राकेश सिन्हा

जार्ज सोरोस ने भारतीय लोकतंत्र के संबंध में एक नकारात्मक बयान दिया। उस पर भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने उन्हें ‘व्यापारी, वृद्ध और खतरनाक’ कहा है। पश्चिम के बड़े व्यापारी विचारों की दुनिया में हस्तक्षेप करने को अपना दूसरा पेशा मानते हैं। दरअसल, इसका उद्देश्य पूंजीवादी प्रवृत्ति और व्यवस्था को खुले समाज के जुमलों द्वारा वैधानिकता देना और पश्चिम के वैचारिक आधिपत्य को समृद्ध करना होता है। सोरोस इसके अपवाद नहीं हैं। न ही वे पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने भारत को निशाना बनाया है।

गांधी जी ने ‘ड्रेन इंस्पेक्टर की रिपोर्ट’ कह कर कैथरिन मेयो को खारिज किया था

1927 में कैथरिन मेयो ने, जो अमेरिकी पत्रकार थी, ‘मदर इंडिया’ नामक पुस्तक में भारतीय समाज के कुछ विरोधाभासों को अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके से उभार कर राष्ट्र की विकृत छवि पेश की थी। महात्मा गांधी ने उसका उपयुक्त जवाब दिया था। उन्होंने उसे ‘ड्रेन इंस्पेक्टर की रिपोर्ट’ कह कर खारिज कर दिया था। पश्चिम की आधिपत्यवादी मानसिकता उसके पूर्व के साम्राज्यवादी चरित्र की छाया है, जो उसका पीछा नहीं छोड़ रही है। पूर्व औपनिवेशिक देशों के स्वतंत्र, स्वायत्त और सभ्यतायी उभार को वे सहन नहीं कर पाते हैं।

इस प्रश्न पर पश्चिम के चिंतकों और बुद्धिजीवियों में गजब की एकता दिखाई पड़ती है। लैटिन अमेरिका के देशों- वेनेजुएला, चिली, उरूग्वे, निकारागुआ, ब्राजील आदि में जब उन्नीस सौ अस्सी के दशक में प्रभावी नेतृत्व उभरा और उसने अमेरिकी वैचारिक प्रभाव को चुनौती दी, तब इन देशों के नेतृत्व की छवि खराब करने में अमेरिका-यूरोप के अखबार और चिंतक लग गए। उन्हें सफलता भी मिली। जब भी कोई देश वैचारिक समृद्धि के साथ पश्चिम के सामने जाता है, तब अघोषित युद्ध शुरू हो जाता है। सोरोस उसी अघोषित युद्ध का हिस्सा हैं।

भारत ने आजादी के बाद पहली बार अपनी विरासत में विद्यमान विचार और संस्कृति को तार्किक और तथ्यात्मक रूप से रखना शुरू किया है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कथन कि भारत लोकतंत्र की जननी है, यानी लोकतंत्र का प्राचीनतम स्वरूप भारत में रहा है, पश्चिम की वैचारिक दुनिया को आंदोलित कर रहा है। लोकतंत्र का संसदीय स्वरूप प्राचीन भारत में रहा है। वैदिक युग में दो सदनों का उल्लेख मिलता है, जिन्हें ‘सभा’ और ‘समिति’ के रूप में जाना जाता था। बाद के समय में लिच्छवी गणराज्य का स्वस्थ और समृद्ध स्वरूप सर्वविदित है। मगर पश्चिम ने इस तथ्य के प्रति अपनी आंखें बंद कर लीं। अमेरिका के वाइट हाउस की घोषणा इसका प्रमाण है। इसके अनुसार ‘हमारे (अमेरिकी राष्ट्र के) संस्थापकों ने सबसे पुराने लोकतंत्र ग्रीक की ओर देखा।’

BBC ने 1970 में ‘कलकत्ता’ नामक वृत्तचित्र बना भारत की विकृत छवि पेश की

यह अपवाद नहीं है। यूरोपीय काउंसिल ग्रीक के नगर राज्य एथेंस को लोकतंत्र का प्राचीनतम घर मानता है, तो पश्चिम की पत्रिका ‘नेशनल जियोग्राफी’ और ‘बीबीसी’ ऐसे ही दावों का गर्व पूर्वक उल्लेख करते रहे हैं। बीबीसी की टीम और सेवा भारत में दशकों से रही है। इसकी शोध टीम ने 1970 में ‘कलकत्ता’ नामक वृत्तचित्र बना कर भारत की विकृत छवि पेश की, पर उसके इस शोध दल को वैशाली के गणतंत्र की थाह नहीं चल पाई।

प्रधानमंत्री का कथन कई मामलों में महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने इसे गंभीरता से कहा है और भारतीय राज्य ने अपनी इस विरासत को वैश्विक विमर्श का हिस्सा बनाने का संकल्प लिया है। प्रधानमंत्री 2014 के बाद से लगातार आर्थिक प्रगति के साथ वैचारिक उन्नति पर देश-विदेश में जोर देते रहे हैं। इसलिए लोकतंत्र के संबंध में उनके दिए गए बयान को उनके भाषण का शृंगार समझना गलत होगा।
पश्चिम के चिंतक भारत के विचार और संस्कृति के इस अभियान को अपने आधिपत्य के लिए चुनौती मान रहे हैं। उनकी दोस्ती और सहानुभूति सदा भारत के ‘प्रतिष्ठित अकर्मण्यों’ के साथ रही है।

स्वतंत्र भारत का सबसे गलत और आत्मसमर्पण वाला निर्णय पूर्व साम्राज्यवादी ब्रिटेन के नेतृत्व वाले कामनवेल्थ (राष्ट्रकुल) का सदस्य बनना था। यह राष्ट्र की सामूहिक चेतना की अवमानना था। संसद में इस पर बहस में वैचारिक विरोधियों में भी इसकी सदस्यता के विरोध में एकता थी। कम्युनिस्ट, जनसंघ, सोशलिस्ट इसके घोर विरोधी थे। कांग्रेस का बड़ा तबका नेहरू के निर्णय से असहमत था।

एक प्रश्न उठा कि भारत एक गणतंत्र है और वह राजा के नेतृत्व वाली संस्था कामनवेल्थ का सदस्य कैसे हो सकता है। इस बात पर लीपापोती कर कामनवेल्थ में भ्रममूलक संशोधन किया गया। राजा का नेतृत्व विद्यमान रहा। राज्यसभा में कम्युनिस्ट पी. सुंदरैया ने नेहरू को निरुत्तर कर दिया था। सोशलिस्ट लोहिया और आचार्य जेबी कृपलानी विरोध में खड़े थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पत्र ‘आर्गनाइजर’ ने इसे राष्ट्र की अस्मिता और संप्रभुता दोनों पर चोट बताया।

यह वैचारिक दासता का स्वतंत्र भारत में पुनर्जन्म था। जिस दासता को समाप्त करने के लिए लोकमान्य तिलक, महर्षि अरविंद, बिपिन चंद्र पाल, महात्मा गांधी राष्ट्र को जगाते रहे, उसे स्वराज प्राप्ति के बाद अपने ही प्रतिष्ठित शासकों द्वारा कुचल दिया गया। वैचारिक क्षेत्र में अकर्मण्यता का यह दौर चलने लगा। पश्चिम जो पढ़ाता रहा, हम उसे पढ़ते रहे, जो राह दिखाता रहा, हम उस पर चलते रहे। यह धारा विश्वविद्यालय परिसर से लेकर चिंतकों तक अनवरत चलता रहा। इसी दुर्भाग्य के सारथियों को काका कालेलकर ने टालस्टाय की पुस्तक ‘अब हम क्या करें’ के अपने हिंदी अनुवाद के प्राक्कथन में ‘प्रतिष्ठित अकर्मण्य’ कहा है।

प्रधानमंत्री के ‘साफ्ट पावर’ के महत्त्व को दुनिया के सामने रखने और भारत के रचनात्मक विमर्श के अंकुरण ने उस अकर्मण्यता को भूतकाल की प्रवृत्ति बना दिया है। क्या पश्चिम इसे सहज तरीके से लेगा? क्या आक्सफर्ड, कैंब्रिज, हावर्ड जैसे ख्यातिलब्ध विश्वविद्यालय वैशाली के गणतंत्र को ग्रीक से पुराना मानकर वैचारिक विमर्श करने के लिए उत्साहित होंगे?

कदापि नहीं। वे वैकल्पिक विचार को अंकुरण की अवस्था में ही समाप्त करना चाहेंगे। जो प्रयोग लैटिन अमेरिका के उभरते प्रभावी नेतृत्व के साथ किया गया, वही वे भारत के नेतृत्व के साथ नहीं करेंगे, इसकी क्या गारंटी है। सोरोस का दुष्प्रचारवादी वक्तव्य भी उसी अभियान का हिस्सा है।

इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है। पिछले सात-आठ सौ सालों में पश्चिम ने सुदृढ़ वैचारिक तंत्र विकसित किया है। उसे वह ढहने नहीं देगा। वे भारत जैसे देश को अपने सिद्धांतों की प्रयोगशाला से अधिक कुछ भी बनने नहीं देना चाहते हैं। जो अमेरिका ‘ब्लैक’ और ‘वाइट’ के बीच के संबंधों और भेदभाव से उपजे संघर्षों पर मखमल की चादर डाल कर रखता है, वह भारत के कथित धार्मिक असहिष्णुता पर प्रत्येक वर्ष बेबुनियाद और अतिशयोक्तिपूर्ण रिपोर्ट जारी करता रहा है।

पश्चिम की इस श्रेष्ठता की मानसिकता को नया विमर्श खारिज करता है। यह उनकी घबराहट का कारण बनता जा रहा है। प्रधानमंत्री ने लोकतंत्र के संबंध में जो बात कही है, वह कैसे हमारे विमर्श में उपेक्षित रही है, इसका एक अच्छा उदाहरण है। 1924 में केपी जायसवाल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू पालिटी’ में शोध के जरिए भारत में गणतंत्र वैविध्य और समृद्ध स्वरूप को दिखाया था। यह पुस्तक उपेक्षित रही। भारतीय विचारक और विश्वविद्यालय इस गहन शोध से दूर रहे। प्रत्येक राष्ट्र के अभ्युदय का एक कालखंड होता है। उसे चित्रित करना और साझे प्रयास से अपनी समृद्ध विरासत से वर्तमान को सबल बनाना पीढ़ियों की ऐतिहासिक और नैतिक जिम्मेवारी होती है। भारत अब उसी कालखंड का हिस्सा है।

(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)