Rahul Gandhi Politics: कब समझेंगे राहुल गांधी कि उनका काम संसद के अंदर है, संसद के प्रांगण में नहीं। शुरू हुआ संसद का मानसून सत्र और फिर से वही तमाशा देखने को मिला जो हम देखते आए हैं संसद के हर सत्र में जाने कब से। शायद तब से जब नरेंद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने और गांधी परिवार को पहली बार अंदेशा हुआ कि अब लंबे समय तक बैठना होगा विपक्ष में। पिछले सप्ताह संसद के प्रांगण में नारे लगाते हुए सांसदों में इस परिवार के तीनों सदस्य दिखे। माताजी राज्यसभा में हैं आजकल और उनके दोनों बच्चे लोकसभा में। उनका बेटा ऊपर से नेता प्रतिपक्ष भी हैं, लेकिन इन मामूली ओहदों से कैसे संतुष्ट होंगे वे लोग जिनको आदत है भारत को अपनी जायदाद के जैसे समझने की।

ऐसी आदत क्यों न पड़ गई हो इस परिवार को जब पचहत्तर वर्षों की आजादी में से इस परिवार का कोई न कोई सदस्य प्रधानमंत्री रहा है या फिर प्रधानमंत्री को नियुक्त करने की जिम्मेदारी ले रखी हो।

लंबे समय तक कांग्रेस के हवाले रहा देश

याद कीजिए कि 1947 से 1964 तक पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे इस देश के। उनके बाद कोई तीन वर्षों तक लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री रहे। उनके देहांत के बाद आया इंदिरा गांधी का दौर जो 1967 से 1977 तक रहा था पहली बार। उसके बाद लौट कर आईं 1980 में और 1984 में जब उनकी हत्या की गई, उनके बेटे राजीव गांधी के हवाले सौंपी गई देश की बागडोर।

जब 1991 में राजीव की हत्या हुई, तो देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के आला नेताओं ने सोनिया गांधी के हवाले किया कांग्रेस पार्टी को। उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इनकार किया, लेकिन अपनी जगह नियुक्त किए दो प्रधानमंत्री, नरसिंह राव और मनमोहन सिंह।

हर सत्र वही तमाशा… राहुल गांधी कब सीखेंगे राजनीति संसद में होती है, सड़क पर नहीं?

देश के राज परिवार के इतिहास में तय था राहुल गांधी का आगमन, लेकिन गुजरात से एक नेता के आने से भारत की राजनीतिक बिसात ऐसी बदल गई कि गांधी परिवार से उनकी जायदाद छिन-सी गई है। यह उनको बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है। इसलिए संसद सत्र शुरू होते ही सुनियोजित तरीके से संसद को चलने नहीं दिया जाता है।

हर बार उठा लेते हैं कोई न कोई नया मुद्दा जिसको लेकर संसद में हल्ला मचाने के बाद संसद की कार्यवाही बंद करवा कर निकल आते हैं प्रांगण में नारे लगाने और हुड़दंग करने। मुद्दा चाहे जो भी हो उस पर बहस हो सकती है संसद के अंदर, लेकिन राहुल गांधी हर बार कहते हैं कि उनको ‘बोलने नहीं देते हैं लोकसभा में’। तो संसद में रह कर क्यों नहीं इसको साबित करते हैं?

इस बार मुद्दा है ‘लोकतंत्र की हत्या’, लेकिन जिस बड़े सारे बैनर पर यह लिख कर हाथ में उठाए थे कांग्रेस के सांसद, उन्होंने इतना भी नहीं ध्यान दिया कि लोकतंत्र शब्द गलत तरीके से लिखा है। लोकतंत्र की ‘हत्या’ का मुद्दा पुराना है, लेकिन उठाया जाता है हर बार। इस दफा बिहार को लेकर उठाया जा रहा है, जहां शिकायत है कि चुनाव आयोग सरकार के साथ साजिश करके उन मतदाताओं से मत डालने का अधिकार छीन रहा है जिनका वोट भारतीय जनता पार्टी को नहीं पड़ता है।

‘नरेंद्र मोदी में कोई दम नहीं’, राहुल गांधी बोले- मीडिया वालों ने सिर्फ गुब्बारा बना रखा है

सच पूछिए तो चुनाव आयोग ने जिन दस्तावेजों को मांगा है प्रमाण के तौर पर, वे अक्सर गरीब, अशिक्षित मतदाताओं के पास होते नहीं हैं। मुश्किल से इन्होंने आधार कार्ड हासिल किए हैं, लेकिन सर्वोच न्यायालय के सुझाव के बावजूद चुनाव आयोग कहता आया है कि न आधार कार्ड प्रमाण के लिए काफी है और न राशन कार्ड। मांग रहे हैं ग्यारह अन्य प्रमाणपत्र जिनमें पासपोर्ट और जन्म प्रमाणपत्र हैं। गरीब लोगों के पास कहां से आएंगी ऐसी चीजें?

इसलिए मुद्दा उठाने लायक है, लेकिन क्यों नहीं उठाने की कोशिश हो रही है लोकसभा के अंदर? कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन में शामिल थे कई अन्य विपक्षी दलों के नेता, लेकिन मैं उनका जिक्र इसलिए नहीं कर रही हूं कि इन दलों में सिर्फ कांग्रेस ही है, जिसको राष्ट्रीय स्तर की पार्टी कहा जा सकता है। बाकी अपने अपने इलाकों में क्षत्रप हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर नहीं। भारतीय जनता पार्टी को चुनौती सिर्फ कांग्रेस दे सकती है, लेकिन जबसे नेतृत्व इस दल का पहुंचा है राहुल गांधी के हाथों में, तब से ऐसा लगता है कि विरोध करने के तरीके बचकाने हो गए हैं।

मोदी उम्मीद बेचते हैं, कांग्रेस इतिहास सुनाती है; राहुल को अब जनता से क्यों लग रहा है डर? पढ़ें तवलीन सिंह के विचार

राहुल गांधी जब भी बोलते हैं उनके भाषणों में बचपना दिखता है और उनकी शिकायतों में भी। पिछले सप्ताह उन्होंने चुनाव आयोग पर ‘चीटिंग’ का आरोप लगाते हुए पत्रकारों को कहा कि उनके पास सबूत ‘ब्लैक एंड वाइट’ में हैं जो साबित कर देंगे कि चुनाव आयोग ने आंखें बंद कर भारतीय जनता पार्टी को धांधली करने दी।

मैंने पहले भी कहा है इस जगह कि महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी की जीत की मुख्य वजह थी उनकी लाडली बहना योजना जिसके जरिए महाराष्ट्र की लाखों औरतों के बैंक खातों में हर महीने सरकार जमा करती है पंद्रह सौ रुपए। इस योजना के घोषित होने के बाद चुनाव का सारा माहौल बदल गया था मेरे अपने गांव में और मुंबई में भी। मेरी राय में राहुल गांधी के आरोपों में दम नहीं है। होता तो जरूर अपनी शिकायतें लेकर जाते संसद के अंदर बहस में शामिल होने।

सच तो यह है कि कांग्रेस के सदैव युवराज कुछ भी बोल देते हैं बिल्कुल वैसे, जैसे बिगड़े दिल शहजादे करते हैं, जब उनसे कोई उनका सबसे पसंदीदा खिलौना छीन लेता है। खिलौना छोड़िए नरेंद्र मोदी ने नेहरू-गांधी से उनकी पूरी जायदाद छीन करके उनको इतनी तकलीफ दी है कि उनसे बर्दाश्त नहीं हो रहा है। न उनको समझ में आ रहा है कि चुनावों को जीतने के लिए उनकी क्या रणनीति होनी चाहिए। संसद के बाहर तमाशे करके तो बिल्कुल चुनाव नहीं जीते जा सकते हैं।