जब नरेंद्र मोदी और मुफ्ती मोहम्मद सईद ने गले मिल कर कश्मीर में गठबंधन सरकार का एलान किया था पिछले साल तकरीबन इसी समय तो ऐसा लगा जैसे नए सिरे से हल ढूंढ़ा जाएगा भारत की इस सबसे पुरानी और पेचीदा राजनीतिक समस्या का। भारतीय जनता पार्टी पहली बार सत्ता में हिस्सेदार बनी थी जम्मू-कश्मीर में और ऐसा होने से खुल गया था इतिहास का नया पन्ना। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह भी उम्मीद थी कि देश की सुरक्षा उनके हाथों में महफूज है, सो जिस राज्य में राष्ट्र की सुरक्षा को सबसे ज्यादा खतरा है, सोचा था कि उस पर खास ध्यान दिया जाएगा। लेकिन एक साल बाद ऐसा लगने लगा है कि दिल्ली और श्रीनगर के बीच जो शुरू से खाई रही है वह और चौड़ी हो गई है।
दोष सिर्फ दिल्ली का नहीं, लेकिन कुछ दोष तो है, जो सीधे प्रधानमंत्री के माथे लगता है। कश्मीर घाटी में जब झेलम नदी में भयंकर बाढ़ आई थी सितंबर 2014 में तो नरेंद्र मोदी खुद गए थे कश्मीर और वादा करके आए कि राहत पहुंचाने में उनकी तरफ से कोई लापरवाही, कोई विलंब नहीं होगा। मगर दिल्ली लौटने के बाद ऐसा लगा कि वे या तो इस वादे को भूल गए या उनका ध्यान अन्य समस्याओं में उलझा रहा। सो, पिछले साल मैं जब इत्तिफाक से श्रीनगर सितंबर के पहले हफ्ते में पहुंची तो बाढ़ आने के बाद एक पूरा साल गुजर चुका था और राहत का नामो-निशान नहीं था।
श्रीनगर के उन इलाकों में घूमने गई थी, जहां बाढ़ ने सबसे ज्यादा तबाही मचाई थी और जिससे भी बात हुई एक ही कहानी सुनने को मिली: राहत के तौर पर कुछ नहीं मिला है हमें। कुछ लोगों को थोड़े-बहुत पैसे मिले थे कश्मीर सरकार से, लेकिन ये इतने कम थे कि न ही वे अपने बर्बाद घरों को दोबारा बना सके और न राहत के तौर पर कुछ और कर सके। नतीजा यह कि हर जगह मायूसी और गुस्से का माहौल था। क्या यही वजह है कि महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री बनने से कतरा रही हैं? क्या उनको मालूम है कि राहत समय पर न आने से उनके पिताजी की लोकप्रियता कम हो गई थी? या क्या वे इसलिए मुख्यमंत्री बनने से घबरा रही हैं कि वे जानती हैं कि तजरुबे का अभाव उनको भारी पड़ेगा?
कारण जो भी हो, जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में सरकार का एक महीने से इस तरह लटके रहना खतरनाक है। सो, या तो महबूबा खुद अपनी विरासत संभालें या किसी और को अपनी जगह बिठाने का काम करें। उनकी पार्टी में हैं ऐसे लोग, जो बहुत काबिल मुख्यमंत्री साबित हो सकते हैं और भारतीय जनता पार्टी में भी जरूर होंगे, तो नई सरकार बनाने में कोई कठिनाई नहीं दिखती है। मगर समय की पाबंदियां हैं, क्योंकि सरकार ही नहीं बन पाती है अगर श्रीनगर में तो कहां से आएगा कश्मीर के मसले का वह हल, जिसका दशकों से हमको इंतजार है। समस्याएं सिर्फ कश्मीर घाटी में नहीं हैं, जम्मू और लद्दाख में भी हैं, लेकिन बिल्कुल अलग। घाटी में समस्याएं राजनीतिक हैं, तो जम्मू और लद्दाख में आर्थिक हैं। विकास की गाड़ी लद्दाख और जम्मू में उस समय से रुकी हुई है, जिस समय घाटी में आजादी का आंदोलन शुरू हुआ महबूबा की बहन रूबिया के अगवा होने के बाद। इतनी अलग हैं इस राज्य के तीन प्रांतों की समस्याएं कि समाधान ढूंढ़ने के लिए तीनों प्रांतों को अलग होना पड़ेगा कभी। लेकिन फिलहाल इन चीजों की बात भी नहीं हो सकती, क्योंकि पहले श्रीनगर में सरकार जल्दी बनाने पर ध्यान देना है।
मामला सिर्फ कश्मीर का नहीं, राष्ट्र की सुरक्षा का है। इस लेख को लिखने के बीच मैंने दो मिनट टीवी चलाया समाचार सुनने के लिए और जनरल परवेज मुशर्रफ का चेहरा सामने आया इंडिया टुडे चैनल पर। राहुल कंवल ने बार-बार उनसे कबूल करवाने की कोशिश की कि पाकिस्तानी सेना ही जिम्मेवार है पठानकोट जैसे हमलों के लिए और बार-बार जनरल साहब ने कहा कि ऐसा होता रहेगा जब तक कश्मीर का मसला हल नहीं होता। कहने का मतलब यह कि जब तक हम अपनी अंदरूनी कश्मीर समस्या का समाधान नहीं ढूंढ़ पाते हैं तब तक हमको पाकिस्तानियों से इस तरह की बातें सुननी पड़ेंगी। कश्मीर में जब शांति, विकास और तरक्की दिखने लगेगी सबको तो हम सीना तान कर कह सकेंगे पाकिस्तान को कि कश्मीर हमारा है और हमारा रहेगा।
इन चीजों के बारे में अगर महबूबा ने सोचा होता तो शायद सरकार बनने के रास्ते में वे खुद अड़चन न बनतीं। अगर वे इस तरह का विलंब इसलिए कर रही हैं कि वे कश्मीर की जिहादी तंजीमों की आंखों में अपनी छवि सुधारना चाहती हैं, तो उनको मुख्यमंत्री बनने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं, जिनमें सिर्फ प्रधानमंत्री खुद हस्तक्षेप कर सकते हैं। उनकी तरफ से अभी हम इतना भी नहीं जान पाए हैं कि कश्मीर को लेकर उनकी नीति क्या है। कश्मीर घाटी से कुछ आवाजें उठी हैं, जिनका कहना है कि मोदी को वाजपेयी के दिखाए नक्शेकदम पर चलना चाहिए, लेकिन ऐसा कहना गलत है। वह समय और था और कश्मीर में उस समय माहौल भी और था। उस समय आजादी की मांग घाटी के गांव-गांव से उठी थी और हिजबुल मुजाहिदीन जैसी जिहादी तंजीमों का पूरी घाटी में दबदबा था। आज ऐसा नहीं है। आज कश्मीर के लोग आजादी के आंदोलन से थके नजर आते हैं। आज शायद इतिहास में पहली बार उनकी मांगें आर्थिक हैं, राजनीतिक नहीं। यानी अमन-शांति बहाल करने का इससे अच्छा मौका शायद ही फिर आएगा। इसको गांवाना नहीं चाहिए किसी हाल में।