किसी भी समाज की असली पहचान इस बात से होती है कि वह महिलाओं और बेटियों के साथ कैसा व्यवहार करता है। देश और समाज की प्रगति केवल ऊंची इमारतों, चौड़ी सड़कों या चमकदार आंकड़ों से नहीं आंकी जाती, बल्कि इसका आकलन महिलाओं और बेटियों की सुरक्षा, स्वतंत्रता और उन्हें मिलने वाले अवसरों के आधार पर भी किया जाता है। बेटियों का सवाल केवल घर की चौखट तक सीमित रहने की चिंता से जुड़ा नहीं है, बल्कि यह पूरी सभ्यता की दिशा और उसकी मूल्य प्रणाली का प्रश्न है। यदि देश की आधी आबादी को बराबरी का अधिकार और अवसर न मिले, तो किसी भी प्रगति का दावा खोखला ही साबित होता है। मगर यह कटु सच्चाई है कि भारत जैसे देश में आज भी बाल विवाह की काली छाया मौजूद है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के ताजा आंकड़े बताते हैं कि बीस से चौबीस वर्ष की तेईस फीसद महिलाओं का विवाह अठारह वर्ष की आयु से पहले हो चुका था। यानी हर चौथी लड़की के बचपन की किताब अधूरी ही रह जाती है। यह कानून का उल्लंघन ही नहीं, बल्कि संभावनाओं, सपनों और अधिकारों का हनन भी है।

यह बात भी सच है कि पिछले करीब तीन दशकों में भारत ने इस मोर्चे पर उल्लेखनीय प्रगति की है। वर्ष 1993 में बाल विवाह की दर लगभग 49 फीसद थी, जो अब घट कर 23 फीसद रह गई है। मगर वर्ष 2016 के बाद इस प्रगति की रफ्तार चिंताजनक रूप से धीमी हो गई। यूनिसेफ की वर्ष 2023 की रपट बताती है कि दक्षिण एशिया बाल विवाह के मामले में दुनिया का सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र है। भारत में भी स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। यह आंकड़ा केवल एक सामाजिक विफलता नहीं, बल्कि एक नैतिक चेतावनी भी है कि यदि हमने अपनी सोच नहीं बदली, तो आगे बढ़ने के बजाय हम फिर पीछे लौट सकते हैं। एनएफएचएस-5 के आंकड़े बताते हैं कि यह समस्या सिर्फ परंपरा या मान्यता से नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक ढांचे से गहराई से जुड़ी है।

ग्रामीण भारत में बाल विवाह की दर 27 फीसद है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह केवल 15 फीसद पर सिमटी है। सबसे गरीब तबकों में यह दर 39 फीसद तक पहुंच जाती है, जबकि सबसे अमीर तबकों में यह मात्र आठ फीसद है। स्पष्ट है कि गरीबी और निरक्षरता इस कुप्रथा के सबसे बड़े कारक हैं। आर्थिक अभाव और सामाजिक दबाव मिल कर बेटियों के बचपन, उनके सपनों और अधिकारों को छीन लेते हैं।

बाल विवाह न केवल बेटियों के शिक्षा के अधिकार का हनन करता है, बल्कि उनके स्वास्थ्य और जीवन के लिए भी घातक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 15 से 19 वर्ष की लड़कियों में गर्भावस्था और प्रसव से मृत्यु का खतरा वयस्क महिलाओं की तुलना में कई गुना अधिक होता है। उनमें बच्चों की मृत्यु दर भी कहीं अधिक पाई जाती है। यानी यह कुप्रथा केवल सामाजिक बुराई नहीं, बल्कि जीवन और मौत का प्रश्न है। जिस समाज में मां और बच्चे दोनों असुरक्षित हों, वहां सभ्यता के विकास के सारे दावे बेमानी हो जाते हैं। इस अंधकार से निकलने का सबसे प्रभावी मार्ग शिक्षा है।

यूनिसेफ की रपट बताती है कि यदि सभी लड़कियां प्राथमिक शिक्षा पूरी कर लें, तो बाल विवाह की संभावना चौदह फीसद तक घट जाती है और यदि माध्यमिक शिक्षा पूरी कर लें, तो यह संभावना 64 फीसद तक कम हो सकती है। ये आंकड़े इस तथ्य को स्थापित करते हैं कि बेटी की असली सुरक्षा दीवारों से, दहेज की रकम से या समय से पहले किए गए विवाह से नहीं, बल्कि उसकी शिक्षा, आत्मनिर्भरता और निर्णय लेने की क्षमता से संभव है। कुछ राज्यों ने इस दिशा में ठोस काम किया है।

झारखंड में एनएफएचएस-4 (2015-16) के दौरान वहां बाल विवाह की दर 37.9 फीसद थी, जो एनएफएचएस-5 में घट कर 32.2 फीसद हो गई। हाल ही में राज्य सरकार ने यूनिसेफ के साथ मिल कर 2025-30 की कार्ययोजना बनाई है, जिसके तहत लड़कियों को शिक्षा, कौशल विकास और आर्थिक अवसर उपलब्ध कराने पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। इस तरह के प्रयास यह उम्मीद जगाते हैं कि बदलाव संभव है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि ऐसे उदाहरण अभी सिर्फ अपवाद हैं, सामान्य स्थिति नहीं।

यहां एक बुनियादी सवाल उठता है कि जब वर्ष 2006 का बाल विवाह निषेध अधिनियम मौजूद है, तो भी यह समस्या क्यों बनी हुई है? इसका सीधा उत्तर है कि कानून और योजनाएं तब तक असरदार नहीं होतीं, जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलती। असम ने वर्ष 2023 में बाल विवाह के खिलाफ सख्त अभियान चलाया। सैकड़ों शादियां रद्द की गर्इं और गिरफ्तारियां भी हुर्इं। मगर इसका दूसरा पहलू यह रहा कि कई गरीब परिवारों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति अचानक हिल गई। यह अनुभव साफ करता है कि केवल दंडात्मक कार्रवाई पर्याप्त नहीं है। जब तक बेटियों और उनके परिवारों को बेहतर विकल्प, शिक्षा और आर्थिक अवसर उपलब्ध नहीं कराए जाएंगे, तब तक किसी भी कानून से स्थायी समाधान निकलने की उम्मीद कम है।

भारतीय समाज का सबसे बड़ा संकट यही है कि बेटियों की सुरक्षा का अर्थ जल्दी विवाह से लगाया जाता है। समाज के एक हिस्से की मान्यता है कि बेटी तभी सुरक्षित है, जब कम उम्र में उसका विवाह कर दिया जाए। यह सोच ही उसकी सबसे बड़ी असुरक्षा है। असली सुरक्षा तब है, जब वह पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बने, अपने फैसले लेने की क्षमता हासिल करे और जीवन को अपने दम पर जी सके। चारदीवारी में कैद कर देना या कम उम्र में विवाह कर देना किसी भी दृष्टि से सुरक्षा नहीं, बल्कि अन्याय है। अब यह समझने की जरूरत है कि बाल विवाह की समस्या से लड़ना केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। यह समाज के हर वर्ग, हर परिवार और हर व्यक्ति का दायित्व है। पंचायत स्तर पर जागरूकता अभियान, समुदाय के नेताओं की सक्रिय भागीदारी और मीडिया की रचनात्मक भूमिका बेहद अहम हो सकती है।

परिवारों को यह समझाना होगा कि बेटी बोझ नहीं है, बल्कि उसकी शिक्षा और आत्मनिर्भरता ही पूरे घर और समाज की ताकत बन सकती है। यह सवाल सिर्फ बेटियों का नहीं, पूरी मानवता की प्रगति का है। लोकतंत्र और समानता का दावा तभी सार्थक होगा, जब बेटियों को भी वही अवसर मिलें, जो बेटों को मिलते हैं। यह संवैधानिक प्रावधान मात्र नहीं, सभ्यता की असली कसौटी है। हमें बाल विवाह को केवल एक आपराधिक कृत्य नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों के खिलाफ अपराध के रूप में देखना होगा।

बेटी का बचपन, उसकी शिक्षा और स्वतंत्रता उसका मूल अधिकार है, कोई उपकार नहीं। समाज इसे जितनी जल्दी स्वीकार करेगा, उतनी ही जल्दी सरकारी नीतियां भी असर दिखाएंगी। विकास का असली अर्थ तभी पूरा होगा जब उसका असर हर घर और हर बेटी की जिंदगी में दिखाई दे। ऊंची इमारतें और चौड़ी सड़कें भी तभी प्रगति कहलाएंगी, जब हर बेटी को शिक्षा, सुरक्षा और सम्मान मिलेगा।