नीतीश कुमार की दूरंदेशी का लोहा उनके आलोचक भी मानते हैं। सियासी दांव-पेच भी कम नहीं सीखे हैं बिहार के मुख्यमंत्री ने। एक तीर से कई शिकार करने का माद्दा भी दिखाते रहे हैं। ताजा मामला शराब बंदी का है। सूबे में एकाएक लागू कर दी पूर्ण शराबबंदी। पहले यही कहा था कि पूर्ण शराबबंदी भी एक-दो महीने में कर ही देंगे। लेकिन अप्रैल के पांचवें दिन ही कर दिखाया लगभग असंभव दिखने वाला काम। नए वित्तीय वर्ष में शहरी इलाकों को अंग्रेजी शराब की छूट देते हुए शराबबंदी लागू की थी। पर चार दिन बीतते ही उसे भी बंद कर दिया। ऊपर से यह तर्क भी दे डाला कि शुभ काम में देर क्यों? नीतीश को उनके करीबी नरेंद्र मोदी के उपनाम नमो की तर्ज पर नीकु कहने लगे हैं। हर कोई हैरान है कि नीकु को शराबबंदी की हड़बड़ी क्या थी?

करीबियों पर भरोसा करें तो फीडबैक और हर तरफ हो रही अपनी वाहवाही से वे प्रोत्साहित हुए और चार दिन के भीतर ही मनमर्जी कर दिखाई। विरोधियों को भी नसीहत दे डाली कि वे चुनाव में किए गए अपने वायदों को पूरा करते हैं। वादा-खिलाफी नहीं करते। चुनाव में उन्होंने महिलाओं से वायदा किया था कि सूबे में पूर्ण शराबबंदी लागू करेंगे। महिलाओं का काफी सम्मान करते हैं नीकु। उन्होंने संदेश दे दिया है कि महिलाएं उन पर पहले से ज्यादा भरोसा कर सकती हैं। आखिर पंचायतों और शहरी निकायों में पहले से चले आ रहे महिलाओं के 33 फीसद आरक्षण कोटे को नीकु ने ही तो बढ़ा कर 50 फीसद किया था। देशभर में उनके इस अनूठे फैसले की सराहना हुई। महिलाओं का उनके प्रति तभी से भरोसा बढ़ा। शराबबंदी के अपने फैसले के बारे में नीकु यूपी समेत दूसरे राज्यों के लोगों को भी अवगत कराएंगे। या यूं कहें कि इसे चुनावी मुद्दा बनाएंगे। शराबबंदी का खुल कर तो कोई समर्थन कर नहीं पाएगा। ऐसे में नीकु इस मुद्दे को जितना भुना सकेंगे उतना ही उनके लिए फायदेमंद साबित होगा। फिलहाल तो उनका लक्ष्य यूपी और झारखंड में अपनी साख बढ़ाने का लगता है।

खरी बात
सुशील मोदी करें तो क्या करें? बिहार भाजपा के सबसे कद्दावर नेता समझे जाने वाले मोदी खोज-खोज कर मुद्दे उठाने के लिए जाने जाते रहे हैं। राजद के मुखिया लालू यादव का विरोध करने में तो वे किसी भी तरह की कोताही नहीं होने देते। लालू ने हाल ही में अपनी पार्टी की कार्यकारिणी में बाहुबली शहाबुद्दीन को जगह दी है। जो कत्ल के मामले में उम्र कैद की सजा काट रहे हैं। चुनाव लड़ने के लिए भी आयोग ने उन्हें अयोग्य घोषित कर रखा है। पर अपने इलाके में खासकर मुसलमानों में उनकी गहरी पैठ के चलते लालू उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते। मोदी ने नीतीश कुमार को आगाह कर दिया है कि अगर उन्होंने शहाबुद्दीन को राजद की कार्यकारिणी से बाहर नहीं कराया तो इसका गलत संदेश जाएगा। सूबे में राजद और जद (एकी) की साझा सरकार है। शहाबुद्दीन के खिलाफ आपराधिक मामलों की लंबी फेहरिश्त है। जो आदमी उम्र कैद की सजा भुगत रहा हो उसे पार्टी में तरजीह देने का गलत संदेश जाएगा। मोदी ने यों नीतीश को कोई गलत सलाह नहीं दी है, पर जमीनी हकीकत की अनदेखी तो कर ही दी। उन्हें पता है कि नीतीश तो लालू के इशारों पर नाचने को मजबूर हैं। लालू की पार्टी के मामलों में वे भला कैसे हस्तक्षेप कर सकते हैं? आखिर जद (एकी) का जब भाजपा से गठबंधन था तब भी तो दोनों पार्टियों का अपना-अपना फैसला और नजरिया रहता ही था।

मोह मलाई का
लाल बत्ती की चाहत आजकल राजनीति में रिवाज सा हो गया है। यों आरएसएस वाले त्याग और समर्पण की दुहाई देते नहीं अघाते। पर राजस्थान भाजपा के नेताओं पर उनकी इस दुहाई का कोई असर नजर नहीं आता। विधानसभा का बजट सत्र निपटते ही पार्टी के विधायकों की लालबत्ती के लिए भागदौड़ तेज हो गई है। यों असंतोष तो बजट सत्र से पहले ही दिख गया था। तभी तो मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने कहा था कि सदन में जिनका कामकाज और प्रदर्शन अच्छा रहेगा, उनके अच्छे दिन जरूर आएंगे। लेकिन महारानी भी मजबूर हैं। मंत्री पद सीमित ठहरे। जबकि सदन में भाजपा का बहुमत जरूरत से कहीं ज्यादा है। बजट सत्र में सरकार की फजीहत न हो, शायद यही सोच कर उनके सामने लाल बत्ती की जलेबी लटकाई होगी वसुंधरा ने। हालांकि कई मंत्रियों से वे नाराज भी बताई जा रही हैं। विधायकों की आंखों में दिख रही चमक की वजह यही उम्मीद है कि आधा दर्जन मंत्रियों की छुट्टी हो सकती है। जो ज्यादा महत्त्वाकांक्षी हैं, वे मुख्यमंत्री के दरबार में हाजिरी बजा रहे हैं। जिन्हें हटाए जाने का अंदेशा है, वे परेशान होंगे ही। इनमें संसदीय कार्यमंत्री राजेंद्र राठौड़ का नाम सबसे ऊपर लिया जा रहा है। मुख्यमंत्री के साथ उनकी दूरी बढ़ी है। तभी तो उनसे चिकित्सा जैसा मलाईदार विभाग छीनने की तिकड़म में किरण माहेश्वरी और गजेंद्र सिंह खींवसर भी जुट गए हैं। बेचारे राठौड़ से तो अब पार्टी के सूबेदार अशोक परनामी भी दूरी बना रहे हैं। जबकि मुख्यमंत्री से उनकी निकटता के चर्चे सियासी गलियारों में खूब सुनाई पड़ रहे हैं। पार्टी के प्रभारी वी सतीश कहने को आरएसएस के प्रचारक ठहरे। पर मुख्यमंत्री से उनकी निकटता खांटी संघियों को नापसंद है। पर सियासी प्रबंधन में माहिर वसुंधरा ने वी सतीश को कुछ सोच-समझ कर ही साधा होगा।

अग्नि परीक्षा दीदी की
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पहली बार लड़ा जा रहा है पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ विपक्षी दलों ने इसी मुद्दे को बनाया है अपना सबसे बड़ा चुनावी हथियार। सारदा चिटफंड घोटाले की चर्चा तो अभी ठंडी पड़ी नहीं थी कि नारद स्टिंग वीडियो सामने आ गया। विपक्ष को अच्छा खासा एक और मुद्दा मिल गया। कांग्रेस-वाम मोर्चा गठबंधन ने तो इसे अपना प्रमुख मुद्दा बना लिया है। सूबे में लोकतंत्र की बहाली के मुद्दे को भी यों गठबंधन ने अनदेखा नहीं छोड़ा है। रही भाजपा की बात तो दिल्ली में समर्थन की दरकार का मतलब सूबे के चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति समर्थन का भाव तो नहीं हो सकता। उसे भी आक्रामक रुख ही अपनाना पड़ा है। माकपा नेता सूर्यकांत मिश्र तो हर सभा में दहाड़ रहे हैं कि ममता जैसी भ्रष्ट सरकार सूबे में पहले कभी सत्ता में रही ही नहीं। उनकी पार्टी के तो ज्यादातर बड़े नेता भ्रष्टाचार में गले तक डूबे हैं। मंत्री तक पकड़े गए हैं। जबकि अतीत में शायद ही किसी मंत्री को पद पर रहते जेल जाना पड़ा हो। उनका इशारा ममता सरकार में परिवहन मंत्री रहे मदन मित्र की तरफ होता है। यह बात अलग है कि चोरी और सीना जोरी जैसे अंदाज में तृणमूल कांग्रेस विपक्ष के किसी आरोप को स्वीकार करने को तैयार नहीं। उसकी दलील है कि सारदा चिटफंड घोटाला तो वाम मोर्चे की सरकार के वक्त का है। जबकि नारद स्ंिटग विपक्ष की तृणमूल कांग्रेस को बदनाम करने की साजिश का परिणाम ठहरा। ममता की पार्टी के महासचिव पार्थ चटर्जी तो और भी इक्कीस निकले। फरमा रहे हैं कि तृणमूल सरकार ने तो घोटालों पर अंकुश लगाने का काम किया है। सत्तारूढ़ पार्टी चाहे जितनी सफाई दे दे, पर विपक्ष ने तो रैलियों और प्रचार माध्यमों हर जगह भ्रष्टाचार के मुद्दे को ही हथियार बनाया है। हां, कोलकाता के हाल में हुए फ्लाईओवर हादसे के बाद यह हथियार और धारदार हो गया है। बेशक चुनावी नतीजों पर इसके असर का पता तो नतीजों के बाद ही सामने आएगा।

बदलाव के निहितार्थ
आखिर कमल शर्मा की छुट्टी हो ही गई। पंजाब भाजपा के सूबेदार थे। बदलाव के कयास यों काफी अरसे से लगाए जा रहे थे। पर आला कमान ने बदलाव रूटीन में ही करना वाजिब समझा होगा। शर्मा पर अकाली दल की गोद में बैठने के आरोप भाजपाई ही लगा रहे थे। अब विजय सांपला हो गए हैं नए सूबेदार। मोदी सरकार में मंत्री भी हैं फिल्लौर की आरक्षित सीट से लोकसभा में पहुंचे सांपला। आलाकमान ने एक तरह से एक तीर से दो शिकार कर दिए। शर्मा से छुट्टी भी पा ली और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर दलित कार्ड भी खेल दिया। दलितों की पंजाब में हिस्सेदारी तकरीबन 37 फीसद है। वैसे भी सांपला जमीन से जुड़े और बेदाग छवि के नेता माने जाते हैं। मुमकिन है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में होने वाले अगले बदलाव में उन्हें मंत्री पद से मुक्त कर दिया जाए। जहां तक कमल शर्मा का सवाल है, उन्होंने पार्टी की मजबूती के लिए ज्यादा कवायद की ही नहीं।

अलबत्ता अकाली दल के साथ गठबंधन का धर्म जरूर पूरे समर्पण और भक्तिभाव से निभाया। बेशक सांपला ने अकाली दल का नवजोत सिद्धू की तरह तो कभी खुल कर विरोध नहीं किया, पर उम्मीद यही है कि वे भाजपा को अकाली दल की परछाई नहीं बनने देंगे। सांपला को सूबेदारी सौंपने से नाराज चल रहे नवजोत सिद्धू को ज्यादा तरजीह नहीं देने का संकेत मिला है। ऐसे में वे और उनकी मुख्य संसदीय सचिव पत्नी नवजोत कौर का असंतोष फिर सतह पर आ सकता है। सिद्धू दंपत्ति के आम आदमी पार्टी में जाने की अटकलें तो न जाने कब से लग रही हैं। अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार की हालत खास अच्छी नहीं है अब। दस साल के राज का व्यवस्था विरोध भारी पड़ेगा विजय सांपला को। कांग्रेस के साथ-साथ अब आप पार्टी की चुनौती से भी निपटना होगा सत्तारूढ़ गठबंधन को। यानी सांपला के लिए फूलों का ताज तो नहीं ही होगा नया जिम्मा।

पथरीली राह
खोदा पहाड़ निकली चुहिया। बेमतलब साबित हुई महबूबा मुफ्ती की पैंतरेबाजी। न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसी विशेष पैकेज का एलान किया और न अमित शाह ने कोई नई शर्त स्वीकार की। फिर भी बन गई जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और भाजपा की साझा सरकार। महबूबा ने बेवजह सूबे को तकरीबन दो महीने निर्वाचित सरकार से वंचित कर दिया। सरकार बनाई तो उसके अगले ही दिन श्रीनगर एनआईटी में छात्रों के तिरंगा फहराने से बवाल मच गया। यानी सिर मुड़ाते ओले पड़ने वाली बात हो गई। ऊपर से गैर-कश्मीरी छात्रों पर पुलिसिया लाठी चार्ज का मुद्दा सारे देश में छा गया। महबूबा को सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं है। जाहिर है कि उन्हें संभल कर चलना होगा। मामूली चूक भी बड़ी परेशानी का सबब बन सकती है। तो भी फिलहाल तो यह सवाल उठ ही रहा है कि एनआइटी की घटना सामान्य थी या उसके पीछे कोई सियासी चाल थी। जानकार तो इसे महबूबा पर दबाव बनाने का हथकंडा भी बता रहे हैं। पर सवाल यही है कि दबाव बनाना चाह कौन रहा है। पाठकों को याद दिला दें कि 2007 में जब सूबे में पीडीपी और कांग्रेस की साझा सरकार थी और मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद थे तो अमरनाथ जमीन विवाद के बहाने पीडीपी ने सरकार को गिरा दिया था। इस बार बेशक भाजपा के सामने ऐसा कोई खतरा नहीं आएगा क्योंकि समझौता पूरे कार्यकाल के दौरान महबूबा के मुख्यमंत्री बने रहने का ही हुआ है। महबूबा खुद सरकार गिराएंगी तो फायदा उठाने की ताक में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस तैयार बैठे हैं।

उपक्रम खुशफहमी का
मध्यप्रदेश में अपने जनाधार को लेकर कांग्रेस की चिंता स्वाभाविक ही है। तभी तो करीब सौ कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने की गरज से पिछले हफ्ते शिविर का आयोजन किया था पार्टी ने। अनुशासन व आत्म अनुशासन, कांग्रेस का इतिहास, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय, भ्रष्टाचार-भ्रम व सच्चाई, अल्पसंख्यक आबादी का भ्रम और मध्य प्रदेश सरकार की विफलताएं जैसे मुद्दों पर पार्टी के बड़े नेताओं के अलावा कुछ विशेषज्ञों ने भी ज्ञान बांटा। ये प्रशिक्षित कार्यकर्ता ब्लाक और तहसील स्तर पर जाएंगे। वहां जमीनी कार्यकर्ताओं को अपना ज्ञान बांटेंगे। कांग्रेस की विचारधारा से लोगों को अवगत कराएंगे। लेकिन आलाकमान की हिदायत पर हुआ यह शिविर पहले ही दिन निराशाओं से घिर गया। कार्यकर्ता जयराम रमेश का इंतजार करते रहे, पर वे नहीं पहुंचे। लिहाजा उनका भोज सूबेदार अरुण यादव ने उठाया। दूसरे दिन मणि शंकर अय्यर आए तो सियासी हलचल बढ़ गई। पत्रकारों ने उनसे असहज सवाल किए तो उन्होंने मान लिया कि पार्टी के नेताओं में मतभेद है। वे पंचायती राज पर अपना बौद्धिक पिला गए। साथ ही सोशल मीडिया पर राहुल गांधी का मजाक उड़ाने वालों को खरी-खोटी सुना गए। तीसरे दिन विधानसभा उपाध्यक्ष राजेंद्र सिंह ने प्रशिक्षुओं को पार्टी की मजबूती के गुर बताए। कांग्रेस ने इसे भले संगठन के नजरिए से सार्थक पहल बताया, पर जब तक पार्टी के नेता एक दूसरे की टांग खींचेंगे, शायद ही कोई असर हो ऐसी कवायद का।

सत्ता का गरूर
सत्तारूढ़ दलों का चरित्र तकरीबन एक जैसा ही होता है। सत्ता में आने से पहले आदर्शवाद की शेखी बघारने वाले दलों को भी सत्ता का गुमान सताता है। मध्य प्रदेश में इसी गुमान के शिकार हैं भाजपा के नेता। अदालती आदेश के चलते सूबे से अवैध होर्डिंग हटाने का अभियान चल रहा है। पर ग्वालियर के पड़ाव क्षेत्र में भाजपा की एक महिला नेता के अवैध होर्डिंग को हटाया तो वह लगी सड़क पर ही खरी-खोटी सुनाने। नतीजतन उनका होर्डिंग वापस टांगा गया। चार फरवरी को एक पुलिस सिपाही ने बिना हेल्मेट पहने जा रहे एक भाजपा नेता को पकड़ा था। नेताजी का तो कुछ नहीं बिगड़ा पर अपनी जान बचाने को बेचारा सिपाही माफी मांगने को मजबूर हुआ। बारह मार्च को रायल्टी चुकाए बिना गिट्टी का डंपर ले जा रहे एक भाजपाई को पुलिस के दारोगा ने रोका तो बदले में शाबाशी के बजाय निलंबन आया। खंडवा शहर में मंत्री विजय शाह के मकान के निर्माण के चक्कर में कभी न सूखने वाले नलकूप का ऐसा बेजा दोहन हुआ कि वह चौपट हो गया। लोगों को बेशक पानी मयस्सर नहीं हो रहा है, पर मंत्री जी के दो साल से बन रहे मकान के लिए तो पानी लेकर सरकारी टैंकर आ ही रहे हैं। इंदौर में सड़क चौड़ी करने के लिए नगर निगम ने पुराने मकानों को तोड़ा तो भाजपा नेता ही विरोध में कूद पड़े। हालांकि ऊपर से डांट पड़ी तो चुप्पी भी साध गए। पर पार्टी से जुड़े कवि सत्य नारायण सत्तन की पीड़ा शब्दों में बाहर आई। कविता रच दी उन्होंने-‘मन ही मन रो लो, वोट दिया था जिनको, वो ही मेरा घर तुड़वाते हैं, लाखों में खुद का वेतन कर, सुख की बीन बजाते हैं। खुद अमृत पी काम करें, जनता को जहर पिलाने का।’

हाशिए का दंश
जीएस बाली अब अकेले पड़ गए हैं। हिमाचल सरकार में मंत्री हैं बाली। अपने ही मुख्यमंत्री का अंदरखाने विरोध करते रहे हैं। मुख्यमंत्री बनने की चाहत पाली थी, पर वह अधूरी रह गई। अब तो हालात और उलट गए। वीरभद्र के इस्तीफा देने की नौबत भी आ जाए तो भी कांग्रेस के विधायक बाली को स्वीकार नहीं करेंगे। आखिर भाजपा से तार जोड़ने के आरोप जो हैं उन पर। मंत्री बेशक हैं पर कांगड़ा में पार्टी के उनसे कनिष्ठ नेता सुधीर शर्मा उन पर भारी पड़ रहे हैं। कांग्रेसी ही उन पर पार्टी की जड़ें खोखला करने जैसे आरोप लगाते हैं। थक हार कर नया जुमला खोज लाए हैं कि सूबे में कोई उपमुख्यमंत्री बनेगा। पत्रकारों ने मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को कुरेदा तो जवाब मिला कि खबर चंडूखाने की है। ऐसे में बेचारे बाली के चेहरे की हवाइयां और बढ़ना स्वाभाविक है।

गरिमा तार-तार
हिमाचल विधानसभा बजट सत्र में मछली बाजार जैसी नजर आई। अध्यक्ष बृज बिहारी लाल बुटेल तभी तो दुखी नजर आए। विपक्ष के साथ सत्ता पक्ष की बैठकें कराने का भी फायदा नहीं हुआ। प्रवर्तन निदेशालय से मुख्यमंत्री के बच्चों की संपत्ति जब्त होने का फरमान आया तो भाजपा विधायकों के तेवर कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो गए। हो-हल्ला, नारेबाजी और वाकआउट तक कर दिया। फिर कैसे चलती विधानसभा। हां आखिरी दो दिन विधायकों के वेतन और भत्ते बढ़ने का अवसर देख मौनी बाबा बन गए हुड़दंगी भाजपाई। साफ हो गया कि निज हित जनहित से ज्यादा अहम है विधायकों के लिए। अध्यक्ष बुटेल हंगामे से इस कदर भावुक हुए कि तबीयत बिगड़ गई। अस्पताल पहुंचने की नौबत तक आ गई। विधायकों की संवेदनाएं शून्य हो जाएं तो भावुक अध्यक्ष दुखी होते ही।

रावत का ब्रह्मास्त्र
हरीश रावत ने लोकतंत्र बचाओ पदयात्रा शुरू कर रखी है। उत्तराखंड की अपनी सरकार की बर्खास्तगी के बाद चुप नहीं बैठे हैं रावत। बागी कांग्रेसी और भाजपाई दोनों विधायकों को करारी चुनौती दे रहे हैं। पदयात्रा बागी कांग्रेसी विधायकों के इलाकों में ही कर रहे हैं। विजय बहुगुणा के सितारगंज, प्रणव सिंह चैंपियन के खान पुर, प्रदीप बत्रा के रुड़की और उमेश शर्मा के रायपुर क्षेत्र को निपटा चुके हैं। पदयात्रा में भीड़ भी खूब जुट रही है। इससे भाजपाई और बागी कांग्रेसी हक्के-बक्के हैं। भाजपा अब जवाब देने के लिए पोल खोलो यात्रा शुरू करने की तैयारी में है। लेकिन तब तक तो हरीश रावत सूबे में अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ जनजागरण कर ही चुके होंगे। पद यात्रा पांच सौ जगहों तक करने की तैयारी है। वरीयता स्वतंत्रता सेनानियों, कवियों, लोक कलाकारों, साहित्यकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के गांवों-कस्बों को दे रहे हैं।