीवाल के कार्यालय पर सीबीआइ के छापे को लेकर वाकयुद्ध चल ही रहा था कि (भाजपा सरकार द्वारा नियुक्त) अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ने विधानसभा अध्यक्ष पर महाभियोग चलाने की खातिर विधानसभा का सत्र बुलाने का असामान्य कदम उठाया। राज्यपाल ने सत्र बुलाने के लिए राज्य मंत्रिमंडल की राय लेने की भी जरूरत नहीं समझी, जबकि इसकी परिपाटी रही है। अघोषित लक्ष्य कांग्रेस के बागी विधायकों को मिला कर भाजपा को सत्ता दिलाना था।

नेशनल हेरल्ड मामले को ‘आपराधिक’ मामला बनाना, एक मुख्यमंत्री के दफ्तर पर छापा डालना और एक संवेदनशील सीमावर्ती राज्य की सरकार को अस्थिर करने के लिए राज्यपाल का इस्तेमाल करना, मेरी नजर में निरा पागलपन है। कोई बता सकता है कि इससे क्या हासिल होगा!