खुली, प्रतिस्पर्धी और उदार अर्थव्यवस्था ने राष्ट्रीय विजेता (चैंपियन) तैयार किए थे। शुरुआत में ये चैंपियन छोटे थे, मगर राष्ट्रीय स्तर पर और कुछ मामलों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन्होंने प्रतिस्पर्धी होने की ताकत हासिल कर ली। उनमें इंफोसिस, टीसीएस, रिलायंस, एचडीएफसी, आइसीआइसीआइ, एलएंडटी, टाटा, सीरम इंस्टीट्यूट, बायोकान, मारुति, बजाज, हीरो, टीवीएस आदि कई अन्य नाम तुरंत दिमाग में आते हैं। इन राष्ट्रीय चैंपियनों ने संपत्ति बनाई। उन्होंने कर्मचारियों और शेयरधारकों से बने एक बड़े मध्यवर्ग को भी जन्म दिया। बड़े व्यवसायों का आभार कि मझोले और छोटे व्यवसाय फले-फूले। जोखिम लेने की संस्कृति पैदा हुई। भारतीय उद्योग ने निर्यात के मामले में निराशा के वातावरण को खत्म कर दिया। आदित्य बिड़ला ने विदेश में एक भारतीय विनिर्माण कंपनी खड़ी की और विदेशी निवेश की एक नई प्रवृत्ति का नेतृत्व किया।
1991-92 में भारत की जीडीपी, स्थिर मूल्य आधार पर, 25.4 लाख करोड़ रुपए थी। 2003-04 में यह दोगुना होकर 50.8 लाख करोड़ रुपए की हो गई। 2014 में यह फिर से दोगुना होकर 100 लाख करोड़ से अधिक की हो गई। यह बहुत बड़ी संपत्ति है। मौजूदा कीमतों में प्रति व्यक्ति आय, जो कि 1991-92 में 6835 रुपए थी, 2021-22 में बढ़कर 1,71,498 रुपए हो गई।
हमने गरीबों को नाकाम कर दिया
बात चल रही थी कि भारत मध्यम आय वाला देश बन गया है, हालांकि मेरे विचार से यह अभी उससे कुछ दूर है। एक शेखी यह भी बघारी जाती है कि भारत दुनिया की पांचवीं (नहीं, एक मंत्री ने कहा, चौथी) ‘सबसे बड़ी’ अर्थव्यवस्था है, मगर याद रखें कि भारत अभी तक एक मध्यम आय वाला देश नहीं है, अमीर देश होने की तो बात ही छोड़ दें। भारत के पांच खरब डालर की अर्थव्यवस्था बनने की बात हो रही है, मगर मेरे विचार से यह एक अर्थहीन लक्ष्य है।
भारतीय अर्थव्यवस्था भले रेंगती रहे, वह किसी दिन उस मुकाम तक पहुंचेगी जरूर। (एक राल्स रायस की तरह एक साइकिल भी अपने सवार को दिल्ली से आगरा जरूर ले जाती है।) यह आर्थिक दृष्टि से अप्रासंगिक है। देखना होगा कि क्या आय और संपत्ति का वितरण, विकास माडल की स्थिरता और पर्यावरण पर प्रभाव प्रासंगिक और सार्थक हैं।
इन उपायों से, भारतीय विकास की कहानी नीचे की पचास फीसद आबादी को नाकाम कर चुकी है। नीचे के पचास फीसद लोगों को राष्ट्रीय आय का केवल तेरह फीसद (चांसल, पिकेटी और अन्य) प्राप्त होता है और उसके पास देश की संपत्ति का सिर्फ तीन फीसद (आक्सफैम) हिस्सा है। व्यावहारिक रूप से, उस पर कोई संपत्ति कर नहीं बनता। कोई विरासत कर नहीं बनता। खेती आयकर के दायरे से बाहर है। रिश्तेदारों को दिया जाने वाला उपहार कर योग्य नहीं है। नतीजतन, अमीर लोगों को अपने परिवार के सदस्यों के बीच अपनी संपत्ति और आय का पुनर्वितरण करना आसान लगता है
नीचे के पचास फीसद लोग गरीब हैं, क्योंकि उनके पास कम संपत्ति है, कम आय है और उनके पास आगे बढ़ने का कोई अवसर नहीं है।
लाखों गरीब लोग हैं, लेकिन हम नाटक करते हैं कि वे नजर नहीं आ रहे। नया बना पुल तो हमारी आंखों को आकर्षित करता है, मगर हमारी आंखें उन गरीब परिवारों को नहीं देख पाती हैं, जो उस पुल के नीचे पड़े होते हैं। सड़कों पर पेंसिल, तौलिए या किताबों की नकली प्रतियां बेचने वाले बच्चे दिख जाते हैं, वे गरीब हैं। तीस करोड़ दिहाड़ी मजदूर हैं, वे गरीब हैं। हर वह किसान, जिसके पास कृषि योग्य भूमि (एक हेक्टेयर) की औसत जोत से अधिक भूमि नहीं है, वह गरीब है। जिन वर्गों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलता, उनमें कुपोषण और भुखमरी है, वे लोग गरीब हैं। गरीब और निम्न मध्यवर्ग की आबादी का पचास फीसद हिस्सा नीचे है।
नया जनाधार
प्रचलित नीतियों के तहत देश की संपत्ति में वृद्धि काफी हद तक शीर्ष के पचास फीसद तक जाती है। किसी भी राजनीतिक दल ने अपनी नीतियों का पुनर्निर्धारण नहीं किया है, जिससे नीचे के पचास फीसद लोगों को लाभ मिले। अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के रायपुर अधिवेशन में, जो पिछले सप्ताह संपन्न हुआ, मैंने एक खुली, प्रतिस्पर्धी और उदार अर्थव्यवस्था (धन बनाने के लिए) के लिए पार्टी की प्रतिबद्धता दोहराने और कांग्रेस पार्टी को सबसे नीचे के पचास फीसद जनसंख्या को मुख्य जनाधार के रूप में गले लगाने पर जोर दिया।
जाति या धर्म के आधार पर मतदान समूहों पर निर्भर रहने की अपेक्षा यह एक निर्णायक बदलाव होगा। इसका विरोध संभव है। शीर्ष के पचास फीसद लोग इसका विरोध करेंगे, क्योंकि इस तरह वे एक बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के लाभ का बड़ा हिस्सा हड़पने में सफल नहीं होंगे। राजनीतिक अंशधारकों की तरफ से प्रतिरोध होगा, वे कांग्रेस पार्टी को दिए गए अपने मामूली धन को वापस लेने की कोशिश करेंगे। उन राजनीतिक दलों के साथ जगह बनाने के लिए धक्का-मुक्की होगी, जिनका मुख्य जनाधार जाति और धर्म जैसी संकीर्ण पहचान पर आधारित है।
साहसपूर्वक गले लगाएं
फिर भी, मैं निवेदन करूंगा कि कांग्रेस पार्टी को अपने मूल जनाधार के रूप में नीचे की पचास फीसद आबादी को हिम्मत के साथ गले लगाना चाहिए। ऐसा करने के कई कारण हैं। सबसे पहले, यह करना नैतिक रूप से सही काम है। दूसरे, यह नीचे के पचास फीसद की ऊर्जा को उभारेगा, जो वर्तमान स्थिति में कम प्रदर्शन कर पाते हैं। तीसरा, यह अधिक लोगों को काम करने या काम की तलाश करने के लिए प्रोत्साहित करेगा और नियोजित व्यक्तियों (और एलएफपीआर) की संख्या में वृद्धि करेगा। चौथा, यह अधिक प्रतिस्पर्धा और दक्षता को बढ़ावा देगा। पांचवां, ‘निम्नतम पचास फीसद’ के पैमाने- धर्म, जाति, भाषा, लिंग, क्षेत्र और राज्यों के आधार को खत्म कर देगा। और, अंत में, यह हिंदुत्व के जहरीले ध्रुवीकरण (हिंदू धर्म के साथ भ्रमित न हों) के लिए मारक साबित हो सकता है।