सीखना हर जीवधारी की नैसर्गिक प्रवृत्ति, प्रकृति और आवश्यकता है। पशु-पक्षी भी अपनी अगली पीढ़ी को आवश्यक समझ और कौशल सिखाकर ही तैयार करते हैं। मनुष्य ने अपने को पीढ़ियों के जीवनपर्यंत चलने वाले संबंधों में बांधा, मित्रता और भाईचारे को अपनाया। उसे प्रेम, न्याय, क्षमा, करुणा जैसे नैसर्गिक वरदान भी मिले हैं। उसकी सामूहिकता की आवश्यकता अन्य जीवधारियों से अलग है। मनुष्य और पशु-पक्षियों में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण समानता से सभी परिचित हैं। हर नई पीढ़ी अपना जीवन अनुकरण से ही प्रारंभ करती है। अंतर भी अनेक हैं। मनुष्य के पास विचारों, संकल्पना की शक्ति है, जिज्ञासा उसका प्रेरणास्रोत है और सर्जनात्मकता उसके सोच और संकल्पना का मूर्त रूप है। मनुष्य आदर, सम्मान तथा भावनात्मक अभिव्यक्ति के महत्त्व को जानता है। जिसके पास प्रखर वैचारिकता होगी, वह विकल्प ढूंढ़ेगा ही! नए ज्ञान और कौशल भी उसे चाहिए ही होंगे! यही मनुष्य की प्रगति और परिवर्तन का मूल स्रोत बनता रहा है।

गांधीजी का अनुसरण करने वाले करोड़ों लोग आगे आए, स्वतंत्रता के लिए बलिदान करने में हिचके नहीं! इस आंदोलन में कितने ही अन्य अनुकरणीय व्यक्ति कुंदन बन कर निकले। किसी भी चर्चा मे बहुधा यह व्यक्त किया जाता है कि भारत की स्वतंत्रता सग्राम को नेतृत्व देने वाली पीढ़ी अद्भुत थी। वैसे व्यक्तित्व के लोग इतनी बड़ी संख्या मे अब दिखाई नहीं देते हैं। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका से वापस आने के बाद सारे देश को एक बड़े उद्देश्य से जोड़ दिया, लेकिन इस जुड़ाव और स्वतंत्रता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जिन लोगों ने अपना सर्वस्व बलिदान करने का संकल्प लिया, वे सभी गांधी जी का सम्मान तो करते थे, लेकिन उनके हर तौर-तरीके से सहमत हो, ऐसा आवश्यक नहीं था।

उस समय देश में दलगत राजनीति पूरी तरह नहीं उभरी थी। वैचारिकता अलग-अलग थी, तरीके अलग-अलग अपनाए गए, लेकिन एक-दूसरे के प्रति सम्मान और आदर तथा शालीनतापूर्ण व्यवहार किसी ने छोड़ा नहीं। जब महात्मा गांधी के असहयोग के कारण नेताजी सुभाष चंद्र बोस के लिए कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कार्य करना असंभव हो गया, तो उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। मतभेद हुए, रास्ते अलग हो गए, लेकिन पारस्परिक आदर भाव और व्यावहारिक शालीनता में कोई कमी नहीं आई। नेताजी ने ही गांधी जी को ‘वे हमारे देश के पिता हैं’, जैसे सम्मान के साथ लोगों को परिचित कराया। गांधी जी भी उनकी देशभक्ति की प्रखरता की सराहना करते रहे। स्वतंत्रता आंदोलन के समय वैचारिकता की भिन्नता के साथ दैनंदिन व्यावहारिकता में पारस्परिकता, शालीनता और आदरभाव हर तरफ उपस्थित था। वह स्वतंत्रता के पश्चात लगातार घटता ही रहा, और अब लगभग तिरोहित हो गया है।

देश के स्कूल, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय इससे चिंतित क्यों नहीं हैं? लोकतंत्र में चयनित जनप्रतिनिधिओं के बीच जो मानवीय संबंधों की व्यावहारिकता देश के समक्ष आएगी, उसका अनुगमन तो नई पीढ़ी अवश्य करना चाहेगी! कौन नहीं जानता है कि मां-बाप के बाद अध्यापक को ही बच्चे अपना हीरो मानते हैं। इसके बाद वे अपने आदर्श प्रतिष्ठित व्यक्तियों में ही ढूंढ़ते हैं, जिसमें चयनित जन-प्रतिनिधि भी शामिल होते हैं। वर्तमान में इनके स्तर पर स्थिति चिंताजनक तो है ही। देश के विद्वतवर्ग का यह सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यावहारिक उत्तरदायित्व है कि वे इस स्थिति की गहराई को समझकर समाज और उसके प्रतिनिधियों का मार्गदर्शन करे! लोकतंत्र में सार्थक संवाद की परंपरा में सक्रियता की किसी भी कमी की ओर समाज के हर वर्ग का ध्यान जाना ही चाहिए।

अनेक ऐसे अवसर आए जब देश ने बाहरी आक्रमण झेले, आंतरिक अव्यवस्थाएं भी झेलीं, आंतरिक और बाह्य दुरभिसंधियों को जाना और सफलतापूर्वक समाधान निकाला। ऐसे हर अवसर पर देश की नैसर्गिक एकता और पारस्परिकता ही उसका संबल बनी। विविधता में एकता कितनी ठोस है, ऐसा मैंने पहली बार 1962 में देखा था। बाद में यह 1965, 1971, 1975, 1999 में इसी भावना को दोहराए जाते देखा। युवाओं ने राष्ट्रीयता की भावना की हर नागरिक में ठोस उपस्थिति इन सभी अवसरों पर हर आयुवर्ग ने देखी, पहचानी और उसे अंतर्निहित करने में कोई कमी नहीं रखी। इस भावना को बनाए रखने और अधिक प्रगाढ़ करने के लिए सकारात्मक और सम्मानपूर्ण संवाद सदा बनाए रखने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए। देश में महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व निबाहने वालों के मध्य संवादहीनता की लगातार बढ़ोतरी चिंतित करती है।

इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में यह दोहराने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर मनुष्य के व्यक्तित्व विकास का भी आवश्यक अंग है। मगर साथ ही हर व्यक्ति को यह स्वीकार करने की भी आवश्यकता है कि वह इसका दुरुपयोग न करे, अन्य को अपमानित करने वाली भाषागत स्तरहीनता से हर सुसंस्कृत व्यक्ति को बचना ही चाहिए। देश के समक्ष अनेक जटिल समस्याएं हैं। ऐसे में समाज, समाज के उत्तरदायित्व निबाहने वाले हर वर्ग का यह नैसर्गिक दायित्व स्वत: उभरता है कि उसके अपने आचार-विचार-व्यवहार में कोई ऐसी कमी न हो जिसका नई पीढ़ी पर नकारात्मक प्रभाव पड़े।

हर नई पीढ़ी का यह नैसर्गिक अधिकार है कि उसे ऐसा वातावरण मिले, जो उसे शुद्ध हवा, जल और खाद्य सामग्री प्रदान कर सके। साथ ही उसे हर तरफ प्यार, करुणा, पारस्परिक आदरभाव, संबंधों की प्रगाढ़ता तथा भाषागत शालीनता, बिना किसी भेदभाव के, दिखाई दे। भारत में इसे आज के समय भी प्राप्त किया जा सकता है। यह राष्ट्रीय आवश्यकता है, यह नई पीढ़ी के प्रति कार्यकारी पीढ़ी का उत्तरदायित्व है और इसका निर्वहन आवश्यक है। अन्य कोई वैकल्पिक रास्ता है ही नहीं।