दिल्ली समेत देश के कई बड़े शहर यातायात जाम की चपेट में हैं। बंगलुरु जैसे शहर में तो यातायात को सुचारु बनाने के लिए अधिकांश सड़कों पर एक दिशा में ही वाहनों को चलाने की अनुमति दी गई है। दिल्ली हो या आगरा, लखनऊ हो या चेन्नई, न सिर्फ महानगरों, बल्कि शहरों में भी जाम की समस्या गंभीर होती जा रही है। जाम में फंसने से लोगों की उत्पादकता पर तो असर पड़ता ही है, साथ ही प्रदूषण जैसी समस्याएं भी पैदा होती हैं। उत्तर भारत में तो सर्दियां आते ही प्रदूषण की स्थिति इतनी गंभीर हो जाती है कि पुरानी गाड़ियों के चलाने पर रोक तक लगा दी जाती है। प्रदूषण और जाम का सबसे बड़ा कारण है निजी वाहनों की अनियंत्रित होती संख्या। हालांकि सरकार की नीति हमेशा से यही रही है कि सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा दिया जाए, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। हालात यह है कि सरकार सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल पर जोर देती है, लेकिन उसकी नीतियां ऐसी हैं कि निजी वाहनों को बढ़ावा मिलता है।

अगर विशेषज्ञों की मानें, तो दिल्ली जैसे शहर में ही 57 फीसद से अधिक लोग निजी गाड़ियों का इस्तेमाल करते हैं, जबकि कायदे से होना यह चाहिए कि शहर के कम से कम 70 से 80 फीसद लोग सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करें। पंद्रह साल पहले चीन के बेजिंग शहर की भी लगभग वही स्थिति थी, जो अमूमन सर्दियों में दिल्ली और एनसीआर के शहरों की होती है। मगर बेजिंग में जब सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने समेत कुछ ठोस कदम उठाए गए, तो 2013 से हालात बदलने शुरू हुए और 2020 आते-आते स्थिति पूरी तरह काबू में आ गई।

दरअसल, निजी गाड़ियों की बढ़ती संख्या से समस्या जटिल हो रही है। दिल्ली में ही औसतन रोजाना 1800 से 2000 नए वाहन सड़कों पर आ जाते हैं। यही हाल दूसरे शहरों का भी है। शहरों में तो हालात ऐसे हैं कि लोगों के लिए दुपहिया रखना जरूरी हो जाता है, क्योंकि वहां सार्वजनिक परिवहन के नाम पर आटो ही चलते हैं। ऐसे में जितनी तेजी से निजी वाहन बढ़ती हैं, उतनी रफ्तार से सड़कें नहीं बढ़ रहीं। नतीजा, यातायात जाम से वक्त और र्इंधन की बर्बादी तो होती ही है, साथ ही प्रदूषण की समस्या भी खड़ी हो जाती है। हालांकि वर्ष 2014 के बाद मेट्रो का विस्तार तेजी से हुआ है। दिल्ली, बंगलुरु, चेन्नई और मुंबई के अलावा लखनऊ, जयपुर और गोरखपुर जैसे शहरों में भी मेट्रो दौड़ने लगी है। फिर भी इन शहरों में सार्वजनिक परिवहन की स्थिति को आदर्श नहीं कहा जा सकता। तीसरी और चौथी श्रेणी के शहरों में तो फिर भी तिपहिया या उसी तरह के साधनों से काम चल जाता है, लेकिन बड़े महानगरों और विकसित शहरों में हालात खराब हैं।

सभी सरकारें तर्क देती हैं कि वे सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देना चाहती हैं और इस दिशा में काम भी कर रही हैं। कुछ सरकारें अपने राज्यों के शहरों में मेट्रो और आधुनिक बसें चलाती भी हैं। मगर क्या हर शहर में मेट्रो की इतनी लाइनें बिछ रही हैं कि पूरे शहर को आने-जाने का साधन मिल जाए या फिर इन शहरों में पर्याप्त बसें चल रही हैं? दूसरी बात ये कि क्या मेट्रो या बसें चलाने से ही सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा मिलेगा? अगर सरकारें वाकई गंभीर हैं, तो उन्हें दूसरे देशों के माडल को समझ कर अमल करना होगा। इसके लिए उसे सार्वजनिक वाहनों पर निवेश बढ़ाने की जरूरत है।

उदाहरण के तौर पर देखें, तो दिल्ली समेत कुछ शहरों में मेट्रो चला दी गई है। कुछ शहरों में मेट्रो का निर्माण चल रहा है। लेकिन क्या मेट्रो का किराया इतना है कि वह निजी गाड़ी से सस्ता हो। अभी स्थिति यह है कि दिल्ली जैसे शहर में मेट्रो शुरू होने के तेईस वर्ष बाद भी मेट्रो और बस का किराया एक नहीं है। कार्ड भले ही एक चले, लेकिन दोनों के लिए अलग-अलग किराया देना होता है।

आम लोगों के लिहाज से ज्यादा किराया किसी भी सार्वजनिक परिवहन की परिकल्पना को अधूरा बनाता है। जर्मनी जैसे देश को देखा जा सकता है। यहां अट्ठावन यूरो का अगर पास लिया जाता है, तो सिर्फ किसी एक शहर नहीं, बल्कि पूरे देश में किसी भी मेट्रो, बस, ट्राम और यहां तक कि लोकल ट्रेन में भी सफर किया जा सकता है। यानी एक बार यात्री ने एक महीने का पैसा दिया, तो वह पूरे देश में तेज रफ्तार ट्रेनों के अलावा सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल कर सकता है। वहां सार्वजनिक परिवहन पर निवेश का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मेट्रो, बस और ट्राम आदि के निर्माण पर तो वहां के स्थानीय निकाय पैसा लगाते ही हैं, साथ ही सरकारें डेढ़-डेढ़ अरब यूरो की सबसिडी भी देती हैं।

जर्मनी में इसी साल इसे और बढ़ाने की योजना है। वहीं भारत में केंद्र और राज्य सरकारें मिल कर मेट्रो निर्माण के लिए पचास फीसद तक राशि देती हैं। निर्माण के वक्त ही मेट्रो कंपनियों को चालीस फीसद या उससे अधिक कर्ज लेकर काम करना पड़ता है। ऐसे में मेट्रो का किराया सस्ता नहीं रह जाता। बड़ी बात यह है कि भारत में मेट्रो जैसी परियोजना को बुनियादी ढांचा परियोजना माना जाता है, जबकि जर्मनी में इसे सार्वजनिक सेवा परियोजना के तौर पर लिया जाता है। लगभग यही स्थिति सिंगापुर की है। इसी वजह से वहां सार्वजनिक परिवहन में सफर करने वालों की संख्या 70 से 80 फीसद तक होती है।

भारत में भी केंद्र और राज्य सरकारें सार्वजनिक परिवहन के मामले में निवेश का ढांचा खड़ा करती हैं। कायदे से सरकार को सबसे पहले मेट्रो के साथ ही ये इंतजाम करने चाहिए कि बसें भी उसी तरह समय पर चलें, जैसे मेट्रो चलती है। सड़क पर ऐसी व्यवस्था हो कि बसों को प्राथमिकता मिले ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि मेट्रो की तरह बसें भी यात्रियों को तय समय-सीमा में उनकी मंजिल तक पहुंचाएंगी। इसके लिए सरकार को हर शहर में सड़कों पर ‘लेन सिस्टम’ प्रभावी करना होगा और अतिक्रमण हटाना होग। अगर सरकारें वोट बैंक का लालच छोड़ दें, तो कई छोटे शहरों में मेट्रो की बजाय बेहतरीन बस व्यवस्था बना कर वे लोगों को मेट्रो जैसी सहूलियत दे सकती हैं। बसों और मेट्रो का किराया कम और गरीब तबकों की भी पहुंच में रखना चाहिए।

सार्वजनिक परिवहन पर बड़ा निवेश होगा, तो इसका बड़ा लाभ भी होगा। एक अनुमान के मुताबिक, यातायात जाम में फंसने की वजह से ही सालाना एक लाख करोड़ रुपए की उत्पादकता की हानि होती है। इसी तरह से अगर सार्वजनिक परिवहन बेहतर होगा, तो निजी वाहनों की संख्या कम होगी। इससे सड़कों पर बोझ कम होगा। प्रदूषण नियंत्रण के लिए खर्च होने वाली मोटी रकम बचेगी। सड़क हादसे कम होंगे। उससे होने वाले नुकसान में कमी होगी। इसके अलावा आबोहवा सुधरेगी, तो बीमारियों की वजह से पड़ने वाला बोझ भी कम होगा। ये तभी संभव है, जब न सिर्फ केंद्र बल्कि राज्य सरकारें भी इस मामले में एकजुट हों और मेट्रो तथा बसों को लोक सेवा के रूप में देखें।