नेपाल का आधुनिक राजनीतिक इतिहास जनता के निरंतर संघर्ष, आकांक्षाओं और असंतोष की गाथा है। राजतंत्र से लोकतंत्र एवं गणराज्य तक की यात्रा में नेपाली जनता ने बार-बार सड़कों पर उतरकर अपनी आवाज बुलंद की है। जनता ने निरंकुश राजतंत्र को चुनौती देकर करीब ढाई सौ साल पुरानी व्यवस्था को उखाड़ फेंका था और अब जनता ने लोकतंत्र में भ्रष्ट एवं अवसरवादी दलीय राजनीति पर प्रश्न खड़े किए हैं। दरअसल, नेपाल की राजनीतिक धारा अक्सर आंदोलनों और विद्रोह से संचालित होती रही है।

एक बार फिर देश की जनता व्यवस्थाओं में बदलाव के लिए सड़कों पर निकली और उसका असर भी देखने को मिला। लोकतंत्र की मजबूती तीन स्तंभों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की पारदर्शिता, जवाबदेही और निष्पक्षता पर निर्भर करती है। नेपाल के घटनाक्रम से यह सबक मिलता है कि यदि ये संस्थाएं भ्रष्टाचार और पक्षपात की चपेट में आती हैं तथा लोकतंत्र केवल औपचारिक ढांचा बनकर रह जाता है, तब अविश्वास से भरी जनता आंदोलन करने पर मजबूर हो जाती है।

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नेपाल ने लंबे समय तक राजतंत्र को झेला था और इसीलिए देश में क्रांति तथा विद्रोह के बाद करीब सत्रह वर्ष पहले वहां लोकतंत्र स्थापित हो सका। राजतंत्र के दौरान नेपाल में जनता का जीवन राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से कठिन था। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपेक्षा की जाती है कि यह व्यापक जन कल्याणकारी होकर सामाजिक न्याय की स्थापना में मददगार बने, प्रशासन में पारदर्शिता हो तथा विकास की प्रक्रिया में सभी नागरिकों को शामिल किया जाए।

नेपाल में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अभिजात्य नेताओं के एक समूह ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनी गिरफ्त में ले लिया तथा सत्ता को एक छोटे और खास समूह तक केंद्रित कर दिया। इसमें वामपंथी नेताओं का प्रभाव भी था, इसलिए इसे जनवादी तानाशाही से मिलता-जुलता और चीनी व्यवस्था को अपनाने जैसा माना जाने लगा। पिछले एक अरसे से नेपाल की सत्ता तीन नेताओं के इर्द-गिर्द नजर आती है- कम्युनिस्ट पार्टी आफ नेपाल के पुष्प कमल दहल प्रचंड, नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा और हाल ही में अपने पद से इस्तीफा देने वाले केपी शर्मा ओली। लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष, दो अलग ध्रुव माने जाते है, लेकिन नेपाल में ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। वहां प्रचंड, ओली और नेपाली कांग्रेस में इतने मधुर संबंध है कि कोई भी किसी को समर्थन देकर उन्हें प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचा देता है।

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नेपाल में लोकतंत्र को चुनावी प्रक्रिया तक सीमित करने से जनता में असंतोष पनपा और यह विकराल रूप में सामने आया। लोकतंत्र से लोगों को उम्मीद थी कि विकास, समानता, सामाजिक न्याय और शासन-प्रशासन में पारदर्शिता सुनिश्चित होगी। मगर, बहुदलीय लोकतंत्र के बावजूद जनता की ये उम्मीदें पूरी नहीं हुईं। राजनीतिक दल भ्रष्टाचार और सत्ता की होड़ में उलझे रहे। जनजीवन में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ। नतीजतन, लोकतंत्र पर से जनता का विश्वास डगमगाने लगा। नेपाल में युवाओं का आंदोलन केवल असंतोष का प्रतीक नहीं, बल्कि शासन, विकास और लोकतांत्रिक संस्थाओं की विफलता पर सवाल खड़ा करता है। नेपाल की लगभग आधी आबादी युवा है, मगर पर्याप्त रोजगार अवसरों का अभाव है। लाखों युवा भारत और अन्य देशों में पलायन करने को मजबूर हो गए हैं।

नेपाल में वर्ष 2015 में नया संविधान लागू होने के बावजूद मधेसी, जनजातीय और दलित समुदाय के युवाओं को प्रतिनिधित्व तथा समानता के अवसर नहीं मिल पाए। संघीय ढांचा अपेक्षित स्तर पर सेवाएं और न्याय नहीं दे पाया। शिक्षा और अवसरों की असमानता भी युवाओं के आक्रोश का कारण बनी। इससे यह धारणा बनी कि नया संविधान भी उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल रहा है। ऐसे में युवाओं का सड़कों पर उतरना अस्थिरता, बेरोजगारी, सामाजिक असमानता और कमजोर लोकतांत्रिक संस्थाओं की देन है। राजतंत्र का वास्तविक विकल्प सहभागी लोकतंत्र है। सहभागी लोकतंत्र में जनता शासन और नीतिगत निर्णयों की हर प्रक्रिया में सक्रिय भागीदार होती है।

नेपाल के अपदस्थ प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की राजनीति में कई ऐसे पहलू दिखते हैं, जिनसे यह कहा जाने लगा कि उन्होंने चीन की एकदलीय शासन प्रणाली की शैली अपनाकर जनता और संवैधानिक संस्थाओं पर दबाव बनाने का प्रयास किया। ओली ने प्रधानमंत्री रहते हुए सत्ता अपने हाथों में केंद्रित करने की कोशिश की। संसद को दरकिनार करना, संवैधानिक संस्थाओं पर प्रभाव जमाना और विपक्ष को कमजोर करना उनकी रणनीति का हिस्सा रहा। यह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी जैसी केंद्रीकृत व्यवस्था से मेल खाता है।

उन्होंने संगठन पर पकड़ मजबूत कर एक व्यक्ति-प्रधान नेतृत्व स्थापित करने की कोशिश की। ओली सरकार के दौर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया की आलोचना को लेकर कई सवाल उठे। ओली की राजनीति में लोकतांत्रिक सहमति और संस्थागत संतुलन से ज्यादा सत्ता केंद्रीकरण और असहमति-दमन की प्रवृत्ति दिखी, जिससे लोगों में हताशा बढ़ी और वे व्यवस्था के खिलाफ हो गए।

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नेपाल में एक बड़ी समस्या राजनीतिक अस्थिरता की रही है। वहां लोकतंत्र आने के बाद से गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ, जो निरंतर जारी रहा। सरकारें बार-बार गिरती रहीं और इससे विकृतियां उत्पन्न हो गईं। सत्ता संघर्ष और अवसरवादिता ने लोकतंत्र की विश्वसनीयता को गहरा आघात पहुंचाया है। देश के प्रमुख राजनीतिक नेता विचारधारा या जनहित को दरकिनार करते रहे और व्यक्तिगत लाभ तथा सत्ता-साझेदारी पर केंद्रित हो गए।

नेतृत्व पर गिने-चुने वरिष्ठ नेताओं का वर्चस्व कायम हो गया और युवा या नई पीढ़ी के नेताओं को उभरने का अवसर नहीं मिल पाया। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों पर ठोस नीतियां बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया। लोगों का गुस्सा व्यवस्थाओं पर से भरोसा टूटने के कारण उभर कर सामने आया और इसमें न्यायपालिका पर अविश्वास ने आग में घी का काम किया है।

दक्षिण एशिया में लोकतंत्र पर जनता का विश्वास कमजोर होना गंभीर और बहुआयामी संकट है। म्यांमा, श्रीलंका और बांग्लादेश के बाद नेपाल में जनता का हिंसक विद्रोह समूचे क्षेत्र के लिए चुनौतियां बढ़ा रहा है। पाकिस्तान में पहले ही सेना का प्रभुत्व ज्यादा दिखता है। दूसरी ओर इस क्षेत्र के देशों की व्यवस्थाएं भ्रष्टाचार, सत्ता का केंद्रीकरण और अवसरवाद से प्रभावित रही हैं। इससे गरीबी और असमानता की खाई गहरी हो रही है। जनता में निराशा बढ़ने से विरोध या हिंसक प्रदर्शन भी जोर पकड़ रहे हैं। इससे दक्षिण एशिया के लिए भू-राजनीतिक चुनौतियां भी बढ़ गई हैं।

नेपाल में स्थिरता लाने तथा समूचे दक्षिण एशिया में शांति कायम रखने के लिए भारत की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाती है। भारत को पड़ोसी देशों में लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करने, संवैधानिक और चुनावी सुधार में सहयोग देने तथा आर्थिक और विकास परियोजनाओं के माध्यम से नागरिकों की अपेक्षाओं को पूरा करने के प्रयास जारी रखने होंगे। सीमा सुरक्षा और कूटनीतिक संतुलन बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि भारत पर पड़ोसी देशों की जनता का भरोसा बनाए रखा जाए और कूटनीतिक संबंधों को मजबूत करने के प्रयास किए जाएं। इस तरह भारत क्षेत्रीय स्थिरता सुनिश्चित करते हुए अपने रणनीतिक और आर्थिक हितों की रक्षा कर सकता है।