पिछले कुछ दिनों से मुझे मेरे बैंक से कई बार इत्तिला आई कि मैं अगर अपना केवाईसी (नो योर कस्टमर यानी अपने ग्राहक को जानें) फौरन ‘अपडेट’ या अद्यतन नहीं करूंगी तो हो सकता है कि मेरा खाता ‘फ्रीज’ हो जाए। मैं काफी मसरूफ थी तो बैंक के इस संदेश को अनदेखा करती गई। अचानक सोशल मीडिया से मालूम हुआ कि कई अति-गरीब परिवारों के खातों पर ताले लगा दिए गए सिर्फ इसलिए कि उन्होंने अपना केवाईसी नहीं अद्यतन किया। ज्यां द्रेज नाम के एक समाज सेवक ने मुझे बताया कि झारखंड के तीन गांवों में हाल में करवाए गए सर्वेक्षण के मुताबिक पचहत्तर फीसद घरों में पाया गया है कि उस घर के किसी न किसी सदस्य के जन धन खाते पर ताला लगा दिया गया है।
आधार कार्ड में भी गलत नाम दर्ज कर दिया, परेशान हो रहे आम लोग
सोशल मीडिया पर वीडियो देखे मैंने जिसमें आदिवासी औरतों से बातें होते दिखाई गईं। एक में एक महिला बताती है कि उसका नाम है उर्मिला ओरांव और उसके अपने घर में सात बैंक खाते हैं, जिनमें छह खाते बंद कर दिए गए हैं। केवाईसी के लिए गए तो कई घंटे लाइन में खड़ा रहने के बाद उनको बताया गया कि अब बंद हो गया है बैंक का काम। इसी किस्म की शिकायत सुनाई सोरा ओरांव नाम की औरत ने। कई और लोगों की शिकायत ये है कि उनके नाम को जब अंग्रेजी में लिखा गया उनके आधार कार्ड पर तो एक दो अक्षर गलत लिखा गया गलती से, तो बैंक ने उनकी केवाईसी करने से इनकार कर दिया। रही मेरी अपनी बात तो ऐसे किस्से सुनने के बाद मैं मुंबई में अपने बैंक में गई अपना पासपोर्ट लेकर और एक लंबा फार्म भर कर। पढ़ी-लिखी होने के बावजूद उस फार्म को भरने के लिए मुझे किसी की मदद की जरूरत थी। अनपढ़, गरीब लोगों का क्या हाल होता होगा आप खुद सोचिए।
राजनेताओं के कई नेक इरादे गरीब, अनपढ़ों के लिए बन जाते हैं बोझ
जब प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में ठान लिया था कि जन धन योजना के तहत भारत के हर नागरिक को बैंक में खाता खोलना होगा चाहे उनके पास इन खातों में पैसे डालने के लिए न हों। उनका इरादा नेक जरूर था, यानी वे चाहते थे कि गरीबों के लिए जो भी पैसा उनकी सरकार दे रही है वह गरीबों तक पहुंचे न कि किसी भ्रष्ट अधिकारी की जेब में। समस्या यह है कि राजनेताओं के कई नेक इरादे नेक न रह कर बोझ बन जाते हैं गरीब, अनपढ़ लोगों के लिए। इसका समाधान जब तक नहीं है सरकारों के पास, बेहतर होगा कि कम-से-कम गरीबों के लिए केवाईसी जैसी चीजों को थोपा न जाए।
याद है मुझे आज भी राजस्थान के जैसलमेर जिले की वह ढाणी, जहां मैं गई थी नोटबंदी घोषित होने के कुछ महीने बाद। वहां जितने भी लोग थे अनपढ़ थे। मर्द काम करते थे पत्थर की एक खान में जो गांव से कई किलोमीटर दूर थी। दिन भर मशक्कत करने के बाद कमाते थे कोई सौ रुपए, जिसमें से कुछ तो फौरन खर्च हो जाते थे बस के किराए पर। गरीबी की रेखा के नीचे होने के नाते उनको सरकारी मदद मिलती थी कई योजनाओं द्वारा। पहले डाकघर में जाकर ले आते थे ये पैसा, लेकिन मोदी के सिर जब डिजिटल धुन सवार हुई तो उनको ये राहत के पैसे आनलाइन मिलने लगे। समस्या उनकी ये थी कि कड़ी मजदूरी करने के बाद उनकी अंगुलियों की लकीरें इतना मिट गई थीं कि कंप्यूटर उनको पढ़ नहीं पाते थे, इसलिए कई-कई दिन ये लाचार लोग सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते दिहाड़ी त्याग कर, ताकि सरकारी मदद हासिल कर सकें।
उन्हीं दिनों खबर मिली थी झारखंड के एक गांव से कि एक आदिवासी विधवा की बेटी भूख से मर गई थी केवल इसलिए कि उसकी मां को राशन मिलना बंद हो गया था, क्योंकि डिजिटल तरीकों को वह समझ नहीं पाई थी। हाशिये के परिवार की संतोषी कुमारी नाम की ग्यारह साल की बेटी आठ दिनों तक भूखी रहने के बाद मरी थी मां से चावल मांगते-मांगते। उसकी मां का आधार कार्ड पहचाना नहीं जा रहा था तो छह महीनों से उसको वह पांच किलो मुफ्त अन्न नहीं मिल रहा था जो सरकार देती है चौरासी करोड़ भारतीयों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत।
हमारे राजनेता अक्सर ऐसे हादसों को अनदेखा करना पसंद करते हैं, लेकिन समाधान हैं गरीबी और भुखमरी के जो डिजिटल नहीं, साधारण हैं। बिल्कुल वैसे जैसे स्कूलों में मध्याह्न भोजन का बंदोबस्त किया जाता है, हर गांव में लंगर खोले जा सकते हैं जिनके चलाने की जिम्मेदारी दी जा सकती है गांव की महिलाओं को। ऐसा करने से महिलाओं को भी नौकरी मिल सकती है और गांव में किसी को भी रात को भूखा सोने की जरूरत नहीं पड़ेगी। ऐसे लंगर खोले जाते हैं जब कोई आपदा आती है, लेकिन फिर बंद कर दिए जाते हैं। इसलिए जो सबसे बेजुबान, सबसे गरीब, सबसे लाचार लोग हैं भारत में उनको लगातार परेशानी रहती है अपने बच्चों को कुपोषण से बचाने की।
विकसित पश्चिमी देशों में ऐसे लंगर दिखते हैं गिरजाघरों में। यहां किसी भी दिन किसी भी वक्त खाना परोसा जाता है। अपने देश में ऐसे लंगर चलाते हैं कृष्ण भक्त मंदिरों से और गुरुद्वारे, लेकिन ऐसा होता है बड़े शहरों में, छोटे, दूरदराज गांवों में नहीं। कहने का मतलब है कि डिजिटल से आगे भी समाधान बहुत हैं जो इतने साधारण हैं कि इनकी तरफ हमारे आला अधिकारियों का ध्यान नहीं जाता है। फिलहाल उनको अगर वास्तव में गरीबों की परेशानियां कम करनी हैं, तो केवाईसी का ये चक्कर उनके लिए तो बंद करवा दें जो गरीबी रेखा के नीचे अपने जीवन गुजारते हैं। सच पूछिए तो मेरी समझ में आता ही नहीं कि केवाईसी की जरूरत क्या है जब आधार कार्ड हैं सबके पास।