आज से ठीक बीस साल पहले मैं काबुल में था। पंजशीर घाटी से उठा नार्दन अलायन्स तालिबान को हरा कर अफगानिस्तान पर काबिज हो चुका था। सरकार के शुरुआती दिन थे और काबुल की सड़कों पर चर्चा थी कि अब सब अफगानी मिल कर एक आधुनिक, शांतिपूर्ण और खुशहाल देश बनाएंगे। काबुल के दो सिनेमाघरों में हिंदी फिल्में चल रही थीं- ‘हिंदुस्तान की कसम’ और ‘मेरा गांव, मेरा देश’। दोनों फिल्में बहुत पुरानी थीं। मेरे जेहन से भी उतर चुकी थीं, पर काबुल में खूब लोकप्रिय हो रही थीं। ‘हिंदुस्तान की कसम’ भारत-पाक युद्ध पर आधारित थी और ‘मेरा गांव, मेरा देश’ डकैतों के बारे में थी।
‘सालों बाद हॉल में फिल्म देखने को मिली है, तालिबान वालों ने तो बैन लगा रखा था। घर में वीसीआर पर देख कर कुछ मजा ले लेते थे’, मेरे गाइड ने बताया था। कौन-सा हीरो यहां सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है, मैंने उससे पूछा था। सनी देओल, उसने तपाक से जवाब दिया था। सलमान खान नहीं? अफगान मेरी बात पर खूब हंसा था। वो छोकरी! उसको कौन पसंद करेगा! हम सबको सनी पसंद है- मर्द है। उसकी बॉडी देख कर मजा आता है। खूब मारपीट करता है- एकदम सही तरीके से। हमको बहुत अच्छा लगता है ये शेर का बच्चा।
काबुल का एअरपोर्ट तो खुल गया था, पर रनवे और टर्मिनल तक के रास्ते को छोड़ कर बाकी हर जगह बारूदी सुरंगें अभी तक लगी हुई थीं। हर तरफ विस्फोटक जमीन में दबा हुआ था, जिस पर पैर पड़ते ही धमाका हो सकता था। ‘सिर्फ सफेद लाइनों के बीच ही पैर रखिएगा’, जहाज से उतरते हुए एअरहोस्टेस ने हिदायत दी थी। एअरपोर्ट पर जहां भी नजर जा रही थी, वहां विमानों का कबाड़ फैला हुआ था। ध्वस्त या क्षतिग्रस्त लड़ाकू और यात्री विमान हाल में समाप्त युद्ध की कहानी कह रहे थे।
शहर का भी हाल कुछ ऐसा ही था। काबुल इंटरनेशनल होटल, जो एक जमाने में अपनी शानो-शौकत के लिए जाना जाता था, बुरे हाल में था। होटल अमेरिकी फौज के संरक्षण में था और सभी विदेशियों को सुरक्षा की दृष्टि से उसी में रुकने की सलाह दी गई थी। तालिबान-नार्दन अलायन्स युद्ध में इस पर खूब गोलाबारी हुई थी। मेरे कमरे की दीवारों में आमने-सामने दो बड़े सूराख थे, जिन पर गत्ता ठोंक दिया गया था। कभी एक गोला दीवार को छेदते हुए पार हो गया था।
मुगल सम्राट बाबर को काबुल बहुत पसंद था। इसकी वादियों की शान में उसने कई कसीदे लिखे थे। काबुल नदी उसकी चश्मे-नूर थी। हलांकि बाबर ने हिंदुस्तान पर राज किया, पर उसकी आखिरी ख्वाहिश काबुल में दफ्न होने की थी। वह यहीं दफ्न है। मैं काबुल नदी और बाबर का मकबरा देखने निकल पड़ा। शहर में बहुतों से दोनों के बारे में पूछा, पर कोई इनका पता बता नहीं पाया था। कौन-सी नदी, कौन बाबर, वे आश्चर्य से पूछते थे। एक दिन की तलाश के बाद मुझे नदी मिल गई- एक शिलालेख के रूप में, जो नदी पर बने पुल के एक कोने में लगा हुआ था। नदी गायब थी। वहां बाजार लगा हुआ था। दरिया को सूखे जमाना हो गया, एक बुजुर्ग ने बताया था। लाजमी है कि आज किसी को याद नहीं है कि काबुल में कोई नदी हुआ करती थी। और बाबर, उसने कहा, उसकी मजार तालिबान ने तोड़ दी थी। अब वहां कुछ नहीं है। पर मैं नहीं माना था। तालिबानियों के आसपास होने के बावजूद मैं वहां पहुंच गया था। खंडहर देख कर अपना कौतूहल शांत कर लिया था।
नदी को तालिबान पी गया था। उसने उद्गम से लेकर काबुल तक तालिबान ने नदी किनारे जंगल काट दिए थे। उनकी जगह अफीम लगा दी थी। नदी के पानी के स्रोत नष्ट कर दिए थे। काबुल में अब सांय सांय ठंडी हवाएं चलती थीं, जो पथरीले पहाड़ों की महीन धूल की परत का उबटन उसके चेहरे पर दिन-रात लगा जाती थी। काबुल खुरदुरा हो चुका था।
नॉर्दन अलायन्स ने पिछले बीस साल में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के साथ मिल कर अफगानिस्तान को सरकार जरूर दी थी, पर तालिबान और इस्लामिक कट््टरवाद भूत की तरह उसके इर्द-गिर्द मड़राता रहा था। आम लोग पशुओं जैसी जिंदगी से एक तरफ तो उकता गए थे, पर दूसरी ओर अपने कबीले और उसके तौर-तरीके से इस तरह से अभिभूत थे कि सरदार के एक इशारे पर मर मिटने के लिए तैयार थे। वे हिंसा की संस्कृति से बाहर तो आना चाहते थे, पर उससे अपना दामन छुड़ाने में अपनी लाचारी भी स्वीकार करते थे। मिट्टी के टीलों को खोद कर, उसमें बिल बना कर जंगली जानवरों की तरह रह रहे थे।
बारूदी सुरंगों ने हजारों को अपंग कर दिया था, हर खानदान में विधवाओं का अंबार लगा हुआ था। जिहादी जवानों और औरतों पर कोड़े बरसा रहे थे, पर फिर भी अपने शौरा और जिगरा से वे बंधे हुए थे। मारकाट, जुल्म और कट््टरता के प्रति उनकी कटिबद्धता देख कर मैं सहम गया था। मुझे ऐसा लगा था कि दहशत उनके लिए एक खिलौना हो गई थी- कभी वे खुद खेल कर इससे मजा लेते थे और कभी दहशत उनसे खेल कर भुतहा अट्टाहास करती थी। वे दहशत में जन्मे थे और दहशतखोरी में रम गए थे।
पिछले बीस सालों में कुछ नहीं बदला है। अमेरिका आया था और अब चला भी गया है। पाकिस्तान तब भी सक्रिय था और आज भी है। भारत तब भी अफगानों का मददगार था और आगे भी रहेगा, इस्लामीकरण और तेज होता रहेगा। इनके चलते, आम अफगानी अपने देश से उसी तरह भागते रहेंगे जैसे जंगल में आग लगने पर वन्य जीव-जंतु बेतहाशा भागते हैं।
पर यह आतंकित दौड़-भाग सिर्फ एक छोटा-सा पहलू है। बड़ा फलसफा यह है कि भय का राज अफगानिस्तान की जीवन-शैली बन चुका है। अपने हों या पराए, दोनों से उसका रिश्ता डर की नींव पर खड़ा है। अफगानी तालिबानी जिहादियों से डरते हैं, तालिबानी पंजशीर के पठानों से और दोनों पश्चिमी सभ्यता की आधुनिकतावादी घुड़की से। दूसरी तरफ, दुनिया अफगानी मुल्लावाद से भयभीत है। हर तरफ डर ही डर है। वास्तव में, जब भय की राजनीति की जाती है तो उसका परिणाम अफगानिस्तान जैसा होता है।