लोकसभा चुनाव के बाद से नीम बेहोशी की हालत में चल रही कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में सहारे की तलाश है। बहुजन समाज पार्टी से तालमेल की उसकी कोशिश को मायावती ने धता बता दी। ले-देकर अब उसके पास उत्तर प्रदेश में भी बिहार के प्रयोग को आजमाने का विकल्प ही बचा है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसकी पहल भी कर चुके हैं। बुधवार को उन्होंने दिल्ली में राष्ट्रीय लोकदल के मुखिया अजित सिंह से अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मुद्दे पर मंत्रणा की।

जद (एकी) महासचिव केसी त्यागी के मुताबिक फिलहाल जद (एकी), कांग्रेस, रालोद और पीस पार्टी का गठबंधन बनाने पर विचार हुआ है। डाक्टर अयूब की पीस पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव में चार सीटें जीती थीं। कोशिश अपना दल को तोड़ कर कृष्णा पटेल की अगुवाई वाले धड़े को भी गठबंधन में शामिल करने की है। हालांकि अपना दल अधिकृत तौर पर अभी राजग का हिस्सा है और उसकी नेता अनुप्रिया पटेल मंत्री पद की दौड़ में भी शामिल हैं। इस गठबंधन का मकसद कुर्मियों, मुसलमानों और जाटों को एकजुट करना है। कांग्रेस का साथ होने से यह गठबंधन मुसलमान मतों को भी लुभाने की कोशिश करेगा।

लेकिन दुविधा यह है कि उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरण बिहार से अलग हैं। बिहार में कांग्रेस का जद (एकी) के मुकाबले कमजोर जनाधार था तो उत्तर प्रदेश में जद (एकी) का अभी कोई जनाधार है ही नहीं। समाजवादी पार्टी और भाजपा की चुनौती से निपटने के लिए इन दलों को बसपा को भी साथ लेना पड़ेगा। पर मायावती किसी भी दल से चुनाव पूर्व किसी भी तरह का तालमेल करने को तैयार हैं ही नहीं। वे तो मान कर चल रही हैं कि जब मतदाता सपा के खिलाफ अपनी राय देंगे तो कारगर विकल्प केवल बसपा ही होगी।

कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में खुद ही अपने को रसातल में पहुंचाया है। जमीनी स्तर पर पार्टी न किसी आंदोलन में दिलचस्पी लेती है और न चुनाव प्रक्रिया में। मसलन, पंचायत और शहरी निकाय से लेकर सहकारिता और गन्ना संघ की राजनीति में पार्टी का दशकों से अता-पता नहीं। जबकि जनाधार बढ़ाने में असली योगदान इन्हीं चुनावों का होता है। हालत यह है कि प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री अस्वस्थ होने के कारण गाहे-बगाहे ही लखनऊ और फैजाबाद से बाहर जाते हैं। जबकि विधानसभा में पार्टी के नेता प्रदीप माथुर का भी पार्टी कार्यकर्ताओं से कोई सरोकार नहीं। विधान परिषद में पार्टी के एक ही सदस्य हैं- नसीब पठान। कभी नरेश अग्रवाल और पुत्तू अवस्थी की टोली के सक्रिय सदस्य रहे नसीब पठान खुद को विधान परिषद में पार्टी का नेता बताते हैं। यानी अकेले सदस्य भी हैं और नेता भी खुद ही हैं।

नसीब पठान को पार्टी ने मुसलमानों को खुश करने के लिए तरजीह दी थी। पर उनके जनाधार का आलम यह है कि विधानसभा चुनाव में वे अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए। फिर भी दूसरी बार एमएलसी हैं। पहले पार्टी के प्रभारी दिग्विजय सिंह थे। वे पार्टी गतिविधियों में सक्रिय दिलचस्पी लेते थे। उनकी जगह गुजरात के आदिवासी नेता मधुसूदन मिस्त्री को पार्टी ने उत्तर प्रदेश का प्रभारी बना रखा है, जिनका आम कार्यकर्ता तो दूर पार्टी नेताओं तक से कोई संवाद नहीं होता। सूबे में वे यदा-कदा ही नजर आते हैं।

अनुशासनहीनता तो शिखर पर है ही। पिछले दिनों मेरठ के जिला अध्यक्ष विनय प्रधान ने पूर्व विधायक और एआइसीसी सदस्य राजेंद्र शर्मा को पार्टी से निकाल दिया। आरोप लगाया कि वे अपने घर पर दूसरे दलों के नेताओं की बैठक कर रहे थे। शर्मा प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष और महासचिव रहे हैं। वे जन्मजात कांग्रेसी और जनाधार वाले नेता माने जाते हैं। नियमानुसार उन्हें पार्टी से आलाकमान ही बाहर कर सकता है। पर हैरानी का बात है कि जिला अध्यक्ष का फैसला अनुचित और बेमतलब होने का आज तक न पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ने खुलासा किया और न प्रभारी ने।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आलाकमान ने राष्ट्रीय सचिव और दिल्ली के पूर्व विधायक नसीब सिंह को प्रभारी बना रखा है। उनका योगदान इतना ही है कि गाजियाबाद, हापुड़, गौतमबुद्धनगर और मेरठ सभी जिलों में उन्होंने अपनी गुर्जर जाति के अध्यक्ष बनवा दिए। न जातीय संतुलन बिठाया और न जनाधार को कसौटी माना। सूबे के कांग्रेसी अब प्रमोद तिवारी को याद कर रहे हैं जो अरसे तक विधानसभा में पार्टी के नेता रहे और ब्राह्मणों पर उनकी अच्छी पकड़ थी। लेकिन विरोधी खेमे ने उन्हें राज्यसभा सदस्य बनवा कर सूबे की सियासत से बाहर कर दिया। जाटों को पार्टी की केंद्र सरकार ने लोकसभा चुनाव से पहले आरक्षण देकर तुरुप का पत्ता चला था, पर उसका भी कोई लाभ नहीं मिला।