भारत के संविधान को लेकर चर्चाएं कई स्तरों पर होती रहती हैं। संविधान बनाने वाले अधिकतर लोग वे थे, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी की थी। उनका समर्पण, त्याग, देश के लिए कुछ करने की तीव्र इच्छा और एक संयमी एवं संवेदनशील शासन व्यवस्था निर्मित करने की चाह संविधान सभा की उपलब्ध प्रकाशित चर्चाओं में हृदय के अंतरतम से उभरती दिखाई देती है। उन्होंने परिवर्तन की गति और दिशा को ठीक से पहचाना था। समय के अनुसार संविधान में संशोधन करने का प्रावधान भी रखा था। वे भी जानते थे कि देश में मूल्यों और नैतिकता को लेकर जो वातावरण उस समय उपलब्ध था, वह बदलेगा। जाहिर है कि वे भविष्य के भारत के लिए चिंतित थे। संविधान सभा में दिए गए राजेंद्र प्रसाद और भीम राव आंबेडकर के समापन वक्तव्य इस ओर गहराई से ध्यान दिलाते हैं।
कई बार ऐसा लगता है कि संविधान की जितनी सामान्य समझ हर नागरिक को होनी चाहिए, वह ऊंचे स्तर तक पहुंच चुकी है। आपातकाल का लगाया जाना और संविधान को तोड़ने-मरोड़ने वालों को जनता द्वारा अपने मताधिकार से पदच्युत करना, यह सब देश के नागरिकों में लोकतंत्र की बढ़ी समझ को दर्शाता है। जिन पर जनता ने विश्वास किया, वे उस पर खरे नही उतरे और उन्हें समय से पहले ही हटा दिया गया। यह संविधान की सफलता का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय था।
संविधान लागू होने के 75 वर्ष बाद भी संसद में आज इसकी वह गहराई सामने नहीं आती है, जिसकी अपेक्षा सामान्य नागरिक करता है। भाषागत शालीनता का चिंताजनक स्थिति तक ह्रास हुआ है। कार्य संस्कृति में उत्तरदायित्व बोध स्वीकार्य स्तर की ओर बढ़ता नहीं दिखाई देता है। सदस्यों में अध्ययन, विश्लेषण और शोध की प्रवृत्ति, जो पहले दो-तीन दशकों में मन प्रफुल्लित कर देती थी, अब लगातार कमजोर होती दिखाई पड़ती है।
क्या संसद सदस्य यह भूल सकते हैं कि उनके व्यवहार को करोड़ों लोग विशेषकर युवा देख रहे हैं। अनेक अवसरों पर लगता है कि किसी प्रस्ताव का विरोध या समर्थन केवल दलगत आधार पर या वोट की संख्या बढ़ाने को ध्यान में रख कर किया जा रहा है। इन अवसरों पर स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे लोगों को यह कहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है कि वे संविधान की आत्मा से परिचित है! वर्ष 1952 से 1967 तक ‘एक देश एक चुनाव’ जैसा कोई नारा नहीं सुना गया था, लेकिन उसे व्यवहार में देखा गया।
देश के मूर्धन्य नेताओं को उसमें भागीदारी करते देखा गया। आज जब इसे पुन: स्थापित करने का प्रश्न उठाया जा रहा है, तब यह समझ पाना अत्यंत कठिन है कि पहले बीस वर्ष जिसे संवैधानिक मान कर सत्ता में रहते हुए उसे लागू करने वाले आज उसको असंवैधानिक कैसे घोषित कर रहे हैं। ऐसी सोच वाले लोग, जो देशहित से अधिक दलगत हित को प्रमुखता देते हैं, और एन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने को ही लोकतंत्र का एकमात्र लक्ष्य मानते है, वे कैसे भूल जाते हैं कि वे उन कितने मूर्धन्य स्वतंत्रता सेनानियों का असम्मान कर रहे हैं, जिन्होंने देशहित के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। क्या देशहित में इस पर ईमानदार बहस करने का प्रयास नहीं किया जा सकता है?
जिस देश में संविधान और उससे जुड़ी प्रक्रियाएं केवल चुनाव और सत्ता प्राप्ति तक ही सीमित मान ली गई हों, वहां लोकतंत्र का ह्रास होना निश्चित है। नेताओं में विशेषकर स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े सेनानियों और आगे चल कर उनका सम्मान करने वालों के कारण ही भारत में संविधान की जड़ें इतनी गहराई तक चली गई हैं कि इनमें जाति, संप्रदाय, भाषागत विविधता और क्षेत्रवाद जैसे वैमनस्य का मट्ठा डालने वालों को लंबी सफलता कभी नहीं मिलेगी। यह भी हर नागरिक को जानना होगा कि लोकतंत्र को केवल चुनाव में जीत, सत्ता की प्राप्ति और संपत्ति का स्वार्थपूर्ण संचय तक सीमित करने वालों पर उसे ही निगाह रखनी होगी।
इस समय राजनीति में व्यग्रता हर ओर दिखाई देती है। पक्ष और विपक्ष ऐसे मुद्दों पर अपना और राष्ट्र का समय अनावश्यक आरोप-प्रत्यारोप में नष्ट कर रहे हैं, जिसका राष्ट्र हित में कोई स्थान है ही नहीं। यह व्यग्रता संसद की बहसों में, टीवी पर चर्चा में तथा नेताओं के वक्तव्यों में खुल कर दिखाई देती है। जो सत्ता में नहीं हैं, उनकी व्यग्रता वापस उसे प्राप्त करना है और जो सत्ता में हैं, वे बने रहने को व्यग्र हैं।
व्यग्रता उग्रता को जन्म देती है और यह उग्रता युवा पीढ़ी तक पहुंचाने का प्रयास स्पष्ट दिखाई देता है। मुंबई में मराठी न बोल पाने वालों पर हिंसा करना क्या भारत की संस्कृति का कभी किसी प्रकार हिस्सा रहा है? यदि नहीं तो हिंदी-मराठी या हिंदी-तमिल जैसे भेदभाव बढ़ाने का कोई भी प्रयास क्या कभी बाबा साहेब आंबेडकर की स्वीकृति पा सकता था? यह वक्त ऐसा है, जिसमें कोई भी अशोभनीय घटना यदि मुंबई या बिहार में होती है, तो कुछ मिनट में ही उसका प्रभाव गुवाहाटी या भुवनेश्वर की कक्षाओं में दिखाई देता है। क्या यह युवा पीढ़ी के प्रति घोर अन्याय नहीं है?
जो लोग संविधान पर अपने विचार बिना जाने-समझे या पढ़े व्यक्त करते हैं, उनकी स्थिति अनेक अवसरों पर दयनीय ही लगती है। एक अध्ययन के पश्चात एनसीईआरटी ने वर्ष 2000 में संविधान पर एक ऐसी पुस्तक तैयार कराई थी, जो किसी कक्षा या परीक्षा के लिए नहीं लिखी गई थी, लेकिन यह अध्यापकों तथा सामान्य जन के लिए ध्यान में रख कर, संविधान के मूल तत्त्वों और उसकी आत्मा से हर व्यक्ति को परिचित कराने के उद्देश्य को पूरा करती थी। इस प्रकार के प्रयास की वृहत स्तर पर आवश्यकता है।
जनप्रतिनिधियों को इस प्रकार के अध्ययन और शोध के लिए प्रेरणा देना हर राजनीतिक दल का कर्त्तव्य है। नेताओं और उनके कार्यकर्ताओं को सामान्य जन की उन कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए, जिनका सामना उनको थाना-कचहरी और अस्पतालों में प्राय: करना पड़ता है। चयनित प्रतिनिधियों की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि तो यही होगी कि वे अपने मतदाता से; उसके अंतर्मन से; उद्गर प्राप्त कर सकें कि ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’।