धर्मेंद्रपाल सिंह
भारतीय राजनीति में यह साल बड़े बदलाव के रूप में दर्ज होगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को करारी हार मिली। केंद्र में तीस वर्ष बाद किसी एक पार्टी (भाजपा) को स्पष्ट बहुमत मिला है। बात यहीं समाप्त नहीं होती। इस वर्ष अभी तक सात राज्यों के विधानसभा चुनाव हो चुके हैं जिनमें से चार जगह कांग्रेस (आंध्र, तेलंगाना, हरियाणा और महाराष्ट्र) से सत्ता छिन चुकी है। दो स्थान पर भाजपा की सरकार बनी, एक जगह उसकी सहयोगी पार्टी तेलुगू देशम सत्ता में है, जबकि तेलंगाना राज्य का गठन करने के बावजूद वहां कांग्रेस के बजाय तेलंगाना राष्ट्र समिति का राज है। जम्मू-कश्मीर और झारखंड भी उसके हाथ से फिसल जाने की पटकथा लिखी जा चुकी है।
आज कांग्रेस भारतीय राजनीति के भंवर में फंसा ऐसा जहाज है जिसकी पाल तार-तार हो चुकी है, मस्तूल टूटे हुए हैं और नाविकों का मनोबल पाताल में है। कहने को नौ राज्यों में कांग्रेस की सरकार है, लेकिन इन सारे सूबों से महज अठहत्तर लोकसभा सीटें बनती हैं। दूसरी तरफ भाजपा है जिसकी सात राज्यों में सरकार है, जहां से एक सौ उनचास सांसद चुन कर आते हैं। लोकसभा चुनाव में भारी सफलता के बाद भगवा दल का मनोबल सातवें आसमान पर है। उसकी रणनीति स्पष्ट है। पार्टी अपने प्रभाव वाले राज्यों की विधानसभाओं में बहुमत जुटाने के मार्ग पर चल रही है।
जहां गठबंधन है वहां भी उसे सत्ता में बड़ा हिस्सा चाहिए। सहयोगी क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व स्वीकार करने या धौंस सहने को वह तैयार नहीं है। उसकी मंशा सभी दलों पर निर्भरता कम कर पूरे देश पर एकछत्र राज करने की है। इसी रणनीति के तहत पार्टी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से ठीक पहले शिवसेना के साथ पच्चीस वर्ष पुराना गठबंधन तोड़ कर अकेले चुनाव लड़ा और सबसे ज्यादा सीटें जीत कर शिवसेना को उसकी औकात दिखा दी।
मौजूदा दौर में तीन बातें साफ नजर आती हैं। पहली यह कि आज भाजपा देश की सबसे बड़ी पार्टी है। दूसरी यह कि सवा सौ साल से ज्यादा पुरानी पार्टी कांग्रेस का जनाधार तेजी से सिकुड़ रहा है। तीसरी और अंतिम यह कि क्षेत्रीय दल अपनी साझा शक्ति से ही भाजपा का सामना कर सकते हैं। शायद इसी सत्य को पहचान कर समाजवादी पार्टी, जनता दल (एकी), जनता दल (सेक्युलर), इंडियन नेशनल लोकदल, राष्ट्रीय जनता दल जैसे क्षत्रपों ने हाथ मिला कर एक महामोर्चा बनाने का संकल्प लिया है। अब लोकसभा में इन सभी पार्टियों के पास कुल महज पंद्रह सांसद हैं, फिर भी उन्होंने शीतकालीन सत्र में काले धन, बेरोजगारी, भूमि अधिग्रहण कानून और बीमा विधेयक जैसे मुद््दों पर मिल कर मोदी सरकार को घेरने की घोषणा की है।
कांग्रेस की अलोकप्रियता और क्षेत्रीय दलों की छितराई हुई ताकत के कारण ही हालिया आम चुनाव में भाजपा महज इकतीस फीसद वोट के बल पर बहुमत पाने में कामयाब रही। मोदी के नेतृत्व में तेरह दलों के राजग को करीब अड़तीस प्रतिशत मत और 337 सीटें मिलीं। इसे हिंदुस्तान की राजनीति का चमत्कार माना जाएगा कि इतने कम जन-समर्थन के बावजूद किसी दल और गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिल गया। इससे पहले न्यूनतम वोट पर स्पष्ट बहुमत पाने का आंकड़ा 41.3 प्रतिशत है, जो 1977 में जनता पार्टी को मिला था। तब लोकसभा की 295 सीटें जीत कर जनता पार्टी ने मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनाई थी।
संसद के साथ-साथ देश की इकतीस विधानसभाओं में विभिन्न दलों की स्थिति का जायजा लेने पर मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य और स्पष्ट हो जाता है। फिलहाल भारत के ग्यारह सूबों में राजग की सरकार है, जिनमें से सात में भाजपा अकेले दम राज कर रही है। इन राज्यों से कुल 189 सांसद चुन कर आते हैं। यूपीए सरकार भी ग्यारह राज्यों में है जिनमें से नौ में अकेले कांग्रेस का शासन है। इन सूबों से 98 सांसद चुने जाते हैं। दिल्ली में फिलहाल राष्ट्रपति शासन है। शेष बचे आठ राज्यों में उन क्षेत्रीय पार्टियों की सरकार है जो कांग्रेस या भाजपा में से किसी के भी साथ नहीं हैं। इन राज्यों से 241 सांसद चुने जाते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, तमिलनाडु, तेलंगाना जैसे विशाल राज्यों में राज करने वाली ये पार्टियां तीसरे मोर्चे की स्वाभाविक साझेदार होनी चाहिए। अब उन्हें भाजपा के खिलाफ एक मंच पर लाने का गंभीर प्रयास किया जा रहा है।
ताजा कोशिश सीधे-सीधे इन दलों के अस्तित्व से जुड़ी है। इन पार्टियों के आपसी मतभेद ही भाजपा की सफलता की गारंटी हैं। लोकसभा चुनाव में यह बात सिद्ध हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में बसपा को बीस और सपा को 22.2 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन सीटें मिलीं क्रमश: शून्य और पांच। भाजपा ने 42.3 प्रतिशत मतों के साथ राज्य की अस्सी में से इकहत्तर सीटें जीत लीं। इसी प्रकार बिहार में जनता दल (एकी) और राजद का साझा मत प्रतिशत लगभग 36 था, लेकिन दोनों को सीटें मिलीं केवल छह। दूसरी तरफ केवल 29.4 प्रतिशत मत पाने के बावजूद भाजपा ने बाईस सीटें जीतीं। इस गलती से सबक सीख लालू यादव और नीतीश कुमार ने उपचुनाव में हाथ मिला कर भाजपा को चारों खाने चित कर दिया।
फिलहाल जो पार्टियां भाजपा के विरोध में एक गैर-कांग्रेस मंच तैयार करने में जुटी हैं, उनमें एक समानता है। सभी समाजवादी विचारधारा की कोख से जनमी हैं और कभी एकीकृत जनता दल परिवार का हिस्सा थीं। लेकिन बीजू जनता दल और तृणमूल कांग्रेस को साथ लिए बिना इस तीसरे मोर्चे को सम्मानजनक स्थान मिलना कठिन है। दक्षिण भारत से द्रमुक या अन्नाद्रमुक और तेलंगाना राष्ट्र समिति का सहयोग भी उनकी रणनीति का हिस्सा होना चाहिए। नीतियों के आधार पर वाम मोर्चा उन्हें बाहर से समर्थन दे सकता है। लेकिन यह सारी कसरत विरोधाभासों से भरी है। भाजपा और कांग्रेस का विरोध करने वाली कई पार्टियां अपने इलाके में एक-दूसरे की जानी दुश्मन हैं। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का रिश्ता सांप-नेवले जैसा है। बिहार में राजद और जनता दल (एकी) ने बरसों एक-दूसरे को जम कर कोसा है। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और द्रमुक की दोस्ती की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा और तृणमूल की रंजिश भी किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में इन सब पार्टियों के साझा मोर्चा बनाने के प्रयास को मौकापरस्ती की श्रेणी में चस्पां करना आसान हो जाता है।
तीसरा मोर्चा खड़ा करने की तमाम पूर्व कोशिशें नाकाम रही हैं। इसलिए ऐसी कवायद आसानी से भरोसा नहीं जगा सकती। कोई भी राजनीतिक गठबंधन संघर्ष की आग में तप कर कुंदन बनता है। सत्ता के लिए चंद नेताओं के हाथ मिला लेने मात्र से अलग-अलग पार्टियों के लाखों कार्यकर्ताओं के मन नहीं मिल जाते। 1977 में इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ संघटन कांग्रेस, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ और भारतीय लोकदल का विलय कर जनता दल बनाया गया, लेकिन ढाई बरस के भीतर ही यह प्रयोग विफल हो गया।
वर्ष 1989-1991 के दौर में पांच बड़ी पार्टियों (जनता दल, तेलुगू देशम, द्रमुक, असम गण परिषद, इंडियन कांग्रेस-सोशलिस्ट) ने मिल कर कांग्रेस के विरोध में राष्ट्रीय मोर्चा बनाया जिसे वाम मोर्चे और भाजपा का समर्थन प्राप्त था। यह प्रयोग भी फेल हो गया। वीपी सिंह और चंद्रशेखर थोड़े-थोड़े समय के लिए ही प्रधानमंत्री बन पाए। 1996-1998 के बीच एक बार फिर कोशिश हुई। इस बार भाजपा के विरोध में तेरह पार्टियों का संयुक्त मोर्चा बना। वाम मोर्चा इसका अंग और कांग्रेस का इसे समर्थन था। इस प्रयोग की भी भ्रूण-हत्या हो गई। 2008 और 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले फिर गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस मोर्चा खड़ा करने की नाकाम कोशिश हुई थी।
पिछले पच्चीस बरसों में तीसरे मोर्चे को दो बार सरकार बनाने का मौका मिला है, लेकिन हर बार उसकी सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने में विफल रही। इस कारण तीसरे मोर्चे के प्रति जनता में खासी निराशा उपजी है। तीसरे मोर्चे के नेताओं का मानना है कि लोग भाजपा को कांग्रेस का स्थानापन्न मानते हैं, विकल्प नहीं। दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों की आर्थिक नीतियों में कोई खास अंतर नहीं है। इसीलिए कांग्रेस और भाजपा का विकल्प तीसरा मोर्चा ही हो सकता है। लेकिन यह सोच भी अंतर्विरोधों से घिरा है।
तीसरे मोर्चे के नेताओं की महिला आरक्षण और सांप्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक पर राय अलग-अलग है। ऐसे में लंबे समय तक उनके एकजुट बने रहने पर शंका स्वाभाविक है। अनुभव सिखाता है कि जिन दलों या गठबंधन में वैचारिक एकता नहीं होती वे ज्यादा समय तक जिंदा नहीं रह पाते। जनता पार्टी (1977), राष्ट्रीय मोर्चा (1989), संयुक्त मोर्चा (1997) की विफलता का कारण यही कमजोरी थी।
आज स्थिति विकट है। भाजपा के वेग और मोदी के प्रचारतंत्र का सामना करने के लिए कांग्रेस के पास इंदिरा गांधी जैसा कोई सयाना और सशक्त नेता नहीं है। क्षेत्रीय दलों को भी चरण सिंह, देवीलाल, कर्पूरी ठाकुर, एनटी रामाराव जैसे कद््दावर नेताओं की कमी खल रही है। जो पार्टियां आज कांग्रेस और भाजपा के विरोध का साझा सपना बेच रही हैं, उनमें से अधिकतर कभी न कभी इन दोनों राष्ट्रीय दलों की छत्रछाया में सत्ता-सुख भोग चुकी हैं।
आरएसएस कार्यकर्ताओं के बल पर भाजपा की महत्त्वाकांक्षा भारत पर अकेले राज करने की है। इस अभियान की सफलता के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार को फतह करना और बंगाल, तमिलनाडु और केरल में पैर पसारना जरूरी है। तभी भगवा दल को राज्यसभा में भी स्पष्ट बहुमत मिल पाएगा। वैसे अगले साल बिहार, 2016 में पश्चिम बंगाल और 2017 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं। भाजपा की भावी सफलता का अर्थ क्षेत्रीय दलों का देश के राजनीतिक नक्शे से साफ हो जाना होगा। इसीलिए इस बार उनका महागठबंधन करो या मरो की रणनीति पर टिकेगा।
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