कुछ समय पहले मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में बारहवीं कक्षा के नाबालिग छात्र ने स्कूल के प्रधानाचार्य की गोली से मार कर हत्या कर दी। यह दुस्साहस उसने मामूली डांट से नाराज होकर किया। विद्यालय परिसर में ही प्रधानाचार्य को गोली मारने की यह घटना बच्चों की दिशाहीन और असहिष्णु मनोदशा का उदाहरण है। प्रधानाचार्य ने हिदायत देते हुए छात्र को समझाया भर था। इस घटना को केवल बाल मन का क्षणिक आक्रोश नहीं कहा जा सकता। न ही यह किसी मानसिक उलझन का परिणाम है, क्योंकि विद्यालय के सीसीटीवी फुटेज में प्रधानाचार्य को गोली मारने के बाद आरोपी छात्र नाचते और यह कहते हुए वहां से जाता दिखा कि मैं खलनायक हूं। जीवन और समाज से जुड़े हर पहलू के लिहाज से यह गंभीर मुद्दा है।

शिक्षक: जिम्मेदारी निभाने की कीमत

कैसी विडंबना है कि बच्चों को समझाने और उचित मार्गदर्शन देने का अधिकार रखने वाले शिक्षक का जीवन अपनी जिम्मेदारी निभाने के कारण छिन गया। सवाल है कि जब कुछ सुनने-समझने की सोच ही नदारद है, तो बच्चों को थामने-संभालने के जतन आखिर कैसे किए जाएं। बच्चों के मन को दिशा देने में अभिभावकों के बाद शिक्षकों की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण होती है। पारिवारिक परिवेश के बाद विद्यालय परिसर में ही देश के भावी नागरिकों के जीवन को संवारने का काम होता है।

अभिभावक और शिक्षक: बच्चों को दिशा देने की मुख्य कड़ी

हाल के बरसों में देश के कई हिस्से से शिक्षकों से बच्चों द्वारा दुर्व्यवहार के समाचार सामने आए हैं। कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में भी स्कूल अध्यापक द्वारा नौवीं के छात्र को कक्षा में मोबाइल फोन चलाने से मना करने पर दुर्व्यवहार झेलना पड़ा। डांट से नाराज छात्र ने दो साथियों के साथ मिल कर शिक्षक की पिटाई कर दी थी। इन्हीं दिनों छत्तीसगढ़ में एक स्कूल में फोन लेकर गए ग्यारहवीं कक्षा के छात्र को शिक्षक का टोकना इतना बुरा लगा कि उसने चाकू मार कर उन्हें घायल कर दिया। ऐसी घटनाएं चिंतित करती हैं और निराश भी कि आखिर नाबालिग बच्चों का मन-मस्तिष्क किस ओर जा रहा है।

शिक्षकों के साथ बढ़ती दुर्व्यवहार की घटनाएं

कोई दो राय नहीं कि किशोर बच्चों के मन का भटकाव सचमुच विकृत स्थितियां पैदा कर रहा है। मगर इससे इतर अपराध करने का दुस्साहस परिवार और प्रशासन दोनों के लिए चिंता का विषय है। समस्या यह भी कि एक बार अपराध के दलदल में फंस जाने के बाद इन्हें बाहर निकालने का रास्ता भी आसान नहीं है। ऐसे दिशाहीन किशोर बड़े गिरोहों का ‘औजार’ बन संगीन अपराध की राह पर भी चल पड़ते हैं। उनकी हिंसक प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। बावजूद इसके अपराधों के दलदल में धंसते बच्चे न कुछ सुनना चाहते हैं और न ही कुछ समझना। एक ओर किशोर आयुवर्ग के बच्चे मानसिक विचलन के शिकार बन रहे हैं, तो दूसरी ओर आपराधिक घटनाओं में संलिप्त होने का दुस्साहस कर रहे हैं।

किशोर मनोविज्ञान का भटकाव

विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ की हालिया रपट ‘मेंटल हेल्थ आफ चिल्ड्रन एंड यंग पीपल’ कहती है कि दुनिया में दस से उन्नीस वर्ष का हर सातवां बच्चा मानसिक परेशानियों से जूझ रहा है। इनमें अवसाद, बेचैनी और व्यवहार से जुड़ी समस्याएं शामिल हैं। भारत में भी बच्चों और किशोरों में बढ़ता अवसाद एक बड़ी समस्या बन गया है। चंडीगढ़ स्थित ‘पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च’ (पीजीआइएमईआर) और ‘स्कूल आफ पब्लिक’ के एक अध्ययन के अनुसार स्कूली बच्चों में तेरह से अठारह वर्ष के अधिकांश किशोर अवसाद का शिकार हो रहे हैं। सरकारी और निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को लेकर हुए इस अध्ययन के अनुसार चालीस फीसद किशोर किसी न किसी रूप में अवसाद का शिकार हैं। इनमें से 7.6 फीसद गहरे अवसाद के घेरे में हैं।

मानसिक स्वास्थ्य: बच्चों की बड़ी समस्या

एक ओर आभासी दुनिया में बच्चों का मन भरमाने वाली सामग्री उन्हें दिशाहीन बना रही है, तो दूसरी ओर नाबालिगों तक भी हथियारों की पहुंच हो गई है। समझना कठिन नहीं कि एक आपराधिक घटना अंजाम देने के बाद किसी बच्चे का उत्सव मनाना उसकी अवास्तविक होती जा रही मन:स्थिति को ही सामने रखता है। हर समय स्क्रीन ‘स्क्राल’ करते बच्चों का बदलता मनोविज्ञान वीभत्स घटना को भी मानो कोई ‘रील’ ही समझ रहा है। चिंता की बात यह कि उनके दिशाहीन विचारों को धरातल पर उतारने के लिए हमउम्र साथियों का साथ भी मिल रहा है और हथियार भी। मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में हुई घटना का सबसे चौंकाने वाला पक्ष यह है कि छात्र ने पिस्तौल खरीदी। कौन देता है उन्हें ये हथियार?

असल में, विद्यार्थियों में बढ़ती यह घातक प्रवृत्ति शिक्षकों का मनोबल तोड़ने वाली भी है। ऐसे मामलों को देखते हुए कैसे औपचारिक रीति-नीति से हट कर किसी विद्यार्थी को जीवन का पाठ पढ़ाया जा सकता है? विद्यालय परिसर में बच्चों के सर्वांगीण विकास का परिवेश कैसे बनाया जा सकता है? आक्रामक और असहिष्णु हो रहे बच्चों को संभालने के क्या जतन किए जा सकते हैं? एक ओर स्कूलों में शिक्षकों की कमी है, तो दूसरी ओर अपनी जिम्मेदारी को लेकर प्रतिबद्ध शिक्षकों के साथ ऐसी घटनाएं हो रही हैं। मध्यप्रदेश की घटना में सहकर्मियों का कहना है कि प्रधानाचार्य बिगड़े छात्रों को समझाते थे। अगर बात नहीं बनती थी, तो वे ऐसे छात्रों के माता-पिता को बुलाते थे। ऐसे में समझना कठिन नहीं कि बच्चों में अनुशासनहीनता दूर करने का दायित्व लिए शिक्षकों में कैसी दुविधा होगी।

देश की लचर कानूनी प्रक्रिया भी बाल अपराधियों के आंकड़े बढ़ा रही है। ऐसी घटनाओं को सोच-समझ कर अंजाम देने वाले अपवाद स्वरूप कुछ नाबालिग भी कानूनों का दुरुपयोग कर बच निकलते हैं। ऐसे बच्चे संवेदनशील नागरिक बनना तो दूर ठीक से मानवीय व्यवहार भी नहीं सीख रहे हैं। इन परिस्थितियों में अभिभावकों और शिक्षकों से मिली सहज-सी सलाह-समझाइश भर से आक्रोशित होकर प्रतिशोध लेने की भावना कैसे पैदा हो रही हैं, इसे समझने के लिए जड़ों में जाना होगा।