परिवर्तन समर्थकों और यथास्थिति चाहने वालों के बीच युद्धों के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है। 2021 में हमने अब तक जो देखा, उसके बाद साल 2022 एक और संघर्ष का गवाह बनेगा। आज का ताजा विषय जलवायु परिवर्तन है। जब आप इस लेख को पढ़ रहे होंगे, तब सीओपी-26 खत्म होने के करीब होगा, देश अपने वादे कर रहे होंगे, उनमें से कई वादे पूरे नहीं होंगे (जैसे वित्त पोषण), फिर भी बदलाव समर्थक इस संतुष्टि के साथ लौट सकते हैं कि उन्होंने छोटी-छोटी जीत हासिल कर ली थी और अगले युद्ध के लिए तैयार हो गए हैं। राजनीतिक लड़ाइयां इससे अलग नहीं हैं।

कैसा बदलाव
बदलाव की इच्छा हर किसी की होती है, लेकिन कुछ मामलों में बदलाव, जिसे लोगों का एक वर्ग चाहता है, आखिरकार देश को पीछे की ओर धकेल देगा। अमेरिका में टेक्सास राज्य ने एक कानून पास किया है, जो उस राज्य में गर्भपात को प्रभावी रूप से प्रतिबंधित कर देगा। ऐसा कानून एक महिला को उसके शरीर पर अधिकार से रोकता है। भारत में कुछ लोग नाम बदलने पर तुले हैं, इस गलतफहमी में कि ऐसा करके वे देश का फिर से इतिहास लिख डालेंगे। इसका ताजा उदाहरण भारतीय रेल है, जिसने फैजाबाद जंक्शन का नाम बदल कर अयोध्या कैंट कर दिया है।

वास्तविक बदलाव दीवारों को गिराएगा, लड़ाइयां रोकेगा और न सिर्फ देश के, बल्कि दुनिया के लोगों को एकजुट करेगा, असमानता कम करेगा, भूख खत्म करेगा और गरीबी का खात्मा करेगा। फिर भी धर्म, नस्ल, भाषा, जाति आदि के मतभेद बने रहेंगे, लेकिन इंसान को इन मतभेदों को स्वीकार करना चाहिए और जो चीजें साझा हैं, उनका जश्न मनाना चाहिए। हालांकि ऐसा दिन अभी काफी दूर है।

इस दौरान, हम वैयक्तिक आजादी पर हमला, कानूनों का दुरुपयोग, संस्थानों को कमजोर करने, धमकाने, बहुसंख्यकवाद, तानाशाही और व्यक्ति पूजा को बढ़ावा देने जैसी स्पष्ट रूप से गलत बातों के खिलाफ लड़ाई छेड़ सकते हैं, ताकि बदलाव आ सके। (टीकाकरण प्रमाणपत्र पर प्रधानमंत्री मोदी का फोटो क्यों होना चाहिए?)

बिना हथियार के लड़ाई
यह राजनीतिक लड़ाई है, जो बिना हथियार या हिंसा के लड़ी जा सकती है। इसे आम नागरिक भी लड़ सकता है। विंस्टन चर्चिल ने एक लोकतंत्र के काम करने के तरीके की व्याख्या करते हुए लिखा था- “कागज के एक छोटे-से टुकड़े पर छोटा-सा निशान लगाने के लिए हाथ में छोटी-सी पेंसिल लेकर जाने वाला छोटे से बूथ में एक मामूली आदमी।” यह वाकई उसी तरह आसान है, बस छोटी-सी पेंसिल की जगह एक छोटे-से बटन ने ले ली है।

पिछले हफ्ते चौदह राज्यों में ये मामूली पुरुष और महिला छोटे-छोटे मतदान केंद्रों पर गए और अपनी प्राथमिकताओं “बदलाव” या “यथास्थिति” के अनुसार अपना वोट डाला। ये मुख्य रूप से विधानसभा उपचुनाव थे, कुल मिलाकर तीस विधानसभाओं में। तीन लोकसभा सीटों पर नए प्रतिनिधि भी चुने गए। कुल मिलाकर राज्य का सत्तारूढ़ विजयी रहा, लेकिन एक अपवाद महत्त्वपूर्ण था। हिमाचल प्रदेश, जहां भाजपा सत्ता में है और जो भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का गृह प्रदेश है, कांग्रेस ने एकमात्र लोकसभा सीट और सभी तीन विधानसभा सीटें जीत लीं। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात वोटों का प्रतिशत रहा, जिसमें कांग्रेस को 48.9 फीसद और भाजपा को 28.05 फीसद वोट मिले।

इसी तरह महाराष्ट्र में जहां कांग्रेस ने एकमात्र सीट पर जीत हासिल की, उसका वोट प्रतिशत 57.03 फीसद रहा और भाजपा का 35.06 फीसद। राजस्थान में कांग्रेस दोनों सीटों पर जीत गई और वोट प्रतिशत 37.51 फीसद रहा, जबकि भाजपा को 18.80 फीसद वोट मिले। वोट प्रतिशत का यह फर्क असाधारण रूप से ज्यादा रहा।

जिन राज्यों में कांग्रेस भाजपा से हारी, वहां अंतर बहुत मामूली रहा। कर्नाटक में दोनों ही पार्टी एक-एक सीट पर जीतीं और भाजपा का वोट प्रतिशत 51.86 और कांग्रेस का 44.76 फीसद रहा। मध्यप्रदेश में भाजपा ने दो सीटें जीतीं तो कांग्रेस ने एक, और इसका अंतर मामूली ही रहा, भाजपा को 47.58 और कांग्रेस को 45.45 फीसद वोट मिले। सिर्फ असम में यह अंतर काफी बड़ा रहा।

नई बयार
छह राज्यों में, जहां कांग्रेस और भाजपा में सीधा मुकाबला था, निस्संदेह कांग्रेस विजयी रही। इसके अलावा कुल मिलाकर भाजपा ने सात और कांग्रेस ने आठ सीटों पर जीत हासिल की। कांग्रेस की इस यात्रा के पीछे नई बयार है।

हालांकि तीन कारणों के लिए अंतिम तौर पर किसी नतीजे पर पहुंचना पूरी तरह गलत होगा। पहला कारण जो चार राज्यों- आंध्र प्रदेश, बिहार, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में रहा, जहां दो मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा और उसके सहयोगी और एक क्षेत्रीय पार्टी के थे, कांग्रेस दौड़ से बाहर थी। दूसरा यह कि पांच में से चार राज्यों, जहां अगले साल यानी 2022 में चुनाव होने हैं और भाजपा सत्ता में है, वहां कांग्रेस को राजनीतिक और धन की ताकत से लड़ना है। तीसरा कारण है कि कांग्रेस को भारी नुकसान की भरपाई करनी है (दो सौ बहत्तर के मुकाबले बावन) और इसके लिए उसे सहयोगियों की जरूरत है।

अगले लोकसभा चुनाव में सिर्फ निर्णायक वोट ही भाजपा को सत्ता से उखाड़ पाएगा। सरकार में ऐसा बदलाव तभी हो सकता है जब मतदाता सुस्त आर्थिक वृद्धि, बढ़ती कीमतें, चरम पर बेरोजगारी, लोगों को बांटने और भेदभाव वाले कानूनों, कानून प्रवर्तन एजंसियों के बेजा इस्तेमाल और खौफ के माहौल जैसे मुद्दों से सरोकार रखेंगे।

वर्तमान में मतदाताओं के दिमाग में तेजी से बढ़ती कीमतें चल रही दिखती हैं। दूसरी नकारात्मक बातें भी असर डाल सकती हैं। इसके अलावा हिंदुत्व, अयोध्या, पाकिस्तान दुश्मन है, प्रवासी दीमक हैं आदि मुद्दे भी मतदाताओं के दिमाग पर गलत असर डाल रहे हैं, खासतौर से हिंदीभाषी राज्यों में। क्या क्षेत्रीय दल “यथास्थिति” से संतुष्ट रहेंगे या वाकई बदलाव समर्थक होने की अपनी ख्याति को सच साबित करेंगे? ये ऐसे सवाल हैं, जिनका हर राजनीतिक दल और हर मतदाता को भी जवाब देना चाहिए।