यों तो कोई नई बात नहीं है कि एक दलित बच्चे को सवर्ण लोगों ने इतनी बर्बरता से पीटा और इतना डराया-धमकाया कि उस बारह साल के बच्चे ने आत्महत्या कर ली, लेकिन यह खबर मुझे गांधी जयंती पर पढ़ने को मिली एक छोटे स्विस गांव में, जहां मैं हूं इन दिनों किसी के इलाज के सिलसिले में। दूर से अपने वतन के बारे में इस तरह की शर्मनाक खबर मिलती है तो कुछ ज्यादा शर्मिंदगी महसूस होती है। कैसे लोग हैं हमारे देशवासी कि एक बच्चे के साथ इतनी हैवानियत से पेश आ सकते हैं? कैसे लोग हैं जिनको लगता है कि उनके घर में अगर एक दलित बच्चा आता है तो घर अपवित्र हो जाता है? इंसान हैं भी ऐसे लोग?
हुआ यह कि हिमाचल के रोहड़ू जिले के लिंबड़ा गांव में एक दलित बच्चा एक सवर्ण जाति की महिला के घर में गया। इसलिए कि इस औरत की दुकान में वह कुछ खरीदने गया था और जब वहां कोई था नहीं, तो उसके घर में गया मदद मांगने। इसके बाद महिला ने उसको देखकर खूब शोर मचाया, यह कहते हुए कि उसका घर ‘अपवित्र’ हो गया है। इसलिए बच्चे की पहले बुरी तरह पिटाई की गई, फिर उसे कहा गया कि घर को पवित्र करने के लिए उसके परिवार को एक बकरा खरीदना होगा, ताकि उसकी बलि चढ़ाकर उसके खून से घर पवित्र किया जाए।
बच्चा डर के मारे भाग कर सेबों के बाग में छिप गया, यह जान कर कि उसके परिवार के पास बकरा खरीदने के पैसे नहीं हैं। वहीं उसने घबराहट में कीड़े मारने की दवा खाकर अपनी जान दे दी। पुलिस के पास जाकर शिकायत तो दर्ज की है उसके मां-पिता ने, लेकिन अक्सर ऐसी घटनाएं जब होती हैं तो सवर्ण छूट जाते हैं।
अजीब संयोग से इस घटना के एक दिन पहले मुझे अस्पताल में पनामा का एक व्यक्ति मिला। मेरे भारतीय होने के बारे में जानने के बाद उसने कहा कि ‘आपका देश चीन से कहीं आगे होता आज अगर जातिवाद ने उसकी तरक्की रोक के न रखी होती’। मैंने जब पूछा कि क्यों जातिवाद को ही हमारे देश के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण मानता है, तो उसने समझाया कि जिन देशों में मुख्य आबादी को नीचे दबा कर रखा जाता है, उन देशों में प्रगति कभी नहीं हो सकती है। अपने देश का हवाला देते हुए उसने आगे बताया कि उसके देश में भी एक किस्म का जातिवाद है, जिसकी वजह से वह इतनी तरक्की नहीं कर पाया है, जितनी होनी चाहिए थी।
मैंने विषय बदल कर उसकी बात टाल तो दी इसलिए कि मैं पूरी तरह सहमत हूं कि जातिवाद ही मुख्य वजह है कि भारत इतनी तरक्की नहीं कर पाया है, जितनी चीन और उत्तर-पूरब में थाईलैंड, मलेशिया और सिंगापुर जैसे देश कर पाए हैं।
समस्या यह है हमारी कि इस बीमारी का इलाज हम कर कैसे सकते हैं जब गांधीजी जैसे महात्मा भी कुछ नहीं कर सके। गांधीजी के आलोचक कहते हैं कि वे असफल इसलिए रहे कि उन्होंने जातिवाद को समाप्त करने के बदले सिर्फ छुआछूत को रोकने का प्रयास किया था। इसलिए कभी मायावती ने कहा था कि अछूतों को ‘हरिजन’ कहकर कोई समाधान नहीं हो सकता है। बाबा साहेब आंबेडकर भी गांधीजी के प्रयासों के खिलाफ थे। लेकिन पिछले सप्ताह जब मैंने इस बच्चे की खबर पढ़ी तो यह भी याद आया कि उन्होंने कम से कम कोशिश तो की थी। वह भी ऐसे समय जब जवाहरलाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल में सिर्फ ब्राह्मण मंत्री थे।
मेरे बचपन में मुझे याद है कि पढ़े-लिखे लोग भी छुआछूत को इतना मानते थे कि दिल्ली की आला कोठियों में सफाई करने वालों के लिए अलग बर्तन रखे जाते थे लंगर के बाहर। सिख धर्म में जातिवाद बिल्कुल मना है, लेकिन हमारे घर में भी छुआछूत होता था, जब तक मेरी बहन और मैंने तय किया कि हम अपना खाना सफाई वाली बिमला से बनवाएंगे। ऐसे करने के बाद पता लगा कि सबसे ज्यादा एतराज मेरे परिवारवालों से नहीं, लेकिन घर के अन्य नौकरों से हुआ था। उनके जैसे करोड़ों हमारे देशवासी हैं, जो मानते हैं कि जातिवाद हिंदू धर्म का एक पक्का उसूल है, जिसको बदला नहीं जा सकता है। उनकी बातों को समर्थन मिलता है उन पुजारियों से, जो अपने मंदिरों में दलितों को आने नहीं देते हैं।
जातिवाद का सबसे बड़ा नुकसान भारत देश को हुआ है। इसलिए कि जब तक हम देश की इतनी बड़ी आबादी को अनपढ़, असहाय और सिर्फ उन नौकरियों को लेने की इजाजत देते रहेंगे, तब तक हम विकसित नहीं कहे जा सकेंगे। ऊपर से हमारी समस्या यह भी है कि जितना गंदा भारत दिखता है, शायद ही कोई दूसरा देश दिखता होगा। हम सवर्ण जातियों के लोग अपना कूड़ा अपने ‘पवित्र’ घरों के बाहर फेंकते हैं, यह सोचकर कि कूड़ा उठाना हमारा काम नहीं है, किसी और का है। लेकिन जब वही सवर्ण लोग दुबई या किसी विकसित पश्चिमी देश में जाते हैं, तो फौरन अपनी गंदी आदतें बदल डालते हैं। तो ऐसा क्यों नहीं हम अपने देश के अंदर करते हैं?
इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है। इतना जानती हूं कि कानून जितने भी बने हैं जातिवाद को समाप्त करने में नाकाम रहे हैं, क्योंकि अक्सर हमारे देशवासी नहीं चाहते हैं कि हमारी इस सबसे शर्मनाक परंपरा में परिवर्तन लाया जाए। थोड़ा-बहुत परिवर्तन आया है छुआछूत को बंद करने में, लेकिन कारण यह है कि शहरों में लोगों को मालूम नहीं है कि किसी बस या होटल में जो बगल में बैठा है हमारे, उसकी जाति क्या है। इसलिए मुमकिन है कि जब अगले बीस वर्षों में हमारी आधी से ज्यादा आबादी शहरों में रहने लगेगी तो परिवर्तन आएगा। तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।