जब भारत में ‘जेन जेड’ को लेकर सवाल उठाए जा रहे थे कि यहां कोई क्रांति होगी, तभी हिंदी साहित्य के ‘बूमर’ (वरिष्ठ पीढ़ी) ने संकेत दे दिए कि यहां तो ‘जस सत्ता तस साहित्य’ की ही संस्कृति है। जब आप सत्ता के प्रतिनिधि से उसकी नाकामी के बारे में सवाल करेंगे तो कोई आश्चर्य नहीं कि वो कह दे, देखिए आसमान में हाथी उड़ रहा है, यह चमत्कार पहली बार हुआ है। इसके बाद मूल नाकामी के सवाल को छोड़ कर हाथी के उड़ने पर बहस छिड़ जाएगी। जब भी हिंदी साहित्य के बीच से उत्पीड़न का सवाल उठता है तो ज्यादातर साहित्यकार अपनी चेतना की खिड़की बंद कर देते हैं। हमने न कुछ देखा और न कुछ सुना। पिछले दिनों साहित्य में दो सूचनाएं सामने आईं। लेखक को एकमुश्त तीस लाख की ‘रायल्टी’ और साहित्य अकादेमी के सचिव पर यौन उत्पीड़न का आरोप। इस सूचना पर पहला सवाल यह कि तीस लाख की ‘रायल्टी’ किताबी हिसाब तो नहीं? जो कागज पर दिखाया, क्या वही खाते में पहुंचाया? तीस लाख की ‘रायल्टी’ से लेकर यौन उत्पीड़न के सवाल पर हिंदी साहित्य के किताबी हिसाब पर बेबाक बोल।
लेख की शुरुआत इस खबर के हार्दिक स्वागत के साथ कि हिंदी के एक प्रकाशन समूह ने लेखक की एक किताब पर महज छह महीने के अंतराल की एकमुश्त तीस लाख ‘रायल्टी’ दी है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि तीस लाख का विशालकाय चेक उस समय मंच पर जारी किया गया, जब हिंदी साहित्य के सबसे बड़े सरकारी मंच के सचिव पर यौन शोषण का आरोप सामने आया।
साहित्य के इस सूचना युग्म के पहले हिस्से पर बात। कुछ समय पहले एक बड़े प्रकाशन समूह ने हिंदी के स्वयंभू राष्ट्रवादी कवि के साथ एक करोड़ का करार किया था। अभी जैसे प्रकाशक ने विशालकाय चेक का प्रचार किया, उस वक्त प्रचार हुआ था कि यह हिंदी साहित्य का अब तक का सबसे बड़ा करार है। फिलहाल वे कवि जी कहां कविता के नाम पर सिर्फ सत्ता को सुख पहुंचाने वाली तुकबंदी सुना रहे हैं, यह पता करने में मुश्किल नहीं होगी। तीस लाख की ‘रायल्टी’ तक पहुंचने के पहले लेखक के साथ हुए हादसों का घटनाक्रम देखेंगे तो समझ जाएंगे कि किस तरह प्रकाशक किसी लेखक को अपने मुनाफे के आगे चलने वाली मशाल बना सकते हैं।
तीस लाख की ‘रायल्टी’ का विज्ञापन प्रकाशक ने सोची-समझी रणनीति के तहत किया है तो कुछ और सवाल के जवाब जानने की उत्सुकता हो गई है। अगर इनके जवाब नहीं मिले तो इसे फोटो प्रदर्शन का वही अंदाज माना जाएगा जो इन दिनों सत्ता का शीर्ष कर रहा है। यानी ‘जस सत्ता तस साहित्य’। प्रकाशक से अनुरोध है कि वह अपने सभी लेखकों की ‘रायल्टी सूची’ सार्वजनिक कर दे। ऐसा न हुआ तो समझा जाएगा कि यह एक किताबी हिसाब है, जो प्रदर्शित कागज से बाहर कुछ और भी हो सकता है।
यहां याद दिला दें कि हिंदुस्तान की ही एक अंग्रेजी लेखिका पर जब विदेश से पैसा लेकर देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप लगे तो उन्होंने आईना दिखाया था कि उनकी किताब से इतनी ‘रायल्टी’ मिलती है कि उन्हें पैसों की कमी नहीं है। ‘द सूटेबल ब्वाय’ के लेखक विक्रम सेठ को 2013 में अगली किताब लिखने के लिए 1.7 मिलियन पाउंड का अग्रिम भुगतान मिला था। आज की तारीख में यह रकम कितनी होगी इसका किताबी हिसाब कर लीजिए। यह हिंदी की तीस लाख की ‘रायल्टी’ से वर्षों पहले की बात है। भारत में सबसे ज्यादा भुगतान का रेकार्ड अभी तक विक्रम सेठ के पास ही है। एक करोड़ के करार वाले कवि भुगतान के पायदान में आज कहां खड़े हैं, यह सूचना भी आनी चाहिए।
यह संदर्भ इसलिए कि अभी तीस लाख के आंकड़े से चौंधियाए हिंदी के साहित्यकार इस पर किसी तरह के सवाल उठाने को ‘साहित्यद्रोह’के खाते में लाने की सरकार से मांग कर सकते हैं। इस मांग के एवज में भी वे एक पुरस्कार की चाह जरूर रखेंगे।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: मैदान से बाहर देशप्रेम
अब साहित्यिक सूचना के दूसरे हिस्से पर बात। पटना से दिल्ली की दूरी एक हजार किलोमीटर से ज्यादा है। लेकिन दोनों जगहों की साहित्यिक संस्कृति में कोई दूरी नहीं। संस्कृति, अपने आसपास हुए स्त्री शोषण पर चुप्पी की। हिंदी साहित्य के हर खेमे में एक खिड़की रहती है। जब साहित्य के अंदर शोषण खास कर स्त्री शोषण की बात आती है तो ज्यादातर साहित्यकार खिड़की के पर्दे गिरा कर संकेत देते हैं कि हमने न कुछ देखा, न कुछ सुना।
कुछ दिनों पहले पटना में लगाए गए यौन शोषण के आरोप पर पीड़िता पर सवाल उठाए गए थे कि वह अदालत में क्यों नहीं गई? अब इसका भी जवाब है। पटना से एक हजार किलोमीटर की दूरी पर सात साल पहले साहित्य की सबसे बड़ी संस्था के सचिव पर एक स्त्री यौन शोषण का आरोप लगाती है। संस्था की आंतरिक समिति सचिव को पाक-साफ घोषित कर देती है। आरोप लगाने वाली स्त्री को नौकरी से निकाल दिया जाता है।
उस वक्त स्त्री ने कितने व्यंग्य से उन स्त्री-पुरुष रचनाकारों को देखा होगा जो अकादेमी के मंच पर स्त्री के दुख की कविताएं सुनाने आते होंगे। उस स्त्री को साहित्य की खिड़की की हकीकत पता चल चुकी थी। यौन उत्पीड़न पर मुंह खोलने से पहले हर कोई अपना लाभ-हानि देखेगा। कोई सोचेगा कि मैंने स्त्री शोषण पर इतनी बढ़िया नारीवादी कविता लिखी है। अगर यौन उत्पीड़न की असली पीड़ित का पक्ष लिया तो मेरी इतनी हृदयस्पर्शी कविता को मंच कैसे मिलेगा।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: संतति संनाद
इस मामले में अदालती कार्रवाई की रपट को पढ़ कर एक आम इंसान का दिल दहल सकता है। नौकरी के एवज में कोई नियोक्ता स्त्री का किस तरह से शोषण कर सकता है इसकी मिसाल है यह आरोप। अदालती फैसला सामने आने के बाद, इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद भी आप साहित्य अकादेमी के मंच पर चले जाते हैं। फिर यह भी समझ आ जाता है कि आप क्यों कह रहे कि ‘रायल्टी’ का पैसा देखो। सवाल पूछ कर मजा मत खराब करो।
पिछले दिनों नोबेल पुरस्कार विजेता लेखिका की बेटी का आरोप सामने आया था कि किस तरह उसके सौतेले पिताने उसका यौन शोषण किया और उसकी मां ने चुप्पी साधे रखी। एक तरफ दुनिया का उत्कृष्ट लेखन और दूसरी तरफ अपनी बेटी के शोषण पर चुप्पी। यौन शोषण के मसले पर चुप्पी साधने का जब ‘नोबेल’ उदाहरण सामने हो तो फिर हम सत्ता समर्थक साहित्यकारों से क्या उम्मीद करेंगे, जिन्होंने किसी भी तरह के बहिष्कार जैसे शब्द को ही बहिष्कृत कर दिया है।
जब पूरी दुनिया में ‘मी टू’ अभियान चल रहा था, उस वक्त हिंदी की दुनिया में सवाल उठा था कि यहां इतनी चुप्पी क्यों? हिंदी साहित्य में अलग तरह का ‘मी टू’ चलता है। यहां ‘मी टू’ का तात्पर्य है मैं भी चुप। मैं भी चुप की अटूट शृंखला है। हिंदी साहित्य के अंदर आरोपित शोषकों का साथ देने की एक अघोषित परंपरा सी है।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: हमने बनाया
साहित्य अकादेमी मामले में अदालत का फैसला सामने आने के बाद सत्ता समर्थक साहित्यकारों का अम्लीय परीक्षण सामने आ गया। ‘आबहु हंसी साहित्यकार भाई, साहित्य अकादेमी से दूरी सही न जाई’ का राग अलापते हुए सभागार खचाखच भर भी गया। मंच के ऊपर बैठे आरोपी सचिव, अन्य प्रशासक, साहित्यिक भागीदार व नीचे से तालियां बजाते साहित्यकार। इतने बड़े आरोप के बाद इतने सफल आयोजन के लिए साहित्य अकादेमी बधाई की पात्र हो गई। प्रसंग में ले आए गए हरिशंकर परसाई जी।
कहा जाता है कि जब तानाशाही के सामने सभी विधाएं चूक जाती हैं तब व्यंग्य काम आता है। आज परसाई जी होते तो व्यंग्य का ऐसा साहित्यिक शोषण होते देख कर इस विधा से मुंह मोड़ लेते। साहित्य की हर विधा की तरह अब व्यंग्य भी शोषक को सलाम कर रहा है। सत्ता और साहित्य जब साथ हंसते हैं तो व्यंग्य विद्रूप होकर विलाप करता है।
साहित्य अकादेमी और सत्ता समर्थक साहित्यकारों को इतना तो याद दिला देना ही चाहिए कि अदालत ने माना है कि पीड़िता की शिकायत के बाद अकादेमी ने बदले की भावना से काम किया। उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया। सत्ता समर्थक साहित्यकार अकादेमी का कितना भी बचाव कर लें, पर उसके ऊपर अदालत का न्यायिक हथौड़ा चल पड़ा है। अकादेमी पीड़िता की नौकरी और उससे जुड़ी सुविधाएं लौटाएगी, लेकिन अकादेमी का साथ दे रहे साहित्यकारों की साख शायद ही लौट पाएगी।
साहित्य अकादेमी पूरे देश के साहित्य की देखरेख करती है। अब सवाल है, चौकीदार की चौकीदारी कौन करेगा? पिछले दिनों के घटनाक्रम के बाद यह उम्मीद तो नहीं कि अकादेमी नैतिकता के तहत कोई कदम उठाएगी। फिर भी साहित्य अकादेमी के प्रशासकों से लेकर केंद्रीय सत्ता से अनुरोध है कि वह साहित्य का भ्रम बनाए रखने के लिए ही कुछ कदम उठाए। वरना साहित्य अकादेमी का भी हाल देश की अन्य संस्थाओं की तरह हो ही चुका है जो नैतिकता व शुचिता के मामले में रसातल में जा चुकी हैं।