जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) विवाद ने दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार के पहला साल बेमिसाल अभियान को कमजोर कर दिया। केजरीवाल और उनकी पार्टी ने जिस तरह से हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी को बाकी विरोधी दलों के साथ मुद्दा बनाया, वोट बैंक की राजनीति में उस तरह का रुख जेएनयू मामले में नहीं रख पाए।

यह वैसा ही हुआ जैसा घोषित करके भी केजरीवाल ने सितंबर के बिहार विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए चुनाव प्रचार नहीं किया। उन्हें तब भय था कि उससे दिल्ली का बिहार मूल का प्रवासी वोटर महागठबंधन के बाकी घटक दलों-कांग्रेस और राजद को समर्थन देने से उनसे नाराज न हो जाए। ठीक उसी तरह रोहित के मामले में तो उन्हें दिल्ली समेत देश के अन्य राज्यों में समर्थन मिलेगा, लेकिन जेएनयू मुद्दे पर कहीं उनके वोटरों का एक तबका राष्ट्रवाद बनाम देशविरोधी विवाद में उनका विरोधी न बन जाए। विरोधी इसलिए यह आरोप लगा रहे हैं कि इसी के कारण दिल्ली में सक्रिय रहने के बजाए वे अगले साल होने वाले पंजाब विधानसभा चुनाव अभियान के लिए पंजाब में जमे हुए हैं।

आप सरकार ने इसी 14 फरवरी को अपना पहला साल पूरा किया है। सरकार के पहला साल पूरा होने पर आप ने विरोधियों के आरोपों को दरकिनार करके मीडिया से लेकर दिल्ली भर में भारी प्रचार अभियान चलाया। सरकार इसे इस तरह से प्रचारित कर रही थी कि जैसे कोई चुनाव होने वाला है और सरकार की साख दांव पर लगी हुई है। चार साल पुरानी आप को 2013 के चुनाव में 29 फीसद से ज्यादा वोट और 28 सीटें मिली थीं। माना जा रहा है कि उसमें युवा वर्ग का वोट ज्यादा था जो 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के पास चला गया। उस चुनाव में अल्पसंख्यक वोट कांग्रेस को मिले जिसके कारण उसे आठ सीटें मिल पार्इं। 2015 के विधानसभा चुनाव में दलित, प्रवासी और अल्पसंख्यक पूरी तरह से कांग्रेस को छोड़कर आप के साथ चले गए। इसी कारण आप का वोट बढ़कर 54 फीसद हो गया और कांग्रेस घटकर दस फीसद से नीचे आ गई।

बाकी वोटों का तो अलग समीकरण है लेकिन अल्पसंख्यक वोट तो उसी दल को मिलते हैं जो भाजपा को हरा पाए। सत्ता जाने के बाद से कांग्रेस लगातार अपने पुराने वोट बैंक को जोड़ने में लगी है। नगर निगमों के सफाई कर्मचारियों के आंदोलन में यह दिखा भी। प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन से लेकर पूर्व विधायक जयकिशन आदि दलित नेता अपने-अपने प्रयास से दलितों को कांग्रेस के पक्ष में करते दिखे। सरकार के साल पूरे होने पर भी भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस ने भी सरकार के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाया।
जिस तरह नीतीश प्रेम में अरविंद केजरीवाल ने बिहार विधानसभा चुनाव में आंख बंद करके दिल्ली के बिहारियों से अपने रिश्तेदारों को बिहार में महागठबंधन को वोट देने की अपील की और पटना में चुनाव पूर्व एक सभा में इसकी दोबारा घोषणा कर दी। उससे बिहार आप की सबसे बड़ी नेता परवीन अमानुल्ला समेत दिल्ली के कई बिहारी नेता सकते में आ गए। नीतीश तक तो ठीक था, लेकिन उनके गठबंधन के खिलाफ ही तो केजरीवाल ने विरेध करके राजनीति की शुरुआत की थी। अपने ही लोगों के बगावती तेवरों से केजरीवाल घोषित करके भी दोबारा चुनाव प्रचार करने नहीं गए।

ठीक वही हाल अभी जेएनयू मामले पर हो रहा है। भाजपा ने इसे राष्ट्रवाद बनाम देशद्रोह मुद्दा बनाने की कोशिश की है जबकि वामपंथी दल और कांग्रेस उसे भाजपा का फासीवाद ठहराने में लगे हैं। वैचारिक स्तर पर केजरीवाल की लाइन भाजपा से ज्यादा करीब मानी जाती है। दूसरे वह कांग्रेस के वोट पर ही राज कर रही है। कांग्रेस के साथ जाने पर भी वोट बैंक टूटने का खतरा है। कुमार विश्वास की भाषा अलग है और आशुतोष की अलग। छात्र नेताओं के साथ हुई कार्रवाई तो अलग मुद्दा है, लेकिन मूल विवाद पर आप की लाइन साफ नहीं है। इसलिए पार्टी इस विवाद में अगुआई से बच रही है। पार्टी का भी बसपा जैसा यह प्रयास है कि यह मुद्दा रोहित वेमुला से अलग किया जाए। इस चक्कर में सरकार के पहला साल मनाने का जश्न ही निकलता जा रहा है।